- अरविंद कुमार सिंह
‘‘खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।’’
गंगा-यमुना और सरस्वती के संगम की रेती से जब ये क्रांतिकारी पंक्तियां अकबर इलाहाबादी की शायरी से जनमानस के दिलों में उतर रही थीं; तो प्रयाग वैसा नहीं था, जैसा आज दिखता है। तीर्थराज की यह धरती क्रांतिकारियों की संगम स्थली थी तो देश की राजनीति की एक प्रमुख धुरी। आनंद भवन, खुसरो बाग और कंपनी गार्डेन का अतीत भारत के महान क्रांतिकारियों की जीवंत कहानियों की कथाभूमि थी। राजकीय संग्रहालय की प्राचीरों के मध्य असंख्य साहित्य की अमर सर्जनाएं और कथाएं जन्मीं। जो देश और दुनिया के मानस पर पूरी आस्था और विश्वास के साथ आज भी जमी हैं और विश्वास है कि क़यामत तक लोगों के दिलों में स्पंदन करती रहंेगी। महान शायर अकबर इलाहाबादी ने ‘तोप’ जैसे घातक हथियार का भी मुकाबला ‘अख़बार’ से करने की बात की तो निश्चित ही इसमें ‘तोप’ से ज़्यादा घातक और मारक क्षमता होगी। अख़बार की यह क्षमता है कि वह व्यक्ति ही नहीं बल्कि व्यवस्था को बदल सकता है। तोप और गोली का लक्ष्य सीमित है लेकिन अख़बार समाज का मानस होता है। वह उसका शिक्षक और प्रशिक्षक भी होता है। क्रांति और शांति का बीजमंत्र उसके गर्भ में पलते हैं तो आंदोलन और परिवर्तन की ज़मीन भी तैयार करता है। दुनिया का पहला अख़बार सन् 1340 में चीन से जब निकला तब तक उसकी इस अपार शक्ति का अंदाजा शायद संसार को नहीं हुआ था।1 हिंदुस्तान को ‘बंगाल गजेट’2 के प्रकाशन के समय ही इसकी ताकत और प्रभाव का अहसास हो गया था।
वैसे ‘संवाद’ की ताकत और क्षमता का परिचय हिंदुस्तान को राजतंत्री शासन और महाभारत काल में ही हो गया था। पौराणिक आख़्यानों में भी ‘नारद’ का चरित्र प्राथमिक पत्रकार का सा दिखता है, तो महाभारत के संजय की दिव्य-दृष्टि, युद्धक्षेत्र के दृश्यों का सजीव चित्रण धृतराष्ट्र से करते हुए दिखाई देती है। पत्रकारिता या अख़बार की यह शक्ति निश्चित ही ‘संवाद’ की शक्ति है, जो मनुष्य की प्राकृतिक शक्ति है, जिसके मूल में जिज्ञासा और रहस्यों से पर्दा उठाना है। संवाद करने और जानने की शक्ति ही पत्रकारिता की वास्तविक शक्ति है। संवाद की इस प्रक्रिया से आगे बढ़कर सन् 1447 में गुटेनबर्ग ने पिं्रटिंग प्रेस का ईजाद कर संसार में प्रिटिंग तकनीकी से क्रांति ला दी। आज की एडवांस तकनीकी के मूल में गुटेनबर्ग के विचारों का ही विस्तार है।
भारतीय संविधान के मूल अधिकारों में ‘वाक् स्वतंत्रता’3 प्रत्येक व्यक्ति को भाषण तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है। इसी स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है। प्रेस की स्वतंत्रता सामाजिक तथा राजनीतिक समागम का मर्म है। ‘न्यायालयों का यह प्राथमिक कर्तव्य है कि वे प्रेस की स्वतंत्रता को बनाए रखें और उन सभी विधियों या प्रशासनिक कार्यवाहियों को अविधिमान्य कर दें जो संवैधानिक समादेश के प्रतिकूल इसमें हस्तक्षेप करती हंै।’