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शोध कार्यों में साहित्यिक चोरी : कारण और निवारण


डॉ. मुकेश कुमार


एसोसिएट प्रोफ़ेसर, वनस्पतिविज्ञान विभाग, साहू जैन कॉलेज, नजीबाबाद (बिजनौर) उ.प्र.


 


साहित्यिक चोरी का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है। लगभग 2000 पूर्व, सन 80 में रोमन कवि मार्शल ने आरोप लगाया था कि उनकी कविताओं को अन्य व्यक्तियों ने अपने नाम से सुनाया था। रोमन कानून में इस प्रकार के कार्य करने वाले व्यक्तियों के लिए ‘साहित्य चोर’ शब्द का उपयोग किया गया था। अंग्रेजी भाषा के ‘प्लेगेरिज्म’ शब्द का शाब्दिक अर्थ भी ‘साहित्यिक चोरी’ ही है। साहित्यिक अथवा वैज्ञानिक जानकारियों के आदान-प्रदान और प्रकाशन की परंपरा सदियों से चली आ रही है किंतु कई दशकों से प्रकाशन को अकादमिक प्रतिष्ठा, पदोन्नति एवं वित्त पोषण से जोड़ दिए जाने के कारण सम्बंधित व्यक्तिओं में अधिकाधिक प्रकाशन करने की होड़ मच गई है। वह कम समय में, कम परिश्रम करके अधिक से अधिक प्रकाशन करना चाहते हैं। कोई भी वैज्ञानिक जानकारी शोध पत्र के रूप में प्रकाशित की जाती है। वैज्ञानिकों अथवा साहित्यकारों द्वारा कठिन परिश्रम से किए गए अपने कार्य को विभिन्न शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित कराना शोध की एक स्वस्थ एवं महत्वपूर्ण परंपरा है। किंतु कुछ व्यक्ति बिना परिश्रम किए ही प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते हैं ऐसे में वे अन्य व्यक्तियों द्वारा किए गए समवर्ती कार्य को अपने नाम से प्रकाशित कराने  में सफल हो जाते हैं। ऐसा करना किसी चोरी से कम नहीं है क्योंकि चोरी चाहे धन की हो, वस्तु की हो अथवा किसी के ज्ञान और परिश्रम की, वह चोरी ही कहलाएगी।


 आजकल, उच्च शिक्षा में संलग्न शिक्षकों तथा शोध संस्थानों में कार्यरत वैज्ञानिकों की अकादमिक प्रगति के लिए शोध पत्र प्रकाशन आवश्यक हो गया है जिसके कारण शोध प्रकाशन प्रक्रिया के प्रतिमान बदल गए हैं। कुछ व्यक्ति कम समय तथा कम परिश्रम अपनी व्यवसायिक आकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहते हैं जिसके लिए वे विभिन्न प्रकार हथकंडे अपनाते हैं, अन्य क्षेत्रों के व्यक्तियों के प्रकाशित कार्यों की नक़ल करके अपने नाम से प्रकाशित करा लेते हैं। इस प्रकार की मिथ्याकांक्षा और कपटी कार्यों से वैज्ञानिक अनुसंधान एवं प्रकाशन में कदाचार का क्षरण हुआ है और वैज्ञानिक समुदाय की बदनामी। अमेरिका स्थित ‘रिसर्च इंटीग्रिटी कार्यालय’ के अनुसार अनुसंधान धोखाधड़ी अपराध के तीन प्रमुख घटक हैं, मिथ्याकरण, निर्माण और साहित्यिक चोरी। दूसरे के पाठ्य की नकल करना ‘बौद्धिक संपदा की चोरी’ की श्रेणी में आता है जो एक अनैतिक, घ्रणास्पद और निंदनीय कार्य है।


