- डाॅ. सुरेश गौतम
- डाॅ वीणा गौतम
प्रयोगवादी धारा के पश्चात् हिंदी गीतिधारा मे गीतकारों का जो वर्ग साहित्यिक मंच पर उभर कर सामने आया उनमें रामावतार त्यागी का स्वर अन्य कवियों से सर्वथा भिन्न सुनाई पड़ता है। गीति-क्षेत्र की जिस परंपरा से आगे बढ़ाने का संकल्प लेकर त्यागी जी चले उसमें वे निस्संदेह सफल हुए हैं। ये नई अनुभूति के समृद्ध गीत-कवि हैं। उन्होंने जीवन मे सौंदर्य और विकृति दोनों को महत्त्व दिया है। उनके गीतों में चित्रात्मकता है। उन्होंने समाज की पीड़ा, तिरस्कार और घृणा को संवेदना की भूमि में अनुभूत किया है। उन्हें अपने अहं पर आस्था है। उनके कतिपय गीत गाए जाने के लिए हैं और कुछ पढ़े जाने के लिए। जीवन का भोगा हुआ संदर्भ त्यागी की रचनाओं में निर्लिप्त रूप से प्रकट है। त्यागी का व्यक्ति और त्यागी का कवि एक-दूसरे के साथ इस प्रकार घुले-मिले हैं कि उनमें किसी की भी अपेक्षा कर दूसरे को जाना ही नहीं जा सकता चूंकि त्यागी ने जो कुछ देखा, जिया, सहा, झेला और भोगा है, मान उसी को वाणी दी है। ‘न उसकी अनुभूति ‘उधार’ की है न अभिव्यक्ति, न उसने अपने आपको आधुनिक सिद्ध करने के लिए झूठी भाषा का प्रयोग किया है न स्वयं को ‘बड़ा’ कवि मनवाने के लिए ऐसी कविताएं लिखी हैं जो पाठक तो दूर स्वयं कवि की भी समझ में नहीं आती। इन्होंने नारों और प्रचार के बल पर स्वयं को प्रतिस्थापित करने का प्रयास भी नहीं किया। उनके गीत किसी व्यक्ति विशेष का रुदन-ह्रास न होकर पूरे मध्यवित्त समाज की स्थिति को बिंबित कर अपनी अलग दृष्टि रेखांकित करते हैं। उसकी चेतना स्वाभिमान की आंच में तपकर कुंदन बन निखरी है इसीलिए वह व्यक्ति तो क्या, समूचे राष्ट्र की भत्र्सना निर्भीक होकर करता है। जब उसकी आंखें देश में काम के स्थान पर प्रदर्शन, जुलूस, और नारी से प्रभावित अपग आस्था को देखती हैं, उसकी विश्वस्त चेतना कराह उठती है।
स्वाभिमान
त्यागी जी के गीतों में उनकी प्राण-चेतना समाई हुई है, उनका व्यक्तित्व गीतों की पंक्तियों में इस प्रकार रच-बस गया है कि उनके गीत उनके व्यक्तित्व को उभार कर उनकी प्राणवानता सिद्ध करते हैं। उनके व्यक्तित्व के मूल गुण स्वाभिमान तथा स्वच्छंदता अनेकाधिक गीतों में प्रमुख स्वर के रूप में तीव्रता से व्यंजित हुई है। कलाकार के गौरवमय अहं की स्पष्ट अभिव्यक्ति त्यागी के गीतों की अतिरिक्त विशेषता है।
कवि में स्वाभिमान की गति अदम्य है। इस अनुपम शक्ति के बल पर वह किसी के आगे अपने अधिकारों की भिक्षा नहीं मांगता, उसे अपनी आत्मिक शक्ति पर सुदृढ आस्था है। आपदाओं और कष्टों के अथाह समुद्र में अपनी जीवन-नौका के डूब जाने अथवा डावाडोल होने की उसे लेशमात्र भी चिंता नहीं है, चाहे कितने ही प्रभंजन परीक्षा कर देख लें, वह तो अपने आत्मविश्वास से दीपित स्वाभिमान की डोर थामे है। इसलिए उसे किसी की दान-दक्षिणा अथवा अनुकंपा की किसी भी स्थिति में आवश्यकता नहीं है।