4 इसका अर्थ यह है कि ‘प्रत्येेक नागरिक अपने विचारों, विश्वासों और दृढ़ निश्चयों को निर्बाध रूप से तथा बिना किसी रोक-टोक के मौखिक शब्दों द्वारा, लेखन, मुद्रण, चित्रण के द्वारा अथवा किसी अन्य ढंग से अभिव्यक्त करने के लिए स्वतंत्र है।’5 पत्रकारिता की इस शक्ति को भारतीय संविधान ने संरक्षण प्रदान किया है। यदि कोई सरकार या सरकारी संगठन इस पर रोक या सेंसरशिप लगाने का प्रयास करती है तो यह विधिमान्य नहीं हो सकता है। इसी क्रम में ‘किसी समाचार पत्र पर अनर्गल संेसरशिप लगाना’6 या उसे ‘ज्वलंत सामाजिक विषयों पर अपने या अपने संवाददाताओं के विचारों को प्रकाशित करने से रोकना, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन होगा।’7 ‘यह अधिकार नागरिकों को भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर ही नहीं बल्कि इसकी सीमाओं के पार भी प्राप्त है।’8 यह संवाद की ताकत ही है कि हिंदुस्तान मंे पहला अख़बार निकालने की चेष्टा करने वाले विलियम वोल्ट्स ने भी यही इश्तहार (संवाद) जारी किया था। ‘‘मेरे पास बहुत सारी ऐसी बातें हैं जो मुझे कहना है और जिनका संबंध हर व्यक्ति से है।’’ जिससे ‘घबरायी ‘ईस्ट इंडिया’ कम्पनी ने वोल्टस को बलात् स्वदेश रवाना कर दिया।’9 जिस अखंड हिंदुस्तान को लगभग छह सौ वर्षाें तक विदेशी और विजातीय हमलावरों, आक्रांताओं और शासकों के महत्वाकांक्षाओं के पैरों तले रौंदा गया, जिसकी सभ्यता और संस्कृति की अखंड और अक्षुण्ण परंपरा को विदेशी हमलों से कुचला गया; वह हिंदुस्तानी परंपरा और संस्कृति, लाख-लाख जख़्मों और वैदेशिक वज्रपातों के बाद भी अपनी स्वदेशी सभ्यता और संस्कृति की महक अखिल विश्व में सुवासित करती रही। बावजूद हिंदुस्तान ने जहां विदेशी सभ्यताओं का टकराव झेला है वहीं अपने को, समन्वय के अटूट बंधनों से भी बांधा है। ‘आर्यों और अनार्यों का संघर्ष देखा तो तुर्कों, शकों, हुणों, यूनानियों, सिथिनियों, चर्वरों, डचों, फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों और मुगलों का टकराव भी देखा।’10 ‘लूटा, टूटा, बँटा बावजूद मूल से कभी नहीं कटा’, यही ‘हिंदुस्तान’ की पहचान और परंपरा है, जिसे ऋषियों और मुनियों ने सपेरों और फ़कीरों के इस देश को आस्था और विश्वास के अटूट भाव से सींचा है। इस महादेश को जिन विदेशी शासकों ने सबसे अधिक समय तक अपने प्रभुत्व में रखा, वे दुनिया की सबसे बुद्धिमान जातियों में से एक अंग्रेज थे, जिनके साम्राज्य में कभी सूर्यास्त नहीं होता था। कारण, सूर्य की प्रथम किरणों के देश से लगायत अंतिम किरणों तक के देश, उनके उपनिवेश जो थे। आधी दुनिया से भी अधिक पर राज्य करने वाली क़ौम, हिंदुस्तान की सभ्यता, संस्कृति और समाजशास्त्र पर दो सौ वर्षाें तक अपनी मानसिकता थोपती रही, बावजूद हिंदुस्तानी संस्कृति, अपने मूल्यों और आदर्शों के साथ शाश्वत थी और आने वाले कल में भी शाश्वत रहेगी।