-राजगोपाल सिंह वर्मा
रोहिल्लाओं के सिरमौर नजीबुदौला का रूहेलखण्ड के इतिहास में एक अलग ही स्थान है। वह वीर, पराक्रमी और कूटनीतज्ञ था, पर उसके बेटे जाबिता खान और फिर पौत्र के संबंध में यह धारणा नहीं बनाई जा सकती। विशेष रूप से उसका महत्त्वाकांक्षी पौत्र गुलाम कादिर इतिहास में एक बदनुमा धब्बे की तरह जाना जाता है। उसने धन-दौलत की हवस में तत्कालीन मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय की आँखें नुचवा ली थीं और तमाम अमानुषिक अत्याचार किये थे। मेरी पुस्तक ‘बेगम समरू का सच’ में इस प्रकरण पर विस्तार से चर्चा है। पूरे संदर्भों के लिए पुस्तक पद्धनी होगी। भाई अमन कुमार त्यागी जी के निर्देश पर किताब के वेअंश प्रस्तुत हैं-
सन १७८७ के आखिरी दिनों में एक और तूफान आने की राह देख रहा था. सहारनपुर का शासक रुहेला बागी सरदार जाबिता खां का बेटा गुलाम कादिर हुआ करता था. उसने इस अफरा-तफरी के माहौल का फायदा उठा कर दिल्ली की सल्तनत पर कब्जा करने के अपने ख्वाब को अमली जामा पहनाना शुरू किया.
जुलाई १७८७ में लालसोट में महादजी की पराजय के बाद से गुलाम कादिर मराठों के विनाश की पटकथा के तथाकथित निर्णायक अध्याय लिखने में व्यस्त था. वह लम्बे समय से पहले अपने पितामह नजीबुदौल्ला के इलाके दोआब और बाद में दिल्ली के क्षेत्र में अपनी स्थिति मजबूत बनाने की रणनीति पर काम कर रहा था. २१ अगस्त १७८७ को गुलाम कादिर अपनी सेना के साथ बागपत पहुंचा. यह उसकी हिम्मत और आत्मविश्वास की अति थी कि उसने मुगल सम्राट को अपने आने की सूचना भिजवा कर निमन्त्रण प्राप्त करने की भी अपेक्षा की थी.
यह वही गुलाम कादिर था, जिसके पिता जाबिता खान को समरू साहब ने शिकस्त दी थी. पर अब जबकि मुगल सत्ता दुर्बल हो गई थी, उसके अच्छे दिन आ गये लगते थे. अपनी योजनानुसार एक दिन वह अपनी सेना को लेकर किले के उस पार यमुना नदी के मुहाने तक पहुँच गया था. गुलाम कादिर खां को अपनी जीत का भरोसा इसलिए भी बन गया था, कि उसके साथ मुगलों का एक बड़ा दरबारी, उनका नाजिर, मंजूर अली इस षड्यंत्र में पूरी वफादारी के साथ आ मिला था.
मुगल सेना ने रुहेला सरदार की सेना की ताकत को आंकने में थोड़ा लापरवाही कर दी. शाहदरा में शाह निजामुद्दीन ने एक छोटी सैन्य टुकड़ी को यमुना पार उनके अड्डे पर भेजकर ललकारा. लेकिन उसका असर उल्टा हुआ. रुहेला सेना ने मुगलों की इस छोटी सेना को तहस-नहस कर दिया. कहा जाता है कि कादिर की प्रशिक्षित सेना के विरुद्ध यह अकौशलपूर्ण आक्रमण था, इसलिए मुगल सेना का परास्त होना अवश्यंभावी था. न जाने कितने लोग हताहत हुए, और बंदी बनाये गये. तब तक मुगल सेनापति निजामुद्दीन भी नाजिर अली की बेवफाई और गद्दारी को समझ गया था. उसने समझदारी से काम लेते हुए, दिल्ली से २२ मील दूर दक्षिण में स्थित बल्लभगढ़ किले में शरण लेकर वहीं से रुहेलों के विरुद्ध मोर्चा लेने की रणनीति बनाई.
दिल्ली की मुगल सल्तनत के गौरवशाली इतिहास में यह बड़ा खराब समय था. शिंदे ग्वालियर में फंसे थे, निजामउद्दीन को बल्लभगढ़ में शरण लेनी पड़ी थी. उधर रुहेलों के पास नाजिर अली जैसा जानकार भेदिया आ मिला था. यूँ कहिये मुगल दरबार रुहेलों की दया पर निर्भर हो गया था, और सल्तनत उसकी गोद में आ गिरी, बिना किसी प्रतिरोध या बचाव की कोशिशों के.
इस प्रकार एक सुबह रुहेला नवाब आराम से अपने सैनिकों के साथ यमुना नदी के मुहाने से पार कर एक वीरान और असहाय मुगल दरबार की ओर बिना किसी रुकावट के कूच कर गया. मुगल सल्तनत का इतना बेबस शहंशाह शायद ही इस तवारीख में कभी कोई रहा होगा. पराजित सम्राट ने विद्रोहियों से मैत्री की बातचीत आरंभ कर दी थी.
१८ जुलाई १७८८ की तारीख दिल्ली के मुगल दरबार के एक तवारीखी तारीख के रूप में जानी जाती है. लाल किले का लाहौरी दरवाजा अपनी मजबूती के कारण फौलादी दरवाजा भी कहलाता था. इस दिन जब तक कोई समझ पाता, या उन्हें रोकने की सोचता भी, इसी दरवाजे से गुलाम कादिर और इस्माइल बेग ने अपने लगभग दो हजार सैनिकों के साथ प्रवेश कर लिया. उन में से कुछ सैनिक दीवान-ए-खास के संगमरमरी हाल में छा गये, बाकी लाल किले के अन्य भागों में. वरांडों, बाग-बगीचों , छत और आरामगाहों तक में बड़ी दाढ़ी वाले अफगानी रोहिल्ला सैनिक दिखते थे. अपनी म्यान में और खुली तेज धारदार तलवार लहराते हुये, ढाल-वस्त्र धारण कर अपने हथियारों से लैस उन आततायी योद्धाओं ने इस राजप्रासाद का कोई हिस्सा नहीं छोड़ा था, जहाँ उनकी मौजूदगी न हो. जैसे-जैसे गुलाम कादिर की सेना आगे बढ़ती गई, वैसे-वैसे ही मुगल सैनिक इधर-उधर छिपते गये. रुहेलों को ज्यादा कोशिश भी नहीं करनी पडी. यूँ कहें कि किला ऐसे वीरान हुआ कि जैसे उसमें शाह आलम के अलावा कोई और हो ही न. जब वह शाह आलम के दरबार में पहुंचा, तो मुगल वारिस चुपचाप अपने तख्त-ओ-ताज पर बैठा किस्मत के इस रूप पर खुद ही तरस खा रहा था.
कहते हैं कि शाह आलम के उन्नीस बेटे उस समय लाल किले के परिसर में ही मौजूद थे, जिन्हें धकेल कर मोती मस्जिद में इकट्ठा किया गया. यह वही मोती मस्जिद थी, जिसमें केवल राजपरिवार को ही नमाज अता करने की सहूलियत थी. उस समय लाल किले में १८०० के आसपास नौकर-चाकर और अन्य कारिंदे मौजूद थे, जो मीना बाजार और किले की गलियों से होते ऐसे गुम हुए, जैसे यहाँ कभी रहते ही न हों. जो बचे थे, उनको समझा दिया गया कि जैसा कहा गया है वैसा करो, या फिर भुगतने को तैयार रहो.
आज बदमिजाज रुहेला शासक अपने स्वप्न को साकार करता शाह आलम के सामने उसी के किले में, उस दरबार में आ खड़ा था, जहाँ आम मौकों पर उसकी आवाजाही भी नहीं हो सकती थी. यह वही सम्राट शाह आलम था जिसके पुरखे बाबर, हिमांयू,अकबर महान, शाहजहाँ और औरंगजेब हुआ करते थे. ये वो लोग थे, जिन्होंने एक समय में पूरे हिन्दुस्तान को अपना बना कर इतिहास में जो जगह दर्ज की थी, वह अन्य किसी भी राजवंश के लिए ईर्ष्या का कारण हो सकती थी. पर, आज उसी साम्राज्य के इस वंशज की दशा दयनीय हो गई थी. बात यह भी थी कि यह वही रुहेला था जिसका बाप मुगलों से बगावत कर हार बैठा था, और दादा नजीबुदौल्ला मुगल सल्तनत के लिए सलाम बजा लाता रहा था.