उच्च शिक्षा/ शोध संस्थानों में कार्यरत व्यक्ति समयबद्ध प्रकाशन करने के दबाव में साहित्यिक चोरी की ओर अग्रसर होने लगे हैं। भारत में भी अकादमिक अथवा साहित्यिक चोरी तेजी से बढ़ रही है। शिक्षाविदों में वैज्ञानिक कदाचार से निपटने के लिए स्पष्ट नीतियां न होने के कारण अनुसंधान कदाचार में गिरावट का उदय हुआ है जो भारत की उच्च शिक्षा के विकास को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। प्रकाशनों की संख्या को व्यक्ति की व्यवसायिक वृद्धि, अकादमिक प्रोन्नति और वेतन वृद्धि से जोड़ने के कारण अयोग्य व्यक्ति अन्य के कार्य को ज्यों का त्यों अथवा तोड़ मरोड़कर अपने नाम से प्रकाशित करने का प्रयत्न करने लगे हैं। पिछले दशकों में कुछ लेखकों के प्रकाशित पत्रों की संख्या में हुई नाटकीय वृद्धि इसका प्रमाण है। इस कार्य में न केवल लेखक बल्कि कुछ प्रकाशक भी बराबर के भागीदार हैं। नए प्रकाशकों ने भी कम गुणवत्ता के लेखों को प्रकाशित करना प्रारंभ कर दिया है। इसे प्रकाशक पांडुलिपियों को प्रकाशित करने के लिए लेखक से भारी भुगतान प्राप्त करते हैं। सर्वविदित है कि इस प्रकार की पत्रिकाओं में प्रकाशन का कोई वैज्ञानिक मूल्य नहीं है। यह प्रकाशन विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अथवा अन्य स्वीकृत सूचकांकों में अनुक्रमणित नहीं होते। इनमें प्रकाशित पांडुलिपियों की कोई समीक्षा भी नहीं की जाती है और न ही उन्हें उद्धृत किया जाता है। इनमें प्रकाशन पूर्व अथवा प्रकाशन के बाद कोई जांच भी नहीं होती है। इस तरह के प्रकाशकों का उद्देश्य उद्देश्य अनुभवहीन शोधकर्ताओं को धोखा देना है। वहीं दूसरी ओर कुछ व्यक्ति भी बिना परिश्रम किये, पैसा खर्च करके, किसी अन्य के कार्य को अपने नाम से प्रकाशित कराने में सफल भी हो जाते हैं। यह कृत्य बौद्धिक संपदा का दुरुपयोग और चोरी की श्रेणी में आता है।


भारतीय नियमों के अनुसार सभी संस्थागत, स्वतंत्र समितियों तथा समीक्षा बोर्डों को केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन के साथ पंजीकृत किया जाना आवश्यक है। किंतु निर्देशों की अनदेखी के कारण इनके कामकाज पर कोई नियंत्रण नहीं है। भारत में कुछ समितियां अच्छा कार्य भी कर रही हैं। अधिकांश वैज्ञानिक अनुसंधान साहित्यिक चोरी की जांच करने के पश्चात ही प्रकाशित किए जाते हैं। अभी भी भारत के अकादमिक क्षेत्र में अनुसंधान कदाचार से निपटने के लिए एक विकसित वैधानिक निकाय का अभाव है और अधिकतर प्रकरणों को तदर्थ रूप से ही निपटाया जाता है। भारतीय वैज्ञानिक समुदाय में नैतिकता बनाए रखने के लिए वैज्ञानिकों का एक स्वतंत्र निकाय है जिसे ‘सोसायटी फॉर साइंटिफिक वैल्यू’ के नाम से जाना जाता है किंतु इसके पास कानूनी शक्तियां नहीं है। यह तभी प्रभावी हो सकता है जब कोई विश्वविद्यालय इसे स्वीकार कर ले। वर्तमान में साहित्यिक चोरी के मामलों को अधिकतर संस्थाएं नजरअंदाज कर देती हैं अथवा इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देती। यही कारण है कि साहित्यिक चोरी करने वाले लोग निर्भीक होकर इस कार्य में लिप्त रहते हैं।