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में देश के महान क्रांतिकारियों ने अपने लहू से ‘आजादी की देवी’ का शृंगार किया है। स्वतंत्रता आंदोलन की अलख को देश और देश के बाहर ‘दावानल’ में बदल देने की क्षमता जिन कलमकारों और पत्रकारों में थी वे सच्चे मायने में भारत के महान क्रांतिकारी थे, जिनकी कलम की स्याही से क्रांति का बीजमंत्र निकलता था, जो अंग्रेजी हुकूमत की संगे-बुनियाद को हिला कर रख देता था। कलमकारों और नामानिगारों ने अपनी कलम की कीमत, जान देकर या काला पानी की सज़ा पाकर चुकायी। अंडमान निकोबार का ‘सेल्युलर जेल’ क्रांतिधर्मी पत्रकारों और क्रांतिकारियों के बलिदानों की दास्तां का बयान आज भी करता है। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास के पन्ने उलटने पर जो दृश्य सामने आता है उसमें हिंदी पत्रकारिता का बीजपत्र ‘उदंत मार्तंड’ (30 मई, 1826) के संपादक युगल किशोर शुक्ल ने कोलकाता (तब कलकत्ता) से जब हिंदी का पहला पत्र निकाला तो उसका ध्येय वाक्य (श्लोक) का अर्थ था-‘‘सूर्य के प्रकाश के बिना जिस तरह अंधेरा नहीं मिटता उसी तरह समाचार सेवा के बिना अज्ञजन जानकार नहीं हो सकते।’’ अर्थात ‘पत्रकारिता के पुरखों को इस बात का अहसास था कि फिरंगियों की लूट-खसोट, अन्याय-अत्याचार- अनाचार पर प्रहार किया जाएगा तो उनके कोप का सामना भी करना पड़ेगा। बावजूद स्वातंत्र्यकामी संपादकों ने निर्भीक कलम चलाई।’11 ‘‘आज’’ ने अपने मुख्य पृष्ठ पर ध्येय वाक्य लिखा, ‘‘पराधीन सपनेहु सुख नाहीं।’’ गणेश शंकर विद्यार्थी के ‘‘प्रताप’’ का ध्येय वाक्य था-‘‘जिनको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है/वह नर नहीं, नर पशु निरा है, और मृतक समान है।’’ इलाहाबाद से प्रकाशित ‘स्वराज’12 का ध्येय वाक्य था-‘‘हिंदुतान के हम हंै, हिंदुस्तान हमारा है।’’ इस अख़बार के ढाई वर्ष की उम्र में 75 अंक निकल सके और कुल 8 संपादक लगे, जिन्हें इसके संपादन/प्रकाशन के कारण 125 साल की सज़ा मिली। यह दुनिया का पहला अख़बार और संपादकों का मंडल था, जिन्होंने इतनी लंबी सज़ा भोगी। बावजूद उनका उत्साह कम नहीं हुआ। एक को सज़ा मिलती तो दूसरा संपादक कार्य संभालने को तैयार हो जाता। इस अखबार में संपादक के लिए विज्ञापन निकलता था-‘‘एक जौ की रोटी और एक प्याला पानी यह शरेह-तनख़्वाह (वेतन) है, जिस पर ‘स्वराज’ इलाहाबाद के वास्ते एक एडीटर मतलूब (आवश्यकता) है।’’ इलाहाबाद से ही प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ‘चाँद’ (सन् 1922) का ‘‘फाँसी’’ अंक (नवंबर 1928) देश और दुनिया में फाँसी देने के औचित्य, तरीकों और राज्यक्रांतियों पर नई बहस छेड़ती थी जो आज भी हर फाँसी के बाद चलती है। इस अंक को अंग्रेजों ने जब़्त कर लिया था। मृत्युदंड की अमानुषिक प्रथा पर सवाल खड़ा करने वाला चाँद के ‘फाँसी’ अंक में शहीदे आजम भगत सिंह ने भी कई छद्म नामों से लेख लिखा था। कहने का अर्थ है कि देश की क्रांति की ‘दावानल’ को धधकाने में जितना बम और गोली ने काम किया होगा, उससे कई गुना अधिक, पत्र और पत्रकारिता ने किया। राष्ट्रभक्ति को जनांदोलन का रूप देने और आजादी की लड़ाई में सर्वस्व न्यौछावर करने की राष्ट्रीय भावना का प्रसार पत्रकारिता ने ही किया। यही कारण