नाजिर ने गुलाम कादिर को सम्राट से मिलवाया जरूर, पर स्थिति फिलहाल सम्राट के नहीं, इस रुहेले आततायी की ओर अधिक दिखती थी. रुहेला सरदार कम ही सही, पर चतुर था. उसने सलाम किया शहंशाह को, पर इज्जत के भाव नहीं, उपहास के भाव दिखते थे उसकी भूरी आँखों में. उसने तख्त-ए-ताज पर बैठे शहंशाह को धकेल कर एक ओर किया, और नजदीक आ बैठा. हुक्के में तम्बाकू भरा था, और आग भी सुलग रही थी. एक कश लेकर उसने शाह आलम के मुंह पर धुवें का गुबार छोड़ा और मुस्कुराते हुए कहा,
“देखा, तुम्हारी क्या हैसियत कर दी है मैंने. और सुनो, आज से मैं अमीर-उल-उमरा हूँ.”
शाह आलम के पास कोई विकल्प नहीं था. उसने उस रुहेला पठान की आँखों में झाँक कर देखा जहाँ धूर्तता ही धूर्तता दिख रही थी. पर, उस धूर्त का माकूल जवाब देने की कूवत भी नहीं शेष बची थी फिलहाल शाह आलम में.
“अब तुम आ ही गये हो तो जो मर्जी हो करो”,
उदास शाह आलम ने हिकारत के भाव से कहा.
“अब शिंदे का क्या भरोसा कि वह लौट कर ना ही आये... वहीं तबाह हो चुका हो शायद!”,
बोल कर और कडुवाहट दिखाई उसने.
शाह आलम दिल का साफ था. वह उसके प्रति भी व्यक्तिगत बैर भाव नहीं रखता था, तथा अपनी रियाया के लिए माकूल चिंता भी करता था. फिर, शिंदे तो उसका सबसे विश्वसनीय व्यक्ति था, जो उसी की सहमति से सैनिक अभियान में बागियों को कुचलने गया था. ऐसे वफादार सलाहकार को गुमनामी के अंधेरों में सौंप कर इस आतंकी को अपना प्रमुख दरबारी बनाने का खयाल भी उसके लिए एक नापाक इरादे-सा था. पर, रुहेला सरदार की बेचैनी को भी शहंशाह महसूस कर सकता था.
“आखिर तुम निकले वही... जिस से तुम्हारे वंश को पहचाना जाता है कादिर...! इस गुलामियत की पेशकश से तुमने अपनी हैसियत तो आंक ली, पर क्या यह भी सोचा कि जिस शहंशाह के पास शिंदे जैसा हीरा हो, वह गुलाम भला मुगल सल्तनत को क्या सलाह देगा?”,
कहकर सम्राट ने गुलाम कादिर को बेहद हिकारत की निगाह से देखा.
“जनाब... हमें गुलाम कहलाने पर कोई आपत्ति नहीं. पर आप भी अब इस नाचीज के गुलाम बन चुके हैं, यह भी दिमाग में रखिये३ वक्त का भरोसा नहीं होता! अब हमारा वक्त है”,
बेशर्म कादिर ने अहंकार भरे शब्दों में शहंशाह की खिल्ली उड़ाने के अंदाज में कहा.
शाह आलम उठ खड़े हुए. आँखों में खून उतर आया था, पर वक्त का तकाजा कुछ और था. लेकिन इस धूर्त इंसान की महत्वाकांक्षाएं पूरी होने का भी वक्त नहीं आया था. उसे किसी अकूत खजाने की तलाश थी.
उधर, जैसे ही बेगम समरू को खबर पहुंची कि गुलाम कादिर की सेना ने जमुना के पार पड़ाव डाला है, और कुछ बड़ी गड़बड़ का अंदेशा है, ऐसे ही बेगम ने दिल्ली चलने के लिए फौज को तैयार करने का हुक्म दिया. बेगम की सारी सेना इस समय पानीपत में प्रताप सिंह के विरुद्ध पड़ाव डाले थी. पर, शाह आलम को उनकी खोयी हुई प्रतिष्ठा वापिस दिलाना और गुलाम कादिर को सबक सिखाना बनिस्पत ज्यादा जरूरी था.
हालांकि उन दिनों खबरों के लिए तेज साधन उपलब्ध नहीं थे, जितनी खबरें उडती थी, उस से कई गुनी अफवाहों का बाजार गर्म रहता था. लेकिन दो बातें साफ थी-- एक, गुलाम कादिर ने दिल्ली की सल्तनत पर कब्जा कर लिया है, और दिल्ली दरबार के शहंशाह शाह आलम को कठपुतली की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. दूसरे, यह कि इस सब के विरोध के लिए न सिंधिया, और न उनका नायब वहां मौजूद हैं.
कहते हैं कि तब बेगम ने जानकारी मिलते ही बिना वक्त गँवाए ‘चलो दिल्ली’ का नारा दिया. खुद चूड़ीदार पायजामे, कसी पोशाक व जैकेट पहन कर, घोड़े पर तलवार सम्भाले अपनी सेना के साथ बेगम ने दिल्ली की तरफ कूच कर दिया. पर वास्तव में वह उस समय टप्पल में थी. इसलिए उसे सरधना के रास्ते दिल्ली पहुँचने में वक्त लगा. वह यह भी जानती थी कि गुलाम कादिर जरूर पूरी तैयारी और चालबाजी से दिल्ली पर धावा बोलने की हिम्मत कर पाया होगा, और यह कि उसके मुकाबले में बेगम की सेना परास्त भी हो सकती थी. पर, अब बात जज्बात की आ पहुंची थी. बेगम यूँ भी शाह आलम की बहुत इज्जत करती थी, और यह अभियान सिर्फ जमीर की आवाज पर ‘मरो या मार दोश् की तर्ज पर उठाया गया था.
गुलाम कादिर दिल्ली दरबार में बेगम की इज्जत और रुतबे से तो वाकिफ था ही, उसे बेगम की फौज की तैयारियों की भी जानकारी थी. जैसे ही उसे बेगम के दिल्ली कूच की खबर मिली, कादिर की हालत पतली हो गई. उसने अपने सिपहसालारों से मशवरा किया, जो खुद बेगम की फौज के आने से खौफजदा हो गये थे. आखिरकार तय किया गया कि बेगम से मिलकर ऐसी पेशकश की जाए जो दोनों लोगों के फायदे में हो.
रुहेला सरदार गुलाम कादिर अपने दो साथियों के साथ लाल किले के उस पार बेगम की फौज के पड़ाव के स्थान पर पहुंचा.
“बेगम साहिबा से अर्ज करो कि दिल्ली दरबार का बड़ा वजीर, और उनका छोटा भाई गुलाम कादिर बेगम की खिदमत में इज्जत नवाजने आया है”,
रुहेला रियासतदार ने पहरेदारों से कहलवाया.
उसे बगल के तंबू में इतजार करने को कहा गया. लगभग आधे घंटे की बेचैनी के लम्हों के बाद बुलावा आया. तब तक न जाने कितने तरह के ख्याल उसके मन में घुमड़ते रहे.
बेगम अपने अस्थायी डेरे में एक ऊंची और बड़ी कुर्सी पर मसनदों के सहारे विराजमान थी. वह फौजी पोशाक में थी. सर पर साफा भी बंधा था. चार फौजी अंगरक्षक और एक वजीर उनके इर्द गिर्द मुस्तैद खड़े थे.
गुलाम कादिर ने झुक कर सलाम किया. वह एक निगाह बेगम को देखता ही रह गया. उसने नाम तो अकसर सुना था, पर देखने का मौका यूँ मिलेगा, इसका गुमान भी न था. बेगम ने उसे इशारे से दूर रखी एक साधारण कुर्सी पर बैठने को कहा.
“कहो..गुलाम?”,
थोड़ा तल्खी और बेरुखी से बेगम ने कहा.
बेगम इस रुहेला रियासतदार की हरकत से बेहद नाराज थी. वह शहंशाह शाह आलम की दिल से इज्जत करती थी, और उसके दरबार पर कब्जा कर जबरन उनसे वजीर-ए-खास की पदवी हथियाने का गुलाम कादिर का तरीका बेग को बिल्कुल पसंद नहीं आया था. वह सुनना चाहती थी कि क्या अर्ज करने आया था यह शातिर गुलाम कादिर.
“बेगम हुजूर... कुछ पेशकश करनी है आपके दरबार में, गर बुरा न मानें तो”,
अपनी कंजी आँखों में थोड़े गहरे भाव लिए गुलाम कादिर ने बेगम से कहा.
बेगम के मन में कादिर के लिए हिकारत के भाव हावी थे, पर दूरी बहुत थी, उन दोनों के बीच की. या तो कादिर पढ़ नहीं पाया, या बेगम ने वह भाव उभरने ही नहीं दिए, मन के मन में रखे. इतना तो उन्हें आता था.
“कहो३ क्या है तुम्हारे मन में?”,
बेगम ने सपाट भाव से पूछा.