अकादमी कदाचार और साहित्यिक चोरी रोकने के लिए लेखकों में जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है। विश्वविद्यालयों में पत्रिका संपादकों और युवा शोधकर्ताओं को शैक्षिक इमानदारी और अखंडता का पालन करने के लिए शिक्षित किया जाना चाहिए। युवा शोधकर्ताओं को बेहतर केंद्रित प्रशिक्षण की आवश्यकता है उन्हें यह सिखाने की आवश्यकता है कि वैज्ञानिक रूप से अपने कार्य की अभिव्यक्ति कैसे करें? युवा शोधकर्ताओं और वैज्ञानिक लेखकों को अपने कैरियर की शुरूआत से ही सजग रहने और शैक्षिक चोरी के दुष्परिणामों की जानकारी दी जानी चाहिए। शोधार्थियों को भी अपना आत्मविश्वास बनाए रखकर वैज्ञानिक जिज्ञाषा के सिद्धांतों पर विश्वास करना चाहिए। भारत में ‘करंट साइंस’ के संपादक ने वर्ष 2006 से 2008 तक एक सर्वे किया और पाया कि साहित्यिक चोरी करने वाले 80% लेखकों में भाषा कौशल की कमी कमी थी जिसके कारण उन्होंने साहित्यिक चोरी की। पत्रिकाओं के संपादक साहित्यिक चोरी का पता लगाने की प्रथम कड़ी होते हैं किंतु वह भी सत्यता की जांच करने के लिए संसाधनों और विशेषज्ञता की कमी से जूझते हुए पाए जाते हैं। वैज्ञानिक साहित्य में मौलिकता बनाए रखने के लिए लेखकों, समीक्षकों और संपादकों की ओर से एक संयुक्त प्रयास की आवश्यकता है। यदि भारत विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में अपनी वैश्विक पहचान बनाना चाहता है तो हमारे वैज्ञानिकों को अनुसंधान की अंतर्राष्ट्रीय विश्वसनीयता और अखंडता को प्राप्त करना ही होगा जो वर्तमान में बहुत निचले स्तर पर है। अकादमिक अखंडता हेतु वैज्ञानिक समुदाय को गंभीरता से विचार करना होगा। साहित्यिक चोरी रोकने के लिए स्पष्ट मापदंडों, दिशा निर्देशों और आचार संहिता को विकसित करना होगा।


दुनिया भर में साहित्यिक चोरी के मामले तेजी से बढ़ रहे हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है। भारतीय लेखकों द्वारा साहित्यिक चोरी से किये गए प्रकाशनों की औसत वृद्धि की पहचान करने के लिए सन 2002 से 2016 की अवधि में एक अध्ययन किया गया। जिसके अनुसार एकल प्रकाशनों में, बहु लेखक प्रकाशनों की अपेक्षा अधिक साहित्यिक चोरी पाई गई। यह भी देखा गया कि वर्ष दर वर्ष बहुलेखक सहयोग वाले वैज्ञानिक कार्यों में सुधार हुआ। ‘नेचर’ जनरल में प्रकाशित एक अध्ययन के माध्यम से बताया गया कि विश्वविद्यालय अनुसंधान में साहित्यिक चोरी को प्रोत्साहित करने वालों से कैसे निपटा जाए। चीन के प्रमुख छह विश्वविद्यालयों के 6000 शोधकर्ताओं को अकादमिक कदाचारों के लिए सख्त कानूनी कार्यवाही के लिए बाध्य किया गया था। ऑस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालयों में साहित्यिक चोरी रोकने की नीति के अंतर्गत एशिया और विशेष रूप से चीन, भारत, दक्षिण कोरिया और जापान से आने वाले छात्रों के लेखन में साहित्यिक चोरी का पता लगाने की कोशिश की गई। परिणाम स्वरुप पाया गया कि इन देशों के प्रशिक्षु लेखन में साहित्यिक चोरी को बढ़ावा देते हैं। क्योंकि भारत, लेटिन अमेरिका, अफ्रीका और मध्य पूर्व, अन्य क्षेत्रों की तुलना में साहित्यिक चोरी के विषय में कम चिंतित हैं।