है कि ब्रिटिश सरकार ने इसे हमेशा अंकुश और यातना के शिकंजे में रखा। इसी कारण 19वीं शताब्दी के तीसरे दशक में मद्रास के गवर्नर ‘‘सर टामस मुनरो’ ने प्रेस की आजादी को ‘आंग्ल सत्ता’ की समाप्ति का पर्याय माना’’13 जो आगे चलकर सही साबित हुआ। भारतीय स्वतंत्रता की लड़ाई में क्षेत्रीय पत्र-पत्रिकाएं और पत्रकारों ने जितनी तल्लीनता एवं निडरता से रणभेरी बजाई, उतनी राष्ट्रीय पत्रकारिता ने शायद नहीं। यही कारण है, आंचलिक पत्रकारिता ‘जन’ के ज्यादा निकट रही है।
‘जनमत’ और ‘अभिमत’ तैयार करने में आंचलिक पत्र और पत्रकारों ने महती योगदान दिया। व्यावसायिक एवं लाभ से दूर क्षेत्रीय पत्रकारिता, विशुद्ध रूप से आजादी का ‘मिशन’ लेकर चल रही थीं और अपने स्तर पर उस ‘मिशन’ को जन-जन तक फैलाने में संलग्न थीं। आंचलिक पत्रकारिता इस देश की आत्मा (गांवों) की पत्रकारिता है। भारत जिन वजहों से जाना जाता है उस सभ्यता और संस्कृति के पोषण और संरक्षण की पत्रकारिता है। गाँव और अंचलों के सौंधी माटी और देशीयता के संवर्द्धन की पत्रकारिता है जिसके बिना इस देश आधी अधूरी ही तस्वीर बनती है जिसमें भारत की आत्मा नहीं होती है। अर्थात स्वदेशी पत्रकारिता है। उ.प्र. के बनारस से प्रकाशित पत्र ‘‘बनारस अखबार’’14 हिंदी प्रदेश का पहला अखबार था, जिसे शिवप्रसाद ‘सितारे हिंद’ ने प्रकाशित कराया था। 1850 में ‘सुधाकर’15 भी काशी से निकला। इसके दो वर्ष बाद आगरा से ‘बुद्धिप्रकाश’16 निकला। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 15 अगस्त, 1867 में काशी से ‘कविवचन सुधा’ निकाला। हिंदी पत्रकारिता का मूल्यांकन किया जाए तो 1826 से 1884 तक के काल को उद्बोधनकाल कहा जा सकता है, जिसमें उदंत मार्तंड, बंगदूत, समाचार सुधावर्षण, पयामे़ आजादी, कविवचन सुधा और हिंदी प्रदीप के द्वारा पूरे भारत में राष्ट्रीय चेतना का बीजवपन किया गया।
सन् 1885-1919 तक को ‘जागरण काल’ के रूप में, ‘हिन्दोस्थान’, ‘नृसिंह’, ‘स्वराज’, ‘प्रभा’, ‘अभ्युदय’ ने भारतियों में आजादी पाने की अलख जगायी। सन् 1920-1947 तक को ‘क्रांतिकाल’ कहा जा सकता है जिसमें स्वतंत्रता की प्राप्ति हेतु जब भारतवासी जाग उठे तो उन्हें फिरंगियों द्वारा पीड़ित किया गया। बर्बर शासकों के विरुद्ध ‘प्रताप’, ‘कर्मवीर’, ‘सैनिक’, ‘स्वदेश’ तथा गुप्त प्रकाशनों में ‘रणभेरी’, ‘शंखनाद’, ‘तूफान’, ‘चिनगारी’, ‘क्रांति’ और ‘विप्लव’ आदि ने साम्राज्यवाद के सर्वनाश के लिए क्रांति की ज्वाला भड़काई।
यह देश, ग्रामों और अंचलों का गणतंत्र है, जिसमें राष्ट्रीय आंदोलन, आंचलिक पत्रकारिता और पत्रों से मुखर हुई और राष्ट्रीय स्वर बनी। देशीय या भाषाई पत्रों की ताकत से अंग्रेजी सत्ता न केवल विचलित हुई बल्कि दहल भी गई। पूरा देश आंदोलनरत था, क्रांति बीज जो अख़बार और पत्रों ने जन के मानस में बोया था वह ज़वान और क्रांतिधर्मी हो चुकी थी़। तब देश के किसी भी बड़े शहर, चाहे दिल्ली या मुम्बई हो, कोई ऐसा राष्ट्रीय पत्र नहीं था, जो क्रांति की आग को न भड़का रहा था, बल्कि देश के