“हुजूर कहें तो...बुरा न मानें तो... हम लोग साथ-साथ काम करें. आप इस सल्तनत की मलिका बनें ...आधा-आधा बांट लेंगे पूरा हिंदुस्तान हम. आपको तो पता है कि शाह आलम इतने कमजोर हैं अब कि न वो, और न उनकी फौज हम लोगों का विरोध कर पाएगी.”
मारे गुस्से के बेगम समरू की मुट्ठियाँ तन गई. धमनियों में रुधिर का प्रवाह तेज हो चला, धडकनें असंयत हुई, पर उन्होंने स्वयं को नियंत्रित रखा. चेहरे के भाव प्रभावित न हो पायें, इतना तो नियंत्रण था उनका अपने ऊपर. बोली,
“कैसे संभव है यह नामुमकिन काम ?”
“कुछ भी नामुमकिन नहीं हुजूर... बस मेरे ऊपर छोड़ दें. सब पलक झपकते होगा...! समरू साहब इस मुल्क के आका न बन पाए तो क्या... आपको यह ताज मिलेगा, तभी तो उनकी रूह को सुकूं मिलेगा बेगम साहिबा!”,
ऐसे कहा गुलाम कादिर ने, जैसे बेगम इसी मौके की तलाश में हों. कहते हैं न कि धोखेबाज आदमी हमेशा प्रपंच की ही बात करता है. न जाने कब किसकी पीठ में छुरा घोंप दे. ऐसे चालबाजों के लिए न रिश्ता कोई मायने रखता है, न किसी से मुहब्बत, या मुल्क से वफादारी. बस षड्यंत्र, धोखा, और निजी स्वार्थ३! ऐसे लोगों से संबंध रखना बेगम का उसूल नहीं था. फिर भी, जब यह इंसान हिम्मत कर डेरे तक आया था, यह जानते हुए भी कि बेगम अपनी फौज के साथ उसको पछाड़ने के इरादे से आई हैं, तो उसके आने का असली मकसद यानी उसके मन में पनप रहे जहर को जानने में कोई हर्ज भी नहीं था. धूर्त इंसान को धूर्तता से परास्त करना भी बेहतर कूटनीति ही तो है.
“यह होगा कैसे ?”,
बेगम ने थोड़ा अविश्वास और थोड़ी लापरवाही से पूछा.
“वो सब आप मुझ पर छोडिये. बस साथ चाहिए मुझे... आपका और आपकी फौज का. बहन कहा है तो हक अदा करूँगा इस रिश्ते का. उस परवरदिगार का वास्ता”,
उसने अपने दोनों कानों को हाथों से छू कर, फिर खुदा की इबादत में दोनों हाथ ऊपर की ओर उठा दिए.
बेगम को प्रभावित न होना था, सो नहीं हुई. पर ऊपरी तौर पर उनमें उत्सुकता बनी रही. वह गुलाम कादिर की आँखों में नीचता, बगावत और कपटीपन की चमक महसूस कर सकती थी. बोली,
“तफसील में समझाओ!”,
इसी बीच दो बांदियां आकर कुछ सूखे मेवों की तश्तरियां और तरह-तरह के फल तथा गुलाब का शरबत लेकर हाजिर हुई. बेगम ने इशारा किया तो बांदियों ने सब सामान मेहमान की मेज पर सजा दिया. खुद सिर्फ शर्बत का एक गिलास उन्होंने लिया.
“हुजूर... अर्ज है...”,
कहा ही था गुलाम ने, कि बेगम ने कहा,
“तखलिया”,
और अगले ही पल उनकी देखभाल में खड़े फौजी, और तमाम बांदियां, तंबू से बाहर हो चले.
“हां, अब बोलो. तुम्हारा राज भी तो राज ही रहना चाहिए गुलाम कादिर...”,
थोड़ा आश्वस्त किया बेगम ने अपने इस बिन बुलाये मेहमान को.
रुहेला सरदार बेगम की जर्रानवाजी और मेहमाननवाजी से पहले ही खुश था, अब वह और भी भरोसेमंद हो चला था. उसको दिल्ली की डगर बहुत आसान दिखने लगी थी, यह उसके चेहरे के भावों से भी दिख रहा था.
“जी साहिबा. होना यह है कि आप अपनी फौज के साथ किले पर धावा बोलेंगी और मैं शाह आलम हुजूर की तरफ से आपसे समझौते की बात करूंगा३ बाकी तो आप को पता ही है”,
गुलाम कादिर ने अपना तीर छोड़ दिया था.
३ और रणनीति तय हो गई.
भोर तडके गुलाम कादिर को अपनी फौज के साथ बेगम और उनकी फौज का जमुना के उस पार खैरमकदम करना था. ८५ सिपाहियों और गोला बारूद तथा युद्ध के नये तरीकों से ट्रेनिंग शुदा कादिर की यह पलटन तय समय पर निकल पडी. अब यह कोई नहीं जानता था कि उनकी किस्मत में क्या बदा था. ३यूँ कहिये कि शिकारी बहुत आराम से खुद जाल में फंस गया था.
उसकी सैनिक टुकड़ी के अंतिम सैनिक के आते ही बेगम ने अपनी एक पलटन के कुछ अदद गिने-चुने सिपाहियों और असलहों के जोर पर गुलाम कादिर और उसकी पलटन के वापिसी के सब रास्तों को बंद करा दिया. उसके सपने टूट गये. वह ऐसी शिकस्त के लिए तैयार नहीं था.
शाह आलम को पता चला तो खुशी से उसकी आँखों में आंसू छलक गये. उसे बेगम से जिस दिलेरी की उम्मीद थी, वह उन्होंने कर दिखाया था. नाजुक वक्त पर उन्होंने सल्तनत के लिए वफादारी का सबूत दिया था. दिल्ली के तख्ते-ताज के आका यह भी जानते थे कि यदि बेगम समरू दिल की जगह दिमाग से काम लेती तो शायद अकूत संपत्ति की मालकिन तो होती ही, लाल किले के तख्त पर बैठ कर अपना हुक्म भी चला रही होती.
ऐसे नाजुक समय पर बेगम का वफादार बने रहना उसके चरित्र की उच्चता और शुद्धता को दर्शाता था. शहंशाह शाह आलम ने बेगम समरू को उनके इस कृत्य के लिए ‘जेब-उन-निसा”, यानी ‘मेरी प्रिय बेटी’ के खिताब से नवाजा. बेगम ने घोषणा भी की कि उसकी बाकी जिंदगी भी अगर दिल्ली दरबार के किसी काम आ सके, तो इससे बड़े सुकूं की बात उसके लिए कुछ और नहीं हो सकती. बेगम ने अपनी फौज को सम्राट और किले की सुरक्षा में लगा दिया था .
उधर रुहेला सरदार गुलाम कादिर अपने उस वक्त को कोस रहा था, जब वह बेगम की बातों में आ गया था. उसने यमुना के पार अपने डेरे से दिल्ली की सल्तनत के सरताज शाह आलम को एक हरकारे के हाथों सन्देश भेजा. संदेश में लिखा था कि शहंशाह तत्काल बेगम समरू और उसकी फौज को वहां से बेदखल करे. ऐसा न करने के एवज में युद्ध के लिये तैयार रहने की भी चेतावनी दी गई थी. शाह आलम ने उसके इस संदेशे को उसी हिकारत की निगाह से रद्दी की टोकरी में फेंक दिया, जहाँ उसकी सही जगह थी.
गुलाम कादिर में अभी भी हिम्मत बची थी. उसने अपनी सेना को फिर से तैयार किया और लाल किले की ओर बढ़ चला. यहाँ पहुँच कर उसने अपनी तोपों का मुंह किले की ओर कर गोले दागने के हुक्म भी दिए, पर उससे पहले ही बेगम की सेनाओं और उनकी तोपों की हलचल से कादिर की फौजों के हौसले पस्त हो गये.
उधर इसी बीच खबर मिली कि शहजादा मिर्जा जवां बख्त एक बड़ी फौज लेकर राजधानी की तरफ बढे आ रहे हैं. इस खबर को जब उसके नाजिर ने गुलाम कादिर को बताया तो वह गहरी चिंता में पड़ गया. सोचने का समय नहीं था. अगर शहजादे की फौज आ गई, और उधर से मुगलों की बची फौज के साथ बेगम समरू की मजबूत फौज और गोला-बारूद का मतलब... क्या परिणाम बनता, यह वह अच्छे से महसूस कर सकता था. अंततः उसने अपने नाजिर की सलाह मानते हुए एक चाल चली.