यदि माझी में तूफ़ानों से टकराने का आत्मविश्वास से परिपूरित साहस है तब सहस्त्रों प्रभंजन भी उसका कुछ नहीं कर सकते। स्वाभिमान की विपुलता के कारण कदाचित् कवि के स्वभाव में अक्खड़पन उत्पन्न हो गया है। यह किसी भी स्थिति के अनुकूल अपने स्वाभिमान को न तो झुकाना जानता है और न ही किसी प्रकार के समझौते का पक्षधर है। जबकि वर्तमान सामाजिक व्यवस्था उसे ऐसा करने को बाध्य करती है, परिणामस्वरूप कवि जो मान-सम्मान पाने की आकांक्षा मन में संजोता है वह उसे प्राप्त नहीं होता। मान-सम्मान न प्राप्त कर पाने के कारण कवि-मन विद्रोह करता है और उसके गीत शिक़ायत के स्वर में परिवर्तित होकर परिवार, समाज यहां तक कि शासन-तंत्र के प्रति भी मुखर और प्रखर हो उठते हैं।
स्वाभिमान तथा शिक़ायत में टकराव की स्थिति उत्पन्न होने पर नया संघर्ष प्रारंभ होता है जो कवि हृदय भूमि पर क्रांति के बीज रोपित कर उसके चिंतन को परिवर्तन की ओर उन्मुख करता है, परिणाम होता है जड़ शासनतंत्र के विरुद्ध विद्रोह। कवि इस तथ्य का निभ्र्रांत शब्दों में उदघोष करता है। जड़ और अनुपयोगी व्यवस्था में परिवर्तन जीवन अनिवार्य-धर्म होने के कारण अवश्यंभावी है।
बलिदान
क्रांति-समर्थकों को सिद्धि सरलता से नहीं प्राप्त होती, उसे प्राप्त करने के लिए न जाने आपदाओं, कष्टों के कितने दुर्गम पर्वत लांघ अनेक उत्सर्ग करने पड़ते हैं, कवि ऐसे ही लोगों का चारण है जो काटों से भरे हुए पथ पर चल अपने चरणों को रक्त से लथ-पथ कर बलिदान करना जानते हैं। विवश स्थितियों के वात्यचक्र में उलझकर उत्सर्ग करना बलिदान नहीं है, समर्पण में तो एक तीव्र ललक हर्ष की निराली चमक है। वंदना, अर्चना भी ऐसे ही मुस्करा कर अस्तित्व निर्मूल करने वालों की होती है जिनका अर्थ और इति ख़ुशी-ख़ुशी बलिदान होने की भावना में समाहित है जिन्हें त्याग कर किसी फल प्राप्ति की अपेक्षा नहीं होती।
स्वातंत्र्य एवं जिजीविषा
अंततः बलिदान की परिणति स्वातंत्र्य एवं जिजीविषा में त्राण पाती है। जिस व्यक्ति में हसते मुस्कराते हुए अधिकार त्यागने की सामथ्र्य है, अपने अधिकारों को रक्षित करने के लिए संघर्ष के वज्र-वक्ष मे छिद्र करने का साहस भी वही रखता है। स्वातंत्र्य मनुष्य का जन्मसिद्ध सर्वप्रथम अधिकार है, त्यागी जी इससे एक क्षण के लिए भी विमुख नहीं हैं चूंकि उनके लिए स्वतंत्रता आध्यात्मिक महत्त्व की वस्तु है।
