बृजेश चन्द्र कौशल
(शोध-छात्र)
(बीएड, एमफिल, जेआरएफ)
डॅा. शकुंतला मिश्रा राष्ट्रीय पुनर्वास,
विश्वविद्यालय लखनऊ
उजड़ते हुए मुंडा आदिवासी समाज का सच रणेन्द्र कृत 'ग़ायब होता देश' आदिवासी समाज के उपनिवेशवाद में नवसाम्राज्यवादी शोषण का महाकाव्यात्मक उपन्यास है। मुख्यधारा से कटा हुआ यह समाज अशिक्षित और पिछड़ा होने से आधुनिक जनसंचार माध्यमों तक अपनी पीड़ा कथा व्यथा पहुंचाने में असमर्थ है। इस कमी का भरपूर लाभ शोषक शक्तियां आदिवासी लोगों को अपराधी और नक्सली घोषित करके भरपूर लाभ ले रही हैं। इनके इलाकों में बड़ी-बड़ी कंपनियाँ अपने उद्योग धंधे लगाकर चिमनियों से निकला हुआ विष उनके उपर जबरदस्ती छोड़ा जाता है और कोयला निकाल कर गहरे गड्ढे उनको तथा उनके खेलते हुए बच्चों को बारिश के दिनों में डूब कर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। सभी गड्ढ़ों में मच्छर के एकत्रित होने के कारण आदिवासी समाज को जीवन यापन करने के लिए बड़ी कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। आदिवासी समाज को सबसे ज्यादा डर बाघ, बारिश और पुलिस से होता है पुलिस के लोग शासन के आदेश पर अपनी बंदूक के बल पर जब चाहे जितनी चाहे उनकी जमीन खाली करा लेते हैं और उनको बेघर होने पर मजबूर कर देते हैं। शिक्षा के नाम पर कोई भी स्कूल नहीं, पीने के लिए पानी नहीं, बारिश में रहने के लिए घर नहीं और ना ही कोई डाक्टरी सुविधा दी जाती है।
उपनिवेशवाद के इस दौर में 'ग़ायब होता देश' नवसाम्राज्यवादी शोषण का सच जिस प्रकार से लेखक कहता है ''वह मुंडा आदिवासी समाज के संकट, शोषण, लूट पीड़ा और प्रवंचना का इतिवृत्त है। किस तरह सोना लेकिन दिसुम विकास के नाम पर रियल एस्टेट द्वारा ग्लोबल भूमंडलीकृत पतन का शिकार है।''1 साम्राज्यवादी ताकतें जिस तरह जल जंगल जमीन-पहचान को और ट्रेफिकिंग द्वारा बेटियों को हजम कर रही हैं, उसके विरूद्ध ग़ायब होता देश ने अपनी आवाज रखने में बहुत बड़ी सफलता हासिल की है। सोना लेकिन दिसुम-सोना जैसा देश! मुंडाओं को कोकराह ऐसा ही लगा था। ''हेनसांग ने सोने के कणों से चमकती नदी का नाम स्वर्ण किरण रखा, जो बाद में स्वर्ण रेखा कहलाई।... सोने के कणों से जगमगाती स्वर्ण किरण-स्वर्ण रेखा, हीरो की कौंध से चैंधियाती शंख नदी, सफेद हाथी श्यामचंद्र और सबसे बढ़कर हरे सोने, शाल सखुआ के वन। यही था मुंडाओं का सोना लेकिन दिसुम।''2
विकास का ढोल पीटती बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ आदिवासी क्षेत्रों में अपना उद्योग स्थापित करके मालिकाना हक जताती हैं क्योंकि पूंजीवादी विकास के रास्ते यहीं से होकर जाते हैं जिसमें तथाकथित लोकतंत्र आदिवासियों के इस शोषण का मूक दर्शक बनकर बराबर सहयोग दे रहा है। जो कि किशन विद्रोही नामक पात्र की हत्या कर दी जाती है जब वह अपनी आवाज़ इन लोगों के ख़िलाफ़ उठाता है। परंतु इस आदिवासी पत्रकार की हत्या का कोई भी अख़बार, टीवी, चैनल, सच कहने को तैयार नहीं होता कि किशन विद्रोही की हत्या की गयी।