इस सलाह के अनुसार, गुलाम कादिर ने अपनी ‘नासमझी’ और ‘गलतियों’ के लिए शहंशाह से माफी माँगी. उसने एक पेशकश के जरिये भारी मात्रा में खजाना भी वापिस किया, और छल से हथियाए गये दोआब के उन हिस्सों को भी दिल्ली की सल्तनत को वापिस कर दिया जो उसके लिए आमदनी का एक बेहतर जरिया थे. नाजिर के बार-बार इल्तिजा और खुशामद करने पर शहंशाह ने आखिरकार उसकी पेशकश स्वीकार कर ली. गुलाम कादिर के जमुना पार के डेरे पर उसके लिए शाही पोशाक भेजकर शर्तें मंजूर करने की सहमति दी गई. रुहेला सरदार ने भी तुरंत दिल्ली छोड़ कर अपनी रियासत सहारनपुर के लिए कूच करने में ही भलाई समझी.
बेगम समरू यह सोच कर अपनी जागीर में लौट गई थी कि अब शायद दिल्ली की हुकूमत के बेहतर दिन आ जायेंगे. पर कुछ और ही लिखा था इस वंश के इतिहास में. बेगम समरू सम्राट को बुरा-भला समझाने के लिए दिल्ली में नहीं थी, और सम्राट के वारिस को नाजिर ने उनसे दूर करा दिया था. ऐसे में इस दरबार का खुदा ही मालिक था. न फौज मजबूत थी, और न राजा. ऐसे में दुश्मनों का सर उठाना लाजिमी था.
इस समय सभी पठानों ने गुलाम कादिर के नेतृत्व में राजपूतों के सहयोग से पानीपत से पहले का अपना पूरा खेल पुनः आरम्भ कर दिया था. उन्होंने उत्तर भारत से मराठों को खदेड़ने के लिए काबुल के शाह को निमंत्रित किया था. इस प्रयास में दिल्ली के बादशाह की गुजरे जमाने की प्रिय बेगम वृद्धा मलिका जमानी भी उनके साथ आ गई थी. ऐसे में महाद जी ने अफगानों के शत्रु सिख रियासतों से मैत्री को बढ़ावा दिया, और उन्हें काफी समय तक सिंधु पार करने से रोके रखा था. मराठा योद्धा महाद जी शाह आलम की सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध थे. इसी क्रम में उसने सम्राट को रेवाड़ी के अपने स्थान पर सुरक्षित लाने की भी व्यवस्था की. परन्तु शाह आलम को अब महाद जी की क्षमता पर संशय हो गया था, सो वह उसे साथ चलने के लिए राजी नहीं कर पाया. तब महाद जी अभागे सम्राट को भाग्याधीन छोड़ कर दिल्ली के समस्त इलाकों का त्याग करने के लिए विवश हो गया. दिसम्बर १७८७ में वह स्वयं चंबल के दक्षिण में वापिस चला गया, ताकि वह स्वयं को सुरक्षित रख सके. इस समय वैसे भी इस इलाके में केवल आगरा तथा अलीगढ़ की रक्षा करने वाली दुर्गस्थ मराठा सेनाएं ही रह गई थी.
सन १७८८ के प्रथम तीन मासों में शिंदे को एक क्षण का भी विश्राम नसीब नहीं हुआ. अपनी सेनाओं को चंबल तक वापिस हटाकर उसने नये सिरे से व्यापक आक्रमण की धुआंधार तैयारियां शुरू कर दी थी. उसे अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को प्राप्त करना था. नाना फडनवीस द्वारा भेजी गई सेनाओं के अतिरिक्त उसने अपनी जन्मभूमि जामगांव से एक नवीन सेना की टुकड़ी पहुँचाने की पूर्व में ही इजाजत दे दी थी. नाना की सेनायें १६ मार्च १७८८ को पहुँची तथा रणनीति के अंतर्गत अप्रैल के प्रथम सप्ताह में उसने अपना आक्रमण आरम्भ कर दिया. रणजीत सिंह जाट, राना खां, और मछेरी के राव राजा की मदद से इस्माइल को परास्त किया गया देवजी गाऊली, डी बॉन तथा रायजी पाटिल ने मिलकर मथुरा जिले पर पुनः अधिकार कर लिया गया. अब यमुना को पार कर गुलाम कादिर का पीछा करते हुए दोआब में प्रवेश कर लिया गया. पठानों ने आगरा के समीप डटकर सामना किया परन्तु जीवबा बख्शी तथा खाण्डेराव हरि ने संयुक्त सैन्य अभियान में उनका सफलतापूर्वक दमन कर दिया.
बाईस अप्रैल को चकसन के निकट भयानक युद्ध हुआ, परन्तु वह अनिर्णीत रहा. गुलाम कादिर को भाग कर अपनी जान बचानी पड़ी. इस्माइल बेग अकेला रह गया था और १८ जून को आगरा के उपनगर बाग देहरा में यमुना के तट पर बुरी तरह हार गया.
एक जुलाई १७८८ को मुगम साम्राज्य का महत्त्वपूर्ण कर्ता-धर्ता इस्माइल बेग अपने नेतृत्व वाली मुगल सेना के साथ दिल्ली के सम्मुख यमुना के दूसरे तट पर गुलाम कादिर के दरबार में उपस्थित हो गया. दोनों में समझौता हुआ जिसके अनुसार राजकोष तथा सम्राट की भूमियों पर अधिकार करने में गुलाम कादिर के लिए दो भाग तथा बेग के लिए एक भाग के अनुपात में परस्पर विभाजन करना नियत पाया गया.
गुलाम कादिर मराठों को दिल्ली से भगा देने की प्रतिज्ञा कर दिल्ली में यमुना नदी के पार अपने शिविर में चला गया था. बाद में वह दो हजार सैनिकों को लेकर वह पुनः उपस्थित हुआ और सम्राट को मीर बख्शी के पद के साथ ही प्रथानुसार वस्त्र सहित अमीरुलउमरा तथा रुक्नुदौला बहादुर की उपाधियाँ भी देने पर विवश कर दिया. १७ फरवरी १७८८ को उसने अलीगढ़ पर अधिकार कर लिया. शिंदे की १८ जून को बाग देहरा में हुई विजय पर गुलाम कादिर अत्यंत क्रोधित था. किस्मत से इस्माइल बेग उसी समय इस रोहिल्ले बागी के पास पहुंचा वह भी तब महाद जी शिंदे के कारण ही बहुत दुखी और दुरावस्था में था.
रुहेला जागीरदार गुलाम कादिर इस फिराक में था कि सल्तनत कमजोर हो, और वह अपने मंसूबे पूरे करने के लिए चोट पहुंचाए. हुकुमत के नाजिर मंजूर अली से यूँ भी उसका दोस्ताना था. ऐसे ही एक दिन उसने गुलाम की सेना को आराम से किले के भीतर आने की राह आसान कर दी. इन दोनों बागियों ने अपने रंग दिखाए और शहंशाह से खजाने की चाभियाँ माँगी. शाह आलम ने गुलाम कादिर को यकीन दिलाने की कोशिश की कि उसका खजाना बिल्कुल खाली है, लेकिन कादिर ने उसकी एक न सुनी, उल्टे और गुस्से में भर गया. उनको धकिया कर कारागार में बंद कर दिया गया.
गुलाम कादिर के सपने में दिल्ली का लाल किला वह जगह थी जहाँ सोने की अनगिनत छड़ें खजाने में दमक रही होंगी, मोतियों के संदूक भरे होंगे, हीरे-जवाहरात और अशर्फियों का अनगिनत खजाना मौजूद होगा, माणिक और पन्ने के बड़े-बड़े बक्सों की निगरानी की जाती होगी-- और यह सब खजाना उसका होना था. जब उसे इस खजाने का कोई रास्ता नहीं मिला तो क्रोध से पागल हुए इस लालची जागीरदार ने लाल किले के गुप्त कमरों के फर्शों की भी गहरी खुदाई कराई. पर जो नहीं था, वह मिलता कैसे!
कमजोर, पीड़ित और सहमे हुए शहंशाह शाह आलम को कारागार से निकाल कर बुलाया गया. उसे फर्श पर बिठा कर फिर पूछताछ की गई. ठीक इसी समय बादलों से गरजती तेज आवाजों और गडगडाहटों के बीच मूसलाधार बारिश ने अपना तांडव दिखाया. लगता था कि यह खुदा ने गुलाम कादिर के अत्याचारों की नापसंदगी को दिखाने का अपना तरीका प्रदर्शित किया था. पर, गुलाम कादिर निहायत ही जल्लाद किस्म का इंसान था. उसे इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता था. उसने चीख कर कहा,
“बाखुदा, अगर तुमने अभी भी खजाने का पता नहीं बताया तो तुम्हें अपने इन्हें हाथों से मार डालूँगा..!”