जीवन का अदम्य वेग, जोखिमों, विपत्तियों से टकराने की अद्भुत क्षमता कवि में विद्यमान है। जीवन के प्रति उसका जीवन-दर्शन स्वस्थ है, इसीलिए वह संपूर्ण आस्था से दुःखों एवं सुखों का समान रूप से आलिंगन करता है। जिजीविषा के इसी रूप ने जीवन-भर विकट संघर्षों के समक्ष कवि को कहीं झुकने अथवा समझौता करने नहीं दिया। इसीलिए उसे अपनी जिजीविषा पर दृढ़ विश्वास है, जिस उद्देश्य प्राप्ति के लिए यह जीवन-संग्राम में निहत्था होकर भी अपने पौरुष का परिचय दे रहा है, उसका श्रेय उसे लक्षित उपलब्धि, सिद्धि तक स्वयं ही ले जाएगा। जीवन-संग्राम में विकट संघर्षों से जूझते कवि के दृग-युगल में कभी-कभी अश्रुकण झिलमिलाने लगते हैं लेकिन हर अश्रुकण कायरता की खोझ नहीं होता वरन् यहां तो कवि के आत्म-विश्वास को सवारती मुस्कान दृदृष्टिगत है। इसका कारण है यह तड़प, जलन से उद्दीप्त तपन, व्यथा जो कवि ने इच्छानुसार स्वयं अंगीकार की है। अनिल का पुत्र कवि तापसी अंगारे का तन बनने की इच्छा से उसे सार्थक की सायास चेष्टा में निरंतर संलग्न रहता है।
इन प्रवृत्तियों ने कवि में एक स्वस्थ प्रवृत्ति मार्गी आस्थापूर्ण प्रबल दृष्टिकोण को जन्म दिया है जो भावात्मक अवधारणाओं पर अवलंबित होने के कारण ऋणात्मक मनःस्थिति का घोर विरोध करता है।
वेदना का गायक
त्यागी के गीतों में वेदना का स्वर सर्वाधिक तीव्र है। वैयक्तिक अथवा सामाजिक दोनों ही स्तरों पर उनके गीतों के मूल में वेदना का साम्राज्य है। वैयक्तिक-वेदना में यदि प्रेम से उत्पन्न नैराश्य का स्वर मुखर है तो सामाजिक वेदना में आर्थिक एवं राजनीतिक कटुताओं से उत्पन्न वैषम्य की अनुभवजन्य तपन विद्यमान है। इन सबकी अनुभूति का मुख्य कारण उनका प्रखर स्वाभिमान तथा स्वातंत्रय-भावना से उत्पन्न वह आत्मिक गौरवपूर्ण शक्ति रही है जिसके बल पर वे कभी किसी शक्ति के समक्ष नहीं टूटे, नहीं बिके।
कवि की वेदना अन्य गीतकारों की वेदना से पृथक् है, उनकी पीड़ा में रुदन का लेश नहीं। न ही उनकी तड़प में नैराश्यांधकार तथा अनास्था का भारी बोझ है जिसे उठाने में कवि असमर्थ हो-कारण, पीड़ा उसकी विवशता नहीं है, उसने वेदना का सहर्ष स्वयं आलिंगन किया है। उसकी आस्था की दृढ़ सीमाओं का संकुचन यही नहीं होता बल्कि कालिमा के गहनतम जलधि में भी वह उसके अस्तित्व को निमज्जित न होने तथा पराजित न होने के आस्थामय स्वर की ध्वनियों को संगीतबद्ध करते हुए कवि-व्यक्तित्व की दृढ़ता को प्रकट करती है।
