अर्चना राज़ तुम अर्चना ही हो न ? ये सवाल कोई मुझसे पूछ रहा था जब मै अपने ही शहर में कपडो की एक दूकान में कपडे ले रही थी , मै चौंक उठी थी .... आमतौर पर कोई मुझे इस बेबाकी से इस शहर में नहीं बुलाता क्योंकि एक लंबा अरसा गुजारने के बाद भी इस शहर से मेरा रिश्ता बड़ा औपचारिक सा ही है... न तो मैंने और न ही इस शहर ने कभी मुझे अपना बनाना चाहा पर खैर ...... हलके आश्चर्य के साथ सौजन्यतावश मैंने पलटकर देखा --------हाँ ...मै अर्चना ही हूँ पर माफ़ करें मैंने आपको पहचाना नहीं . मेरे सामने लगभग मेरी ही हमउम्र एक महिला खडी थी , हल्का भरा शरीर , गोरी रंगत , गंभीर आँखें पर किंचित हल्की मुस्कान लिए ..नीले रंग के परिधान में जो उसपर बहुत फब रहा था , तुमने मुझे पहचाना नहीं , मै वैशाली हूँ .....वैशाली आर्या .....याद आया ..... हम कॉलेज में साथ थे . स्मृतियों के लम्बे गलियारे का दरवाज़ा कुछ ही पलों में ख़ट करके खुल गया .....मुझे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पडी ....मैंने उसे तुरंत ही पहचान लिया ......अरे वैशाली .....तुम ..यहाँ ? मुझे ख़ुशी भी थी और कुछ आश्चर्य भी . पहचान लिए जाने की सुकून भरी मुस...