इस पर इस्माइल बेग ने कादिर खां के गुस्से को सम्भाला. बूढ़े शहंशाह पर दया कर उनके ही इस पुराने वफादार मुलाजिम ने, जो बागियों से जा मिला था, गुलाम कादिर को इस बात के लिए तय करा लिया कि उसे बंधक बनाये गये बेटों के पास मोती मस्जिद में ही कैद कर दिया जाए.
रोहिल्लों की कार्ययोजनाओं का मुख्य समर्थक सम्राट का विश्वस्त सेवक, अंतःपुर का अध्यक्ष तथा शिंदे का घोर शत्रु मंसूर अली था. अगली सुबह फिर कहर बन कर आई थी. आज फिर शहंशाह को दीवान-ए-खास में तलब किया गया. फिर गुलाम कादिर ने छिपे खजाने की तहकीकात की. फिर वही चीख-पुकार, क्रोध और बदतमीजी के दौर. और फिर मुगल सम्राट की वही कसमें, कि उसके पास कुछ भी नहीं है.
इसी बीच कादिर खां ने अपने एक सिपहसलाहकार को सलीमगढ़ जाने का हुक्म दिया. जमुना के उस पार एक टापू में स्थित सलीमगढ़ के इस किले को जेल की भांति इस्तेमाल किया जा रहा था. उस जेल से पूर्व शहंशाह अहमद शाह के वारिस बड़े बेटे बिदार बख्त को लाया गया. यह मुगल वंशज अपने जीवन का अधिकांश समय जेल की कोठरी में बिता कर ही बूढा हुआ जा रहा था. उसने फटी आँखों से खुद को अचानक ‘जहाँ शाह-- हिंदुस्तान का बादशाह’ के रूप में तख्त-ए-ताज पर बैठा पाया. जिसका अभी तक इस तख्त पर वाकई हक था, उसे अपदस्थ किया जा चुका था.
एक प्रताड़ना और दमन के रूप में हाल ही में अपदस्थ किये गये मुगल शहंशाह और उसके बेटे सलीमगढ़ जेल में बंदी बना कर सींखचों के पीछे डाल दिए गये थे. वे तीन दिन से वहां भूखे-प्यासे बंद थे. इसी बीच नये शहंशाह ने अपने को नई भूमिका के खांचे में ढाल लिया था. वह किले में घूम-घूम कर कारिंदों पर हुक्म चलाने लगा. पर उसके हुक्म को मानने वाले लोग वहां नहीं थे, बल्कि हिकारत की निगाह से देखने वाले लोग बहुतायत में थे.
लाहौरी गेट को थोड़ी अवधि के लिए खुला रखा गया. इस गेट से आक्रमणकर्ता की फौज के वे सिपाही भीतर लिए गये, जो किन्हीं कारणों से बाहर ही रह गये थे. हालांकि बादशाह जहाँ शाह था, पर सिक्का गुलाम कादिर का चल रहा था. उसने आतंक, बर्बरता और क्रूरता का ऐसा माहौल बनाया हुआ था, कि लोग थरथरा उठे. यह ऐसी बर्बरता थी जिसका दुनिया के इतिहास में कम ही विवरण दर्ज होगा. हर कमरे, तहखाने, सन्दूकों और उन जगहों को खाली किया गया जहाँ खजाना छिपा होने की उम्मीद थी. शाही महल, उनमें बने दरबारियों और अधिकारियों के आवास, नौकरों के रहने के कमरे और यहाँ तक कि शाही बावर्चीखाने को भी नहीं बख्शा गया.
इसके बाद जनानखाने को तहस-नहस करने की बारी थी. अभी तक लोग नादिर शाह और अहमद शाह दुर्रानी को आततायी और जालिम मानते थे, पर गुलाम कादिर ने वह हदें भी पार कर दी थी जिनका उन लुटेरों ने सम्मान किया था. उसने वहां रह रही शाही खानदान की दो मलिकाओं और खूबसूरत स्त्रियों के साथ हर वो नापाक हरकत की जो कोई भला आदमी सोच भी नहीं सकता था. पर पहली बार की लूट में कुछ हाथ न लगा.
तब गुलाम कादिर ने दोबारा जनाना महल की तलाशी का हुक्म दिया. वहां की औरतों की जामा तलाशी और दीवारों तथा फर्श को भी खोद कर छिपा खजाना निकालने का हुक्म हुआ. इस बार तलाशी के लिए जिन बर्बर लुटेरों को लगाया गया था, उन्हें थोड़ी सफलता मिली. दरअसल यह सफलता उनकी कम, और धूर्तता तथा चालाकी का परिणाम अधिक थी. अपदस्थ शहंशाह की दो बूढी बेगमों ने इस तलाशी का जिम्मा लिया, बशर्ते कि लूट के इस माल में उन्हें भी थोड़ा हिस्सा मिले.
जिस शहंशाह के पास खाने के लाले हों, और वह वाकई में बहुत गरीबी में गुजर-बसर कर रहा हो, उसके जनानखाने में खजाने का मिलना एक बड़ी बात था. पर सच्चाई यही थी, कि शहंशाह का उस तथाकथित खजाने से कुछ लेना-देना नहीं था.
यह वह खजाना था जिसे हर औरत अपने शौहर की जानकारी या बिना जानकारी के जोड़ा करती है. पर मामला चूँकि शाही खानदान की स्त्रियों से जुडा था, तो यह माल इतना भी कम नहीं था. विलाप करती औरतों की आँखों के सामने से उनके चुनींदा गहनों, अशर्फियों, जवाहरातों आदि को एक जगह पर इकठ्ठा किया गया. अभी तक न तो नादिर शाह और न ही अहमद शाह अब्दाली जैसे लुटेरों ने इस तरह सोचा था. पर गुलाम कादिर इन सब से आगे बढ़ चुका था. इसलिए उसके लिए कोई हदें शेष नहीं बची थी.
शाह आलम ने अगली बार फिर भी जब किसी छिपे खजाने होने की बात से इन्कार किया तो उसने उन शहजादियों को पेश करने को कहा. पहले उन्हें बेनकाब किया गया, फिर एक-एक कर कपडे उतरवाने को मजबूर किया. रोहिल्लाओं को खुश करने के लिए उनसे अपने पिता की आँखों के सामने उनसे नग्न नृत्य कराया गया. कुछ शहजादियाँ इतनी ग्लान हुई कि उन्होंने पास ही बह रही यमुना नदी में छलांग लगा दी. शाह आलम दुःख और क्रोध मिश्रित भावनाओं में डूबे सर झुकाए बैठे रहे. पर खजाने को लेकर, अभी भी उनका उत्तर वही था. चूँकि उनको वाकई किसी खजाने का इल्म नहीं था.
हालांकि इस्माइल बेग इस शाही लूट में गुलाम कादिर के साथ था, पर इस तरह की बर्बरता के नंगे नाच से वह भी आहत हो चला था. शाही खानदान की बेटियों के साथ किये गये इस अमानवीय बर्ताव का उसने विरोध तो किया ही, अपना आक्रोश भी दर्ज कराया. जब उसकी नहीं सुनी गई तो उसने अपनी सैन्य टुकड़ी को लाल किले से हटा लिया, खुद उसके साथ निजामुद्दीन की दरगाह के पास डेरा डाल दिया. कुछ रोहिल्ला लड़ाका भी इस कृत्य के विरोध में थे, पर किसी की इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह अपना विरोध दर्ज करा पाते.
कहते हैं कि इस्माइल बेग सम्राट के विरुद्ध गुलाम कादिर के कठोर कृत्यों तथा विवश सम्राट और उसके परिवार के अपमान का कभी भी हृदय से समर्थन नहीं करता था. परन्तु यह भी उतना ही सही है कि यदि बेग गुलाम कादिर का साथ न देता तो उसे पठानों के नाम पर सदा-सर्वदा के लिए कलंक का टीका लगाने वाले अमानुषी अत्याचार करने का साहस नहीं हो सकता था.
पर गुलाम कादिर के जुल्म की इन्तहा अभी होनी बाकी थी.
यह समय गुलाम कादिर के आतंक का मुंहतोड़ जवाब देने का था. पर दुर्भाग्य था कि महादजी शिंदे और बेगम समरू दोनों ही आसपास नहीं थे. महाद जी शिंदे मथुरा में डेरा डाले थे, जबकि बेगम जॉर्ज थॉमस के साथ टप्पल को सुलझाने में उलझी थी. एक से अधिक कारणों से शिंदे तत्काल मथुरा छोड़कर अपनी सेना को लेकर लाल किले तक पहुँचने की स्थिति में नहीं था. पर उसको एक उपाय सूझा. शिंदे ने बेगम समरू के पास अपना सन्देश भिजवाया. उसने अनुरोध किया कि संकट की इस घड़ी में चूँकि वह दूर है, अतः बेगम उसकी जगह शहंशाह को स्थिति से उबारने में मदद करे.