बुद्धि की अपेक्षा कवि सच्ची भावनाओं को अधिक महत्त्व देता है। प्यार की सच्ची भावना ही मानवता का जयघोष है। ज्ञान के आलोकमय क्षेत्र में भावना का स्थान नहीं होता। ज्ञान चाहे भावना को पराजित करने के लिए लाखों-करोड़ों बोलियां लगा लें लेकिन अर्चा के सच्चे भाव-सुमन कभी नहीं बिकते। त्यागी जी बुद्धि-चकोरि पर विश्वास न करने की चेतना व्यक्ति को देना चाहते हैं जहां सौ-सौ जन्म मुस्करा कर भी मानव फूल सी निश्छल मादकता से खिलखिलाकर नहीं हंस पाया। इसीलिए कवि भावनाओं का कट्टर समर्थक है। बुद्धि तो जीवन में व्यथा-पीड़ा के समुद्र से त्राण प्राप्त करने का सतु है जिसका जब चाहे व्यक्ति निर्माण कर अपनी आत्मा तथा सम्मान-रत्न को विक्रय कर जीवन की संपूर्ण वैभव-निधि का क्रय कर सकता है। स्वाभिमान को सुरक्षित कर त्यागी ने हर स्थान पर हर क्षण भावनाओं को रक्षित किया है जिसके साथ वेदना का घनिष्ठ संबंध है और कवि इसे ही अनमोल पारस-मणि स्वीकारता है। इस पारस-मणि के मूल्य पर वे अपना सब कुछ बलिदान कर देने के पक्ष में हैं। इसीलिए वे गंगाजल से भरे कंचन कलश को दूर कर आंखों से अश्रु पीने में ही अपनी सार्थकता अनुभव करते हैं। उनके अनुसार दर्द ऐसी संपदा है जो मानव-मानव के मध्य सद्भावों का निर्माण कर उसे मानवता से जोड़ती है। एक पागल भी उसे खोने को तैयार नहीं होता फिर कवि ने तो सहर्ष उसे अपने गले का हार बनाया है। अश्रुओं की इस अमूल्य पारस-मणि को प्राप्त कर कवि सिंहासन और मंदिर के आसन को भी तुच्छ बताकर उसी के चरणों में मरने की विकट अभिलाषा प्रकट करता है जिसने उसे अश्रुकणों का मीठा यह उपहार दिया है। इसीलिए वे उस दाता के प्रति भी अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं।
मानवीय गंध की प्यास
त्यागी के गीतों में मानवीय गंध की प्यास तीव्र है। असंयम, दुर्बलता तथा चांचल्य को मानव-स्वभाव के अंग मानकर कवि उनसे उत्पन्न पापों को क्षम्य समझता है। यौवन तो वह स्वर्णिम अवस्था है जब भावनाओं का उत्ताल-ज्वार संयम की रज्जुओं के टुकड़े-टुकड़े बिखेर देता है। ऐसे आवेशजनित यौवन को क्या दोष दिया जाए, ऐसे क्षणों में कवि प्रायश्चितस्वरूप भूलों पर यवनिका गिराने के प्रयास में क्षमा की झालरें संवारता है। जीवन-यौवन के ऐसे ही दुर्लभ क्षणों में प्रेम की सुुषुप्त मादक अनुभूति अंकुर बनकर फूट पड़ती है और कवि को दे जाती है एक मधुर टीस-युक्त वेदना जिसका अभिलाषी कवि सदा से रहा है। प्रेम के इस विषम एकांगी रूप में कवि भावनाएं व्यथा, पीड़ा से तड़पी है, यहां तक कि वह प्रेम को वेदना का पर्याय मानकर स्वीकार कर लेता है। लेकिन प्रेम को वेदना का पर्याय मान लेने से ऐसा प्रतीत नहीं होता कि कवि ने इस प्रेम को पूर्ण एकनिष्ठता के साथ अंगीकार किया है बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि कवि अपनी किसी पुरानी आदत के कारण स्वयं ही पीड़ा को अंगीकृत करते हुए बारंबार दुहराने का आदी है, अन्यथा ‘प्रेम’ एवं ‘मन-बहलाना’ भी कवि के लिए सौ-सौ सौगंध उठाने के समान पर्याप्त है?