'ग़ायब होता देश' उपन्यास में वसुंधरा बाॅक्साइड प्रोडक्ट प्रा. लिमिटेड, वसुंधरा आइस एंड स्टील, रियल स्टेट परियोजना, विपासा काॅरपोरेशन लि. और इसी ऐजेंसी के क्लाइंट बड़े-बड़े काॅरपोरेट्स आदि की खनन परियोजनाओं ने आदिवासी समाज के अस्तित्व को संकट में डाल दिया है। लेकिन लोकतंत्र इस सच से जो भाग रहा है उसके पीछे नोटों से भरी बोरियाँ और ताकतों के बल पर आदिवासी टोले ग़ायब किए जा रहे हैं। जिसका कारण रियल स्टेट, खनन और बाँध परियोजनाएँ आदि के निर्माण से संबंध ये कंपनियाँ न केवल आदिवासियांे को उनकी जमीन से उजाड़कर उनका वर्तमान बर्बाद कर रही हैं बल्कि प्रतिरोध और आंदोलन को भी कमज़ोर कर रही हैं। किशन विद्रोही की हत्या के बाद अख़बारों की उदासीनता यह बतलाती है कि किस प्रकार मीडिया इस पूँजीतंत्र की गिरफ्त में आ गया है ''किशनपुर एक्सप्रेस अख़बार तक किशन विद्रोही उर्फ के.के.की. विद्रोही चेतना बनी हुई थी, पर पूँजीपतियों द्वारा उसे टाॅर्चर करने की शुरूआत वहीं से हो गई। अंततः उसे 'किशनपुर एक्सप्रेस' छोड़ने पर बाध्य होना पड़ा पूँजी बाजार, बिल्डर माफिया और सत्ता तंत्र की किस प्रकार लोकतंत्र के चैथे खंभे का इस्तेमाल करते हैं, उसे उंगलियों पर नचाते हैं, इन्ही तिकड़मों के ब्यौरों से कथा आगे बढ़ती है। किशन विद्रोही टूट जाता है पूँजी बाजार एवं माफिया तथा राजनीतिक सत्ता के कुचक्र का शिकार हो जाती है।''3
इसके साथ ही विकास के भूमंडलीय दावे की असलियत भी खुलने लगती है कि किस प्रकार से आदिवासी आबादी के विनाश करके विकास का समाजशास्त्र रचा जा रहा है। समाज में उपनिवेशीकरण की जो प्रक्रिया आज से कुछ साल पहले शुरू हुई थी उसी का विकसित रूप आज भी विकास के नाम पर एक बड़ी आबादी को अपनी जमीन, अपने पर्यावरण और हक तथा कानूनों से वंचित होना पड़ता है। इसके विरोध में विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास 'समर शेष है' में बहुत ही आक्रामक रूप देखने को मिलता है। जब गुरू जी पूरे मामले को समझकर ललकारते हुए कहते हैं ''क्या तुम लोग इसी तरह हाथ धरे बैठे रहोगे? क्या हो गया है तुम्हें? कैसी है यह कायरता? अब उनमें से कोई इन गाँवों में आए तो तीर से बींध डालो, हाथ-पैर तोड़ दो कैसा डर? किसका डर यह ज़मीन तुम्हारी, यह आसमान तुम्हारा। यह जंगल-झाड़ सब तुम्हारे हैं। भूल जाओ कि तुमने इन्हें महाजनों के पास रेहन रखा है। किसी का कोई कर्ज़ नहीं है, तुम पर। कोई दावा करे तो सर तोड़ दो उसका।''4
आदिवासियों के विकास को कुंद करके आर्थिक विकास की गति के जो तत्व मुख्य रूप से हैं, वह डाॅ. सोमेश्वर सिंह, मुंडा, विरेन, सोनामनी दीदी, नीरज पाहन, अनुजा दी, एतवा दादा आदि आदिवासियों के संघर्षों और प्रतिरोधों के महान अतीत को विकृत करने से भी बाज नहीं आते। जागरूक आदिवासी नेतृत्व को बदनाम करने, उन्हें विकास विरोधी और नक्सली बता अवांक्षित सिद्ध करने के साथ रियल एस्टेट और खनन माफियाओं के पक्ष में माहौल बनाने के लिए पूंजीवादी कंपनियाँ अपने स्वयं के अख़बारांे, पत्र-पत्रिकाओं से लेकर टी.वी. चैनल्स तक खोलने लगी है। शोषक वर्ग द्वारा किस प्रकार से किशन विद्रोही पत्रकार को डराकर अपनी क्रूरता का परिचय देता है। ''अब वे दिन दूर नहीं कि उद्योगपतियों-उद्यमियों की सफलता की कहानियाँ अख़बारों की हेडलाइंस बनेंगी। व्यूरोक्रेसी, लेजिस्लेशन की विफलता, गाँव-ग़रीबी-बदहाली के किस्से बहुत हो गए। लोकनायक का स्वर्गवास हेतु दशकों बीत गए। आप जैसे लोग वहीं खड़े कदमताल कर रहे हैं और आपको अपनी मेहनत का भ्रम भी है कि आपकी ही क्रांतिकारी लेखनी से समाज बदलेगा। ख़ुमारी से निकलिए नहीं तो दुनिया आगे निकल जाएगी, आप वहीं कदमताल करते रह जाएंगे।''5