फरजाना उर्फ बेगम समरू टप्पल की नई जागीर को संभालने में व्यस्त थी. टप्पल उन दिनों एक उजड्ड इलाका था, जो व्यवहारिक तौर पर डाकुओं और लुटेरों के कब्जे में था. उसको संभालना आसान नहीं था. उधर बेगम को नहीं पता था कि गुलाम कादिर ने लाल किले में जाकर क्या-क्या गुल खिलाये हैं. जॉर्ज थॉमस के साथ वह टप्पल की स्थिति, उसके किले, भूगोल और लोगों से वाकिफ हो रही थी. टप्पल के किले को रहने लायक बनाने में बहुत खर्चा आना था, उसका आकलन किया जा रहा था. कहाँ से कितना महसूल वसूला जा सकता था, इस पर भी विचार किया जा रहा था. और यह सब इतना आसान भी नहीं था, क्योंकि टप्पल की स्थिति सरधना से काफी भिन्न थी.
जॉर्ज थॉमस की बात अलग थी. वह ऐसे जंगली और रेतीली इलाकों से मुहब्बत करता था. साथ ही इलाके में डकैतों की भरमार से उसे कुछ दुस्साहसी लोगों से मुकाबले का रोमांच भी आकर्षक लग रहा था. बेगम का सोचना अलग था. वह इस जागीर को लेकर दुविधा में थी. यह वह जगह थी जिसका कोई मालिक नहीं था. ऐसा इसलिए था कि यह न इलाका न जाने कितनी भुखमरियों और लूटों का गवाह रह चुका था. यहाँ का वातावरण लम्बे समय तक रुक कर, और सख्ती से ही सही किया जा सकता था. काफी पैसा झोंक कर स्थानीय दुर्ग को रहने लायक बनाया जाना था. इलाके में इतनी निर्धनता और कम जनसंख्या थी कि खेतों में न कोई फसल थी, और न ही नहरों में पानी. गाँवों के लोग हमेशा डकैतों के डर के साए में रहते थे.
जॉर्ज पारखी था. इस जागीर में वह अपना भविष्य देख रहा था. उसने बेगम से अनुरोध किया. पर बेगम को अभी भी हिचकिचाहट थी. टप्पल सरधना से कोई नजदीक न था. अभी जिस यात्रा को कर वह यहाँ आई थी, उसकी थकान अब तक भी उसके शरीर में मौजूद थी. वह समझ सकती थी कि सरधना के साथ इसको संभालना कितनी बड़ी चुनौती हो सकती थी. थॉमस के अनुरोध पर अनमने ढंग से ही सही, बेगम उसे टप्पल की इस जागीर का गवर्नर बनाने के लिए राजी हो गई. शाह आलम ने पहले ही इस जागीर को स्वीकृति दे दी थी. बीच में महाद जी शिंदे का दिल्ली पहुँचने का सन्देश भी बेगम को मिला था, परन्तु कुछ भी स्पष्ट नहीं था. इसलिए टप्पल की जागीर पर कोई अंतिम निर्णय किये बिना वहां से आने की बेगम की कोई तात्कालिक योजना नहीं दिखती थी.
उधर लाल किले में गुलाम कादिर का आतंक जारी था. उसने शाह आलम से फिर कहा,
“मुझे स्वर्ण भंडार, हीरे-जवाहरात और मुद्राएँ चाहियें३ वरना यकीन मानो कि तुम यहाँ से मुर्दा ही ले जाए जाओगे!”
शाह आलम तन और मन से कमजोर हो चला था, पर उसका स्वाभिमान अभी भी जिंदा था. उसकी आँखों में अंगार बरस रहा था, उसी अंगार को भाव में बदलते हुए उस दिन अपमानित शाह आलम ने दहाड़ते हुए कहा,
“मेरी जिंदगी तुम्हारे हाथ में है गुलाम. चलाओ तलवार और कर दो मेरी गर्दन धड से अलग. वैसे भी तुम्हारे अधीन जिंदगी गुजारने से ज्यादा तौहीन की बात और कुछ हो भी नहीं सकती मेरे लिए!”
नजीबुदौल्ला का पौत्र मूलतः अफगानी रोहिल्ला वंश का प्रमुख गुलाम कादिर पठान वंश का मुखिया था, इसलिए उसमें एक पठान के नैसर्गिक गुण होने स्वाभाविक थे. दया, लज्जा, अथवा सत्यप्रियता का उसमें अभाव था.अपने पितामह और पानीपत के युद्ध के चर्चित योद्धा नजीबुदौल्ला की षड्यंत्रकारी प्रतिभा तो उसे उत्तराधिकार में मिली थी, परन्तु निश्चित रूप से उस जैसी बुद्धि या पूर्वदृष्टि उसके इस पोते के पास नहीं थी. अपने पिता की रियासत पर अधिकार प्राप्त करते ही उसने अपने वृहद परिवार के उन अनेक व्यक्तियों को प्राण दंड दे दिया था जो उसके सामने किसी न किसी रूप में चुनौती बन कर सामने आ सकते थे. अवगुणों में से एक मदिरा का अभ्यासी होना भी उसकी महत्त्वाकांक्षाओं का निषेध करने में सहायक था. वह पिता जाबिता खान से अधिक पितामह नजीबुदौल्ला का अनुकरण करना चाहता था. उसको यह गलतफहमी अहंकार की सीमा तक हो चली थी कि ईश्वर ने उसको अपने वीर अफगान-जाति भाइयों की सहायता द्वारा मुगल राजवंश से समस्त हिन्दू प्रभाव निकालकर उनको शुद्ध करने के लिए ही जन्म दिया है. जब तक वह साम्राज्यवादियों द्वारा अपने घर तथा राजधानी से अपहृत प्रत्येक वस्तु प्राप्त न कर ले, उसकी अफगानी प्रतिशोध-भावना शांत होने वाली नहीं थी. यही कारण है कि मुगल सम्राट के राजपरिवार की महिलाओं के साथ की गई बर्बरताओं, अकथनीय यातनाओं और अपमानों की समता करने वाली ऐसी घटनाएँ इस्लाम के रक्तरंजित इतिहास में भी ढूंढे से नहीं मिलेंगी.
बेबस और घायल शहंशाह के मुंह से ऐसे शब्द सुनकर गुलाम कादिर का गुस्सा वैसे ही सातवें आसमान पर पहुँच गया. वह छलांग मारकर उसके सीने पर चढ़ बैठा. उसके दो सिपहसलारों ने शाह आलम के हाथ और पैर कस कर पकड़ लिए. गुलाम कादिर के कहने पर उनमे से एक-- कंधारी खां ने राजा की एक आँख नोच ली. असह्य दर्द की पीड़ा से छटपटाते शहंशाह पर किसी को दया नहीं आई. अब बिलबिलाते शाह आलम की दूसरी आँख भी नोच ली गई. बेबस शहंशाह दर्द से चिंघाड़ उठा. उसकी बर्बरता यहीं नहीं रुकी. गुलाम कादिर ने तत्काल एक चित्रकार को बुलाये जाने का हुक्म दिया. आदेश दिया गया कि वह सम्राट के सीने पर चढ़े कादिर खां की उसकी आँखों को नोचने की मुद्रा की एक अच्छी पेंटिंग बनाए.
गुलाम कादिर की इन वहशियाना हरकतों से आजिज पश्चाताप की आग में जल रहे इस्माइल बेग की दुविधाएं दोतरफा थीं. पर अब उसने आततायी का साथ छोड़ने का मन बना लिया था. बेग ने अब सीधे महाद जी शिंदे को संदेशा भिजवाया, जिसमें गुलाम कादिर की बर्बरता का हवाला दिया गया. अपनी गलतियों और भूमिका की क्षमा याचना भी की और यकीन दिलाया कि इस आततायी के विरुद्ध किसी भी अभियान में वह मराठा सैनिकों के साथ होगा. अब उसने लाल किले में हो रहे तांडव की गतिविधियों से अनभिज्ञ दिल्ली की जनता को इस अभियान के लिए एकजुट करना भी शुरू किया.
संदेशा मिलते ही शिंदे ने दिल्ली कूच की तैयारी की. हालांकि बरसात के मौसम में सेना का आवागमन सबसे दुरूह काम था. उसके सिपाही अपनी बकाया तनख्वाह मिले बिना मथुरा छोड़ने को तैयार नहीं थे. शिंदे खुद बीमार था, और बाद में दिल्ली पहुंचना चाहता था. फिर भी उसने अपने विश्वस्त सैन्य अधिकारी डी बॉन के नेतृत्व में एक तेज तर्रार बटालियन को तत्काल दिल्ली रवाना कर दिया.