आर्थिक एवं सामाजिक स्थितियों से उत्पन्न वेदना भी कवि को अभीष्ट है। समाज में आर्थिक व्यवस्था की दारुण चक्की कुछ इस तरह चलती है कि कलाकार की संपूर्ण महत्वाकांक्षाएं ही नहीं कोमल भावनाएं भी निर्ममता से दो पाटों के मध्य कुचली जाती है। जीवन की रंगीनियों में छुपी विद्रूपताओं को त्यागी ने अपने सद्य प्रकाशित गीत संग्रह ‘गाता हुआ दर्द’ में बड़ी ख़ूबसूरती से पेश किया है। रूढ़िवादी मानसिकता की सीवन उधेड़ते हुए त्यागी वर्तमान सामाजिक, राजनैतिक मठाधीशों को बख्शते नहीं हैं अपितु बड़ेे नफीस तरीके से उन पर व्यंग्य करते हैं। समाज की यथार्थवादी तस्वीर खींचते हुए त्यागी यंत्रचालित व्यवस्था के अनुचित कृत्यों का विरोध करते हैं। भावना-जल निरंतर मृगतृष्णा की भांति कवि-दृग-युगल के सामने आकर भी उद्विग्न प्यासा रहता है। समाज की सबसे बड़ी त्रासदी तो यही है कि ऐश्वर्य के लोभ लालच में अनेक अकरणीय कृत्य भी स्वच्छंदता से होते हैं। इस यंत्रचालित व्यवस्था के अनौचित्यपूर्ण कृत्य का कवि प्रबल विरोधी है इसीलिए दुनिया के मंदिर में उसकी अर्चना व्यर्थ है। चूंकि तथाकथित मठाधीशों के हाथों कवि ने अपनी आत्मा का सौदा करने से इंकार कर दिया। आर्थिक जर्जरता से ग्रसित कवि-कला उसे पूर्ण शरीर ढकने के लिए कफ़न दिलाने में भी असमर्थ है। जीवन और जीवन-स्वातंत्र्य लिए निर्धनता सबसे घोर अभिशाप है और प्रतिभा इसी अभिशप्त निर्धनता की बेटी हो गई है। इसके पश्चात् भी कवि ने अपनी प्रबल आस्था तथा आत्मिक विश्वास के बल पर उसका वरण किया है क्योंकि कठिनाइयों से जूझने, तूफ़ानों से क्रीड़ा करने में कवि को मज़ा आता है। तूफ़ानी, संघर्षों के वज्र पांवों में कवि बेड़ियां पहनाने का अटल संकल्प लेकर जीवन-संग्राम में अपने कवि-धर्म को निर्भीक होकर निभ्र्रांत शब्दों में अभिव्यक्त करता है। चाहे उसे संपूर्ण उमर सूनी काल-कोठरी में व्यतीत करनी पडे़ किंतु वह जीवन-भर कारावास की कठोर यातना भोगते हुए भी स्वर्ण के हाथों अपनी लेखनी और गीतों को विक्रय करने को उद्धृत नहीं हैं।
शिल्प दृष्टि
प्रभावशाली और सक्षम अभिव्यक्ति के कारण आधुनिक गीतकारों में त्यागी का स्थान महत्वपूर्ण है। अन्य गीतकारों की भांति ही प्रणय की विभिन्न स्थितियों का चित्रण कवि ने किया है लेकिन इनकी प्रणयाभिव्यक्ति में मार्मिकता और विदग्धता के साथ-साथ इतनी जीवनता है कि वे सहज ही वाचक के हृदय पर सीधा और तीव्र प्रभाव कर मन की तंत्रियों को होले-से झंकृत कर देती है। अपनी बात को नए ढंग से व्यंजित कर उक्ति को अधिक आकर्षक और व्यापक अर्थवत्ता प्रदान करने का गुण उनके गीतों की निजी विशेषता है।
त्यागी जी को एकदम दोषमुक्त ठहराना उचित नहीं है। ‘छंद गीतों की व्यवस्था मात्र है, बंधन नहीं है, मानने वाले त्यागी का सबसे बड़ा दोष यही है कि यह आज भी छंद को उसी प्रकार अपने सीने से चिपकाए हुए हैं जिस प्रकार एक बंदरिया अपने मरे हुए बच्चे को। यही स्थिति उनके उपमानों की भी है। हालांकि वह दूसरों को संबोधित करता हुआ उनके उपमानों पर अविश्वास की खुली घोषणा करता है और इधर स्वयं कवि गिनती के कुछ उपमानों का आश्रय लेकर आज की बात कहने का प्रयास करता है जो कभी-कभी घिसे-पिटे उपमानों के प्रयोग के कारण फुसफुसा कर रह जाती है। ऐसे उपमानों का चयन और प्रयोग पाठक के मन पर किसी प्रकार के नवीन प्रभाव को न डाल कर उनके गीतों को सामान्य प्रवृत्ति की ओर इंगित करता है। ठीक इसी के समानांतर उनके गीत की स्थिति है जो आग्रह को छोड़ कर कभी-कभी दुराग्रह की सीमा को लांघ जाती है और उसकी गति-क्षमता पर प्रश्न चिह्न लगाते हुए गीतों के प्रति अरुचि-भाव उत्पन्न करने में सहायक बन जाती है।