छोटे-छोटे अंचलों एवं कस्बों से निकलने वाले ही पत्र थें, जिनमें देशभक्ति और राष्ट्रीय चेतना कूट-कूट कर भरी हुई थी-‘अंग्रेजी हुकूमत पर वज्रपात की तरह गिर रहे थें’। बड़े पत्र या राष्ट्रीय प्रसार वाले पत्रों की संख्या नगण्य के बराबर थी, जो थे भी, वह अंग्रेजों के थे या उनके संरक्षण में चल रहे थे। अर्थात आंचलिक पत्रकारिता देश में राष्ट्रीय भावना के साथ ही आंचलिक मूल्यों, आदर्शों एवं संस्कृतियों की भी वाहक एवं संरक्षक थी। देश की आंचलिकता इन पत्रों के माध्यम से मुख़रित एवं बलवती हुई और आजादी की लड़ाई में आंचलिक पत्रकारिता ने सबसे अधिक बलिदान दिया। यही कारण है कि 1947 तक आते आते ये आंचलिक पत्र, ब्रितानी सरकार के गले की फाँस बन गए और अंततः उन्हें हिंदुस्तान को अलविदा कह स्वदेश रवाना होना पड़ा। समय की रेखा पर पत्रकारिता के स्वरूप एवं उद्देश्यों में परिवर्तन होते रहे, आजादी की लड़ाई में हथियार बने आंचलिक पत्रकारिता, आजादी के 6 दशक बाद आज वही आंचलिक और भाषाई पत्रकारिता अपने अस्तित्व की रक्षा करने में अक्षम साबित हो रही है। आज अख़बारों कें पन्नों से ग्राम, मोहल्ला और अंचल गायब हैं। नगरों और महानगरों से पटा अख़बार पूरी तरह से व्यावसायिक रूप ग्रहण कर चुके हैं और उपभोक्तावाद को बढ़ावा दे रहे हैं। पत्रकारिता की आत्मा, ‘आंचलिक पत्रकारिता,’ जो वास्तव में स्वदेशी पत्रकारिता है, आज संक्रमण काल से गुजर रही है। गांव में अख़बार, शहरों के विज्ञापन एवं उपभोग के समान तो पहुंच रहे हैं लेकिन गांवों के अख़बारों में, गांव और गिराँव ही गायब हैं। अर्थात क्रांति का बीजपत्र, ‘आंचलिक पत्र’ आज अपने अस्तित्व के संकट के दौर से गुजर रहे हैं। देशीयता और भाषाई पत्रों की ताकत, कार्पोरेट अख़बारों और मीडिया घरानों के सामने मृतप्राय होती जा रही हैं जिसमें सरकारी नीतियाँ सहायक हो रही हैं जो वर्तमान पत्रकारिता का विद्रूप है।
संदर्भ
1. हेरम्ब मिश्र, संवाददाता: सत्ता और महत्ता, पृ. 5, किताब महल, नई दिल्ली
2. द बंगाल गजट आर केलकटा जनरल एडवरटाइजर, जेम्स आगस्टस हिकी, 29 जनवरी, 1780
3. अनुच्छेद-19 (1)(क)
4. एक्सपेे्रस न्यूज पेपर्स प्रा. लि. बनाम् भारत संघ, एआईआर 1995 SC 578; इंडियन एक्सप्रेस न्यूज पेपर्स बनाम् भारत संघ 1985 SC 641
5. सुभाष कश्यप, हमारा संविधान, पृ. 95, एनबीटी., नई दिल्ली
6. बृजभूषण बनाम दिल्ली, एआईआर-1950, SC 129
7. बीरेन्द्र बनाम पंजाब, एआईआर.1957 SC896
8. मानेका गांधी बनाम भारत संघ, ए.आई.आर. 1978, SC 597 के मामले में न्यायमूर्ति भगवती के अनुसार
9. विजयदत्त श्रीधर, पहला संपादकीय, पृष्ठ 11, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
10. ए.एल.बासम, अदभुत भारत
11. विजयदत्त श्रीधर, पहला संपादकीय, पृ.13
12. 9 नवंबर-1907 सा. उर्दू
13. डाॅ. अर्जुन तिवारी, पत्रकारिता और राष्ट्रीय चेतना का विकास, पृष्ठ 16
14. सा. जनवरी, 1845
15. सा. तारामोहन मिश्र, 1850
16. मुंशी सदासुख लाल, 1882
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