बेगम समरू और जॉर्ज थॉमस ने लाल किले के घटनाक्रम से वाकिफ होते ही टप्पल छोड़ दिया. पर वह भी बारिश, कीचड़ और बरसाती पानी की बाधाओं से परेशान थे. बस एक अच्छी बात यह थी कि टप्पल और आसपास के इलाकों के रेतीले होने के कारण वहां पानी का बहाव कम था. इसके अलावा रेन्हार्ट समरू और फिर उनकी बेगम ने स्वयं समय-समय पर इलाके में सरधना की तरह बाँध बनवाये थे, तथा पानी निकासी की व्यवस्थायें सुनिश्चित कराई थी. वे सभी बाधाओं को पार करते हुए तेजी से सरधना पहुंचे जहाँ उन्हें सेना की तीन बटालियनें तैयार करनी थी. सरधना के सिपाही जमुना के पश्चिम तट के रास्ते दिल्ली में सेंध लगा चुके थे. इस प्रकार गहरे कत्थई रंग की वर्दी में बेगम समरू की फौज के सिपाही भी दिल्ली की सीमा पर आ पहुंचे थे.
लाल किले के शाही महल में गुलाम कादिर का कब्जा था. उसने अपने ऐशो आराम के सब साधन जुटा लिए थे. शाही खानदान की स्त्रियों के साथ जो भी बेहूदा हरकतें हो सकती थी, की जा रही थीं. दुर्भाग्य यह भी था कि यह सब अंधे, बीमार, व्यथित और बेबस मुगल सम्राट शाह आलम की आँखों के सामने किया जा रहा था. बिदार बख्त को भी बेइज्जत कर बेदखल कर दिया गया था. शाही परिवार की कुछ औरतें और पुरुष सदमे से, कुछ चोटों से, कुछ भूख से और कुछ आत्महत्या कर जान गँवा चुके थे.
चैबीस जुलाई को ही शाह आलम को इस रुहेले आक्रांता की तमाम गैर-जरूरी मांगों को स्वीकार कर लिया था. अनमने ढंग से ही सही. सम्राट ने वचन पालन करने के लिए अपने प्रिय पुत्र सुलेमान शिकोह को शरीर-बंधक रूप में गुलाम कादिर को सौंप दिया था. गुलाम कादिर तथा इस्माइल बेग ने दुर्ग तथा शाही महल पर अधिकार करके शाह आलम को एक छोटी-सी मस्जिद में बंद कर दिया था. राजकोष से हर उस वस्तु को लूटा जा रहा था, जो किसी मूल्य की रही थी. कुल ६८ दिनों तक यह तांडव होता रहा. भारत के एक समय सत्ता का केंद्र रहे लाल किले और मुगल परिवार के मुखिया शहंशाह शाह आलम और उसकी सल्तनत सीधे ऐसे निशाने पर थी जिससे आम जनता नावाकिफ-सी थी.
दस अगस्त को शाह आलम की आँखें नोंचने के बाद नन्हे-नन्हे बच्चों और असहाय स्त्रियों को कई-कई दिनों तक अन्न-जल नहीं दिया गया. शहजादों को सरेआम बेंत लगाए जाते, शहजादियों के साथ बलात्कार किये गये और कारिंदों को तब तक पीटा जाता रहा, जब तक कि वह मर न गये. गुप्त धन का पता लगाने के लिए राजभवन का सारा क्षेत्र तथा नगर में धनिकों के सब घर गहरे खोद डाले गए. इस सुंदर लालकिले, राजभवन और शहर में इन नौ सप्ताह तक नरकीय दृश्य दिखने आम थे. रुहेलों की कामपिपासा को शांत करने के लिए अल्पव्यस्क सुन्दरियों का बलिदान कर दिया गया. दासियों को यातनाएं दी गई, और हिजड़ों को मार डाला गया, क्योंकि उन्होंने गुप्त धन नहीं बताया था. जो मर गये, उनके अंतिम संस्कार तक नहीं हुए. मलिका जमानी और साहिबा महल के प्रासाद भी खोद दिए गये. सम्राट की उन प्रिय बेगमों का सर्वसाधारण के समक्ष नग्न प्रदर्शन किया गया. इस तांडव में कुल इक्कीस व्यक्तियों की मृत्यु दर्ज की गई.
अब काफी समय हो चुका था. धीरे-धीरे राजधानी में इन खबरों की हलचलें होने लगी थी. उधर महाद जी शिंदे को भी घटनाक्रम की स्पष्ट जानकारी प्राप्त हो चुकी थी. यह २८ सितम्बर की तारीख थी. इस्माइल बेग, महाद जी शिंदे और बेगम समरू की सेनाओं ने शाहजहांनाबाद के सारे दरवाजों को घेर लिया. यह वही जगह थी जिसे आज हम पुरानी दिल्ली के इलाके के नाम से जानते हैं. यह पूरा अभियान मराठा जनरल राणा खां के नेतृत्व में चलाया गया. उसे ऐसे अवसरों का बेहतर अनुभव था. अगले दिन उसने अपनी सेनाओं को शहर में सारे महत्त्वपूर्ण ठिकानों पर तैनात भी कर दिया था.
तब तक सितम्बर का अंतिम सप्ताह आ चुका था. हालांकि बारिश का पानी कम हो रहा था, पर यमुना नदी अभी भी उफान पर थी. फिलहाल यमुना पार कर लाल किले तक पहुंचना असंभव था. बेगम ने जुगत भिड़ाई. उसको वहां जाना था, इसलिए रास्ता निकालना ही था. अंततः दिल्ली से बमुश्किल २५ मील उत्तर दिशा में पुराने बागपत शहर में एक कटान से उस पार जाने का बेहतर मार्ग दिखाई दिया. जितनी नावें मिल सकती थी, मंगाई गई, और सिपाहियों, अधिकारियों तथा घोड़ों की जान जोखिम में डाल कर नदी पार करा दी गई.
शिंदे ने भी अपनी मजबूत सेना के साथ दोआब के इलाके में प्रवेश कर लिया था. जब उसे इन दर्दनाक घटनाओं की जानकारी मिली तो शिंदे ने बिना वक्त जाया किये अपनी फौज के जनरल राणा खां को सम्राट को बागियों के चंगुल से छुडाने के लिए रवाना किया. उधर बेगम समरू की फौज ने भी कमर कस रखी थी. कादिर के आतंक की हुकूमत अब अधिक देर नहीं ठहरनी थी. गुलाम कादिर को समझ आ गया था कि अब उसका वक्त खत्म होने को है. किले में लगातार रहने का अर्थ होता युद्ध-- और किसी बड़े युद्ध के लिए वह तैयार नहीं था. सो, उसने जो भी बहुमूल्य सामान हाथ लगा, उसके साथ हडबडाहट में मेरठ के रास्ते लौटने की तैयारी की. उसका कठपुतली सम्राट और कुख्यात नाजिर भी साथ ही था.
वह गुलाम कादिर की खुशनसीबी ही थी कि वह आनन-फानन में दिल्ली का लाल किला खाली कर भाग निकला था. गुलाम कादिर द्वारा किये हुए अत्याचारों का समय २९ जुलाई से लालकिले के बारूदखाने में आग लगने वाले दिन, अर्थात १० अक्टूबर १७८८ तक बताया जता है. मराठा फौज के जनरल राणे खां ने जितना जल्दी हो सकता था, लाल किले पहुंचकर शहंशाह शाह आलम को बेड़ियों से मुक्त कराया. उनको फिर से सम्राट घोषित किया. महाराजा के शानो-शौकत के सभी पुख्ता इंतजाम फिर से बहाल किये और उनकी आँखों के इलाज की भी व्यवस्था की. फिर उसने बागियों की घेराबंदी की योजना को अंजाम दिया. शिंदे के निर्देश थे कि गुलाम कादिर को जिंदा पकड़ कर उसके पापों की मुकम्मिल सजा दी जाएगी.
कुछ लोग महाद जी शिंदे और बेगम समरू द्वारा दिल्ली पहुँचने में हुए विलंब के इस प्रकरण को संदेह की दृष्टि से देखते हैं. कहते हैं कि शिंदे ने दिल्ली पहुँचने में जान-बूझ कर विलंब किया. उसके कई कारण बताये गये. खास तौर से यह आज तक कोई नहीं जान पाया कि क्या वह वाकई ही बीमार था. पर कोई इस निष्कर्ष पर भी नहीं पहुंचा कि मुगल सम्राट को दिल से मान देने वाला यह योद्धा क्यों संकट के समय उसकी मदद नहीं करना चाहता था. बेगम समरू तो वाकई उस समय टप्पल में थी, पर क्या टप्पल को उस हाल में छोड़कर सम्राट को संकट से उबारने नहीं आया जा सकता था? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है.