गीतों के दर्पण को छोटा स्वीकार कर जीवन के आकार को बड़ा मानने वाले त्यागी जब नई कविता की मृत्यु की उद्घोषणा कर गीत को विद्यापति का पुत्र कहकर उसकी दुंदुभि बजाते हैं तब उनकी यह उद्घोषणा भी उतनी ही बेमानी लगती है। जितनी कि गीत की मृत्यु की उद्घोषणा करने वाले छिछली राजनीति से प्रेरित तथाकथित बुद्धिजीवियों का कथन। लेकिन संतोष इसी बात का है कि कवि को इस स्थिति का आभास है। हमारा यह विश्वास है कि यह अहसास त्यागी जी को एक दिन गीत की रूढ़ियां तोड़ने के लिए विवश करेगा।
अप्रस्तुत विधान
त्यागी जी के गीतों का अप्रस्तुत विधान भी पर्याप्त सक्षम एवं आकर्षक है। परंपरागत उपमानों को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने स्वनिर्मित नवीन उपमानों का सफल प्रयोग किया है। नूतन उपमानों से सज्जित अनेक मौलिक प्रयोग उनके गीतों में सहज ही उपलब्ध हो जाते हैं। उनके उपमानों का विभाजन हम चार वर्गों में कर सकते हैं- परंपरागत उपमान, नवीन उपमान, ऐतिहासिक-पौराणिक उपमान तथा वीभत्स उपमान।
परंपरागत उपमानों में प्रायः रूढ़िगत काव्यात्मक उपमानों चंदा, चकोरी, पपीहे आदि को ही कवि ने मान्यता दी है। नवीन उपमानों के सुंदर चयन के लिए कहीं कवि प्रकृति-खोजी हुआ है तो कहीं जीवन के क्षेत्र को अपनाया गया है। वैज्ञानिक सुखोपलब्धियों से ग्रसित बौद्धिकता-प्रधान युग की नागर सभ्यता के प्रभाव-स्वरूप कवि ने मेघों में भी पूंजीपतियों की-सी कृपणता को देखा है। अन्य आधुनिक गीतकारों की भांति पौराणिक- ऐतिहासिक उपमानों का बाहुल्य भी त्यागी जी के गीतों में देखा जा सकता है। अनेक वीभत्स उपमानों का प्रयोग कवि ने उर्दू अभिव्यंजना के प्रभाववश स्वीकार किया है।
भाषा
त्यागी जी के गीतों की सफलता और लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण उनकी सहज-सरल भाषा है। उत्तर-छायावादी काल में अभिव्यक्ति की सफाई को भाषा का सर्वमान्य गुण स्वीकार किया गया है, त्यागी जी के गीत इसके साक्षात् प्रमाण हैं। भाषा में बोल चाल के शब्दों का आधिक्य, परिष्कृत खड़ी-बोली का चलता हुआ मृदुल एवं संगीतमय रूप उनके गीतों की सहज उपलब्धि है। कथन की वक्रता उनके गीतों के प्रभाव क्षेत्र का विस्तार कर उन्हें नई भाव-क्षमता प्रदान करती है। भाषा में कहीं कहीं उर्दू प्रभाव के साथ-साथ सामान्य जीवन में प्रचलित लोकोक्तियों का प्रयोग भी कवि-भाषा की अन्य विशेषता है। अन्य समकालीन गीतकारों की भांति कवि भी व्याकरण-संबंधी अशुद्धियों से बच निकलने में असफल रहा है।
गीतों का रूपाकार-संगीतात्मकता