कुछ सालों पहले भारत सरकार भारत कम अनुसंधान उत्पादन के विषय में चिंतित थी। भारतीय उच्च शिक्षा प्रणाली के अंतर्गत शिक्षकों की प्रोन्नति के नियमों में संशोधन किया गया जो मुख्य रूप से प्रकाशनों की संख्या पर आधारित है। इस निर्णय के कारण शिक्षक अथवा वैज्ञानिक किसी भी प्रकार से प्रकाशनों की संख्या बढ़ाने में लग गए। कई प्रकरणों में अकादमी कदाचार और सांस्कृतिक चोरी भी सामने आई। अब भारत में शोध प्रकाशनों की संख्या कैरियर की उन्नति और संवर्धन का महत्वपूर्ण घटक है किन्तु उचित पालिसी के अभाव में सांस्कृतिक चोरी को प्रोत्साहन मिलता है। एक अध्ययन में दिलचस्प बात सामने आई कि जो लेखक पहले वाले के बाद पेपर लिखते हैं वह कम दक्ष होते हैं क्योंकि वह प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित नहीं कर पाते। साहित्यिक चोरी गंभीर मामला है और शोधकर्ताओं को उनके द्वारा प्रकाशित सभी कार्यों को स्वीकार करना चाहिए तथा प्रकाशन में उचित सावधानी भी बरतनी चाहिए।


सौभाग्य से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग नई दिल्ली की पहल पर पूरे देश में साहित्यिक चोरी पर लगाम लगाने के लिए कार्य योजना तैयार कर ली गई है। जिसके अंतर्गत कोई भी शोधार्थी अपना शोध प्रबंध तब तक विश्वविद्यालय में जमा नहीं कर सकता है जब तक की वह साहित्यिक चोरी न किए जाने का प्रमाण पत्र विश्वविद्यालय में जमा न कर दे। इस कार्य के लिए प्रत्येक विश्वविद्यालय, महाविद्यालय तथा शोध पर्यवेक्षक को एक विशिष्ट कंप्यूटर सॉफ्टवेयर उपलब्ध करा दिया गया है। आशा है कि अब विश्वविद्यालयों में साहित्यिक चोरी रहित शोध प्रबंध जमा हो सकेंगे और शोध के क्षेत्र में हमारे देश की छवि में सुधार हो पाएगा। यह भी एक विडंबना ही है कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने छात्रों, शिक्षकों अथवा वैज्ञानिकों को केवल एक विशिष्ट सूची में अंकित जर्नल में ही शोध पत्र प्रकाशित करने की अनुशंसा की है। हमारे देश में ख्याति प्राप्त अधिकतर जनरल इस सूची में अंकित नहीं है। ऐसी स्थिति में, शोधकर्ताओं द्वारा इस सूची के प्रकाशन से पूर्व प्रकाशित किए गए शोध पत्रों की गुणवत्ता पर भी प्रश्न चिन्ह लग गया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा स्वीकृत सूची में अंकित जर्नल के संपादकों ने शोध पत्र प्रकाशन शुल्क में कई गुना वृद्धि कर दी है। इन पत्रिकाओं की वार्षिक और आजन्म सदस्यता शुल्क में भी कई गुणा वृद्धि कर दी गई है, जो चिंता का विषय है। ऐसी स्थिति में शोधकर्ता इन्हीं पत्रिकाओं में प्रकाशन हेतु बाध्य हैं। साथ ही साथ, भारत में प्रकाशित होने वाली अनेक पत्रिकाओं को कोई प्रोत्साहन ना मिल पाने के कारण वह बंद होने के कगार पर हैं। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को चाहिए कि वह देशी गुणवत्ता युक्त पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित शोध पत्रों को भी उचित महत्व प्रदान करें। अब वैज्ञानिक पत्रिकाओं को साहित्यिक चोरी रोकने के प्रयास करने ही होंगे क्योंकि भारत सरकार कड़ाई से इस ओर प्रयत्नशील है तथा विशेषज्ञों द्वारा ‘प्लेजेरिज्म’ जांच हेतु सफल सॉफ्टवेयर भी बाज़ार में उपलब्ध करा दिए गए हैं। यह आवश्यक है कि वैज्ञानिक समुदाय को स्वच्छ बनाने के लिए हम सभी योगदान दें।


 


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