दस अक्टूबर को रुहेले सिपाहियों की लापरवाही से किले के बारूदखाने में विस्फोट हुआ था. इसे अशुभ संकेत मानकर गुलाम कादिर ने लूट के माल को लेकर किला खाली कर दिया. अगले ही दिन, यानि ग्यारह अक्टूबर को राणा खां, हिम्मत बहादुर गोसाईं, तथा रानाजी शिंदे ने लाल किला में प्रवेश किया. उन्होंने भूखे निवासियों को भोजन दिया तथा महल में रहने वालों के लिए यथाशक्ति सभी आवश्यक सुविधाएँ मुहैय्या कराई. सोलह अक्टूबर को राणा खां अंधे सम्राट के सम्मुख उपस्थित हुआ. उसने सम्राट को राजगद्दी पर बिठाया और उसके नाम से पुनः खुतबा पढ़ाया गया.
भागते हुए रुहेले आततायियों का पीछा किया गया. पर वह लोग इधर-उधर हो गये थे. मराठों ने २० अक्टूबर को अलीगढ़ के दुर्ग पर अधिकार कर लिया. राणा खां दो सप्ताह तक लाल किले की व्यवस्थाएं सुचारू करने और पीड़ितों को सहायता पहुंचाने में व्यस्त रहा. वह फिर से भगोड़े रुहेलों का पीछा करने के लिए तीन नवम्बर को दिल्ली से रवाना हुआ. २७ नवम्बर को अली बहादुर भी इस अभियान में राणा खां के साथ हो लिया. वह महाद जी शिंदे की ओर से संदेश लाया था कि ‘दिल्ली के लुटेरे’ को पकड़ने का श्रेय यथासंभव अली बहादुर को दिया जाए.
दोआब से भागता हुआ गुलाम कादिर चार नवम्बर को मेरठ पहुंचा. वह वहां के गढ़ में शरण लेकर अत्यंत साहस से अपनी रक्षा करता रहा. मेरठ के समस्त मार्ग रोक दिए गये. लगभग छह सप्ताह तक उसने मराठा आक्रमणों का भरपूर प्रतिरोध किया. अंत में असुरक्षित तथा असमर्थ जान गुलाम कादिर १७ दिसम्बर को चुपचाप गढ़ से भाग निकला तथा शामली के तीन मील दक्षिण-पश्चिम गाँव बामनौली में एक ब्राह्मण के घर अपने कुछ अनुचरों के साथ छिप गया. गुलाम कादिर के दो साथी-- मंसूर अली खां नाजिर तथा उसकी अंगरक्षक सेना का कमांडर मनियार सिंह मेरठ में पकड लिए गये. ब्राह्मण ने गुलाम कादिर के गुप्त स्थान का पता अली बहादुर को पहुंचा दिया.
१९ दिसम्बर को गुलाम कादिर तथा उसके सहोगियों को पकड़ लिया गया. अन्य बंदियों के साथ उसे ३१ दिसम्बर को पहले मथुरा स्थित महाद जी के शिविर में पहुंचाया गया. दो महीने तक महाद जी ने प्रयत्न किया कि वह बंदियों से बलपूर्वक यथासंभव धन तथा अन्य जानकारी प्राप्त करें. महाद जी ने इस बीच गुलाम कादिर को दिए जाने वाले दंड पर भी विचार किया. हालांकि महाद जी उसे मृत्यु दंड नहीं देना चाहता था, परन्तु बाद की परिस्थितियाँ ऐसी हुई कि उसे भयानक दंड देने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा.
उसे लोहे के आदमकद पिंजरे में डाल दिया गया. उसको लाने की सवारी बैलगाड़ी को बनाया गया. उसमें लाद कर गुलाम को दिल्ली लाया गया. उसके पैरों, हाथों और गर्दन में लोहे की भारी-भारी सांकलें मजबूती से डाली गई थीं. एक हजार घुड़सवार और दो फौजी बटालियनों की सुरक्षा में लाये गये गुलाम कादिर की पेशी अंधे सम्राट के सामने उसी लाल किले में हुई जहाँ उसने बर्बरता का तांडव किया था.
गुलाम कादिर की जुबान जैसे हलक में अटक गई हो. वह थर-थर काँप रहा था. महाद जी शिंदे भी वहीँ थे. उन्होंने कहा,
“तुम जैसे अहसान फरामोश आदमी की सूरत मुझे बार-बार देखनी पड़ रही है, इस बात का भी अफसोस है मुझे..! बोल, क्या सुलूक किया जाए तेरे साथ?”
पर, गुलाम कादिर की हिम्मत के साथ-साथ उसकी जुबान भी साथ नहीं दे पा रही थी. उसने एक झलक कातर निगाहों से देखा, फिर नजरें जमीन की ओर गड़ा ली. आखिरकार शिंदे को ही कहना पडा,
“मुंह काला करो इस नामुराद का!”
और देखते ही देखते उसके मुंह को काला कर दिया गया.
भुतहा बने गुलाम कादिर की शक्ल किसी जानवर-सी हो गई थी.
“तुमको अपने लिए अच्छी बातें सुनने का बहुत शौक है न...? सिपाहियों... काट दो इसके दोनों कान!”,
शिंदे ने सिपाहियों को हुक्म दिया.
३ और उसके दोनों कानों को चेहरे से अलग कर दिया गया. एक भयानक चिंघाड़ के साथ, गुलाम कादिर दर्द से बिलबिलाता रहा, लेकिन किसी की भी हमदर्दी उसके साथ न थी.
अब उसको शिंदे के डेरे के इर्द-गिर्द घुमाया गया. इतने पर भी शिंदे का मन नहीं भरा. उसने गुलाम कादिर को पूरे शहर में घुमाने का हुक्म दिया ताकि लोग देखें कि बगावत, बर्बरता, बे-अमनी और लालच का क्या हश्र होता है!
शहर भर के लोगों ने गुलाम कादिर को इस रूप में भी देखा.
अगले दिन फिर गुलाम कादिर को पेश किया गया.
आज उसकी नाक और ऊपरी होंठ को उखाड़ कर अलग किया गया. शहर भर में फिर से उसकी परेड कराई गई.
तीसरे दिन उसको जमीन पर फेंक दिया गया तथा वही सुलूक किया गया जो उसने शहंशाह शाह आलम के साथ किया था. उसकी दोनों आँखें नोच ली गई. फिर डुगडुगी बजा कर उसे पूरे शहर में घुमाया गया.
बाद में उसके हाथ काटे गये, फिर दोनों पैरों को शरीर से अलग किया गया. उसकी चिंघाड़ दूर-दूर तक सुनी जा सकती थी.
आखिरकार गुलाम कादिर का धड़ शरीर से अलग कर दिया गया. उसकी रूह आजाद हो गई थी. बाद में शिंदे ने अपने मालिक शहंशाह शाह आलम को गुलाम कादिर के नाक-कान और कटे हुए सर की सौगात पेश की.
धूर्त नाजिर जो गुलाम कादिर का भेदिया और साथी था, को भी हाथी के पैरों तले कुचलने की सजा सुनाई गई. सम्राट ने बिदार बख्त का भी कत्ल करने का हुक्म दिया, जिसे गुलाम कादिर ने दिल्ली के तख्त पर बिठा दिया था. शाह आलम ने महाद जी को हार्दिक धन्यवाद दिया. मथुरा तथा वृन्दावन के तीर्थस्थलों का शासन महाद जी शिंदे को दिए जाने की घोषणा से उनको पुरुस्कृत भी किया गया. सम्राट को इस बात का अफसोस रहा कि उसके नियन्त्रण में न होने के कारण प्रयाग, बनारस तथा गया के तीर्थस्थान महाद जी के नाम नहीं किये जा सके.
उधर गुलाम कादिर की माता तथा उसके भाई लूट का माल लेकर सिखों की शरण प्राप्त करने की इच्छा से कुंजपुरा की ओर भाग निकले थे. रायजी पाटिल तथा अली बहादुर ने उनका पीछा किया तथा वह सब बहुमूल्य सामान बरामद करने में सफलता प्राप्त कर ली, जो कादिर ने लाल किले के शाही परिवार से धोखे और बल से प्राप्त किया था. इसी प्रकार घौसगढ़, अलीगढ़ तथा सहारनपुर के रुहेला अधिकृत प्रदेशों पर अधिकार करके वहां मराठा सेनायें रख दी गई. गुलाम कादिर के विभिन्न सहयोगी सरदारों का पता लगाकर उन्हें दण्डित किया गया.
गुलाम कादिर का मामला धीरे-धीरे शांत हो गया था, लाल किले में बहुत कुछ घटित हुआ था. पर अब वहां भी शांति थी. इस पूरे समय में बेगम समरू ने मुगल सम्राट शाह आलम को समर्पण भाव से साथ दिया.
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