भावाभिव्यक्ति के लिए गीत-विधा चुन कर त्यागी ने उसे पर्याप्त समृद्ध किया है। संक्षिप्तता और गेयता उनके प्रायः सभी गीतों का विशेष अर्जित गुण है। उनके गीत की प्रथम दो पंक्तियों में उनकी मुख्य भावाभिव्यंजना निहित रहती है फिर उसके पश्चात् चार पंक्तियों का एक पद और फिर वैसी ही दो पंक्तियां उनकी भावाभिव्यक्ति के अनुकूल वातावरण निर्मित करती है। इस प्रकार के विधान के कारण उनके गोतों में टेरी आवृत्ति न होकर भिन्न-भिन्न शब्दों द्वारा मुख्य भाव की आवृत्ति ही होती है। उनके श्रेष्ठ गीत-संकलन ‘आठवां-स्वर’ के अनेक गीत ‘मन को तो मैं समझा लूंगा,’ ‘सागर से यह बात करूंगा,’ ‘मन की उजली किरणों में बांध मुझे’, ‘सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे’ आदि गीत-शैली के प्रमाणस्वरुप उद्धृत किए जा सकते हैं। इसके अतिरिक्त सूत्रात्मक्ता भी इनके गीतों की निजी विशेषता है जो एक निराली रंग-छटा बिखेरते हुए कवि की भावाभिव्यक्ति को समर्थ फल का आधार प्रदान करती है।
मूल्यांकन
रामावतार त्यागी प्रमुखतः संघर्ष और शक्ति के कवि हैं। प्रणय-रोमांस उनके कृतित्व का गौण स्वर है। उन्होंने हर नए चिंतन और भाव को गीतिमय माध्यम से अभिव्यक्त कर गीत-क्षमता के साथ-साथ अपनी प्रातिभ शक्ति-चेतना को स्पष्ट रूप में घोषित किया है। भाव धरातल पर उनकी सक्षम लेखनी ने वेदना एवं प्रणय के विभिन्न स्वरों को वाणी दी है। अभिव्यक्ति के सहज सौंदर्य ने उनके गीतों को पर्याप्त आकर्षण प्रदान किया है। अपने संघर्षमय जीवन तथा स्वस्थ जीवन-दर्शन पर आधारित जिजीविषा के बल पर उन्होंने नवगीतकारों मे अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। उनकी रचनाएं पीड़ा, टीस और प्रेम की भंगिमा के साथ आक्रोश की तीव्र शक्ति को आत्मसात किए है।
‘गुलाब और बबूल वन’ (सन् 1973) और ‘गाता हुआ दर्द’ (सन् 1984) में आकर त्यागी के तेवर का बांकपन पहले की तरह ही क़ायम है। वक़्त गुज़रने के साथ ज़िंदगी ने उसे तराशा ज़रूर है मगर इतना ही नहीं कि उसका सारा खुरदरापन घिस गया हो। समझौतों की दुनिया में रहने के बावजूद आज भी उसमें चुनौती उसी तरह जीवित है जिस तरह एक मुद्दत से शहर में रहने के बावजूद आज भी उसमें ‘गांव’ जीवित है। शहरी वातावरण और सुविधाएं उसे इतना ‘सभ्य’ कभी नहीं बना पाईं कि भीड़ में उसकी सूरत अलग से पहचानी ही न जा सके। आज भी उसके चेहरे पर विद्रोह और अस्वीकार की चमक ज्यों की त्यों बनी हुई है। आज भी वह यह कहने का साहस रखता है-‘गीत नहीं आग लिखूंगा’।
त्यागी की बदनसीबी यह है कि दर्द उसके साथ लगा रहा है, उसकी ख़ुशनसीबी यह है कि दर्द को गीत बनाने की कला में वह माहिर है। गीत को जितनी निष्ठा से उसने लिया है, वह स्वयं में एक मिसाल है। आधुनिक गीत-साहित्य का इतिहास उसके गीतों की विस्तारपूर्वक चर्चा किए बिना लिखा ही नहीं जा सकता। गीत के प्रति समर्पित व्यक्तित्व रामावतार त्यागी का अब यही स्वप्न है कि उसके द्वारा किसी बड़ी और महत्वपूर्ण रचना का सृजन हो। महल का कंगूरा तो हर व्यक्ति बनना चाहता है लेकिन त्यागी को संतोष है कि देहाती नीव पर गीत की ईंट उन्होंने रखी थी और अब उस पर सुंदर ताजमहल खड़ा हो चुका है।
संदर्भ- ‘नवगीत: इतिहास और उपलब्धि’, डाॅ. सुरेश गौतम, डाॅ. (श्रीमती) वीणा गौतम, शारदा प्रकाशन, नई दिल्ली (संस्करण 1985), पृ.-108 से 116
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