आदिवासी समाज का सच कहीं भी अपनी जगह ठीक से तय नहीं कर पाया है, जिसकी वजह आदिवासियों का इतिहास, इतिहास की पुस्तकों में जगह ही नहीं बना पाया है और अगर कहीं हाशिए के किसी कोने से आदिवासी झाँकता मिल भी जाए, तो उसके इतिहास को इतना तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया कि सच्चाई से कोई नाता है ही नहीं ''सच्चाई से रहो, ईमानदारी से जियो, नफ़रत त्याग दो यह सब किताबों में लिखा है। एक दम झूठ। यह सब हमारे लिए नहीं है। लोग हमें डराते हैं। हम डर के मारे झूठ बोलते हैं, बेईमानी पर चलते हैं। नफ़रत करते हैं।''6 आदिवासियों के हक़ की लड़ाई का एक मात्र सहारा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही किंवदंतियों और मिथकों को अपना विषय बनाएं और यही काम जादुई यथार्थवाद करता है जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण 'ग़ायब होता देश'। उपनिवेशवाद में नवसाम्राज्यवादी का यथार्थ देखा जाय तो मैत्रैयी पुष्पा कृत 'अल्मा कबूतरी' में राणा द्वारा कहे गए वाक्य कबूतरा समाज का सच है। कबूतरा समाज के लोग भी जीवन जीना चाहते हैं लेकिन उन्हें यह नसीब नहीं होता जिसके कारण उनको संघर्ष के लिए मजबूर होना पड़ता है।
आदिवासी समाज के संघर्ष का जीता जागता उदाहरण रणेंद्र का पहला उपन्यास 'ग्लोबल गाँव का देवता' में जब असुर जनजाति के क्रमिक विघटन के लिए उत्तरोत्तर हावी होती बाज़ार शक्तियों के बीच व्यावसायिक संघर्ष का वर्णन बहुत ही अच्छी तरह से किया गया है, जो आदिवासी संघर्ष का एक प्रत्यक्ष उदाहरण बनकर सामने आता है ''इस बार कथा कहानी वाले सिंग-बोंगा नेे नहीं, टाटा जैसी कंपनियों ने हमारा नाश किया। उनकी फैक्टरियों में बना लोहा, कुदाल, खुरपी, गैती, खंती, सुदूर हाटों तक पहुँच गए। हमारे गलाए लोहे के औज़ारों की एक पूछ खत्म हो गई। लोहा डालने का हज़ारों-हज़ार साल का हमारा हुनर धीरे-धीरे ख़त्म हो गया।''7
पूँजीवादी विकास की दौड़ में शामिल लोग कैसे घास की तरह एक मानव समुदाय को चरते जा रहे हैं। यह उपन्यास इसी की मार्मिक कथा है। घास को चरने में आज का हर वह मनुष्य शामिल है, इसमें हम भी हैं आप भी हैं। हम वैचारिक धरातल पर बहस करते हैं लेकिन विडंबना यह है कि उसी के दाना-पानी से जीवित हैं, इस दौर में कोई दाना-पानी से बचा है तो आदिवासी समाज। इसलिए आज आदिवासी समाज को सबसे ज्यादा प्रलोभन देने की कोशिश की जा रही है कि वह जाल में फंस जाय और उसके पास मौजूद जल, जंगल, जमीन को उन्हें विकास के नाम पर सौंप दें। यह विकास मछली को फंसाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले चारे की तरह है जो चारे में नहीं फंसना चाहता वह विद्रोही मान लिया जाता है। जो इस प्रकार से देखा जा सकता है। ''वे अपनी प्रथाओं और मान्यताओं के अनुसार निश्चिंत होकर स्वच्छंद भाव से जीवन जीना चाहते हैं। जंगलों में प्रवेश से रोक लगने के कारण उनके रोजगार नष्ट होने लगे। इसलिए आदिवासी समाज को अपने स्थान से पलायन होने पर मजबूर होना पड़ा। यदि उनके ऊपर किसी भी प्रकार का बाहरी हस्तक्षेप किया जाता है तो उसको वो अपना शत्रु समझ लेते हैं और फिर वे आंदोलन के लिए तत्पर हो उठते हैं।''8 आदिवासियों को विकास की दृष्टि से देखा जाय तो विकास के नाम पर मची लूट के कारण सदियों से अपनी जर, जमीन और जंगल पहाड़ के बीच रह रहे लोगों के अस्तित्व की रक्षा के लिए किए जाने वाले संघर्ष की ही यह कथा है।
गाँव के लोगों के बीच जेम्स मिल जो उपकार करता है। उसके पीछे उसकी सदाशयता नहीं, बल्कि विनाशकारी योजनाएं हैं, बड़े बांध, खनिजों की बेतहाशा लूट जंगलों को उजाड़ कर इमारतें बनवाना और अकूत पैसा बनाने की अंधाधुंध होड़ ने जंगल पर आश्रित आदिवासियों के जीवन को संकट में डाल दिया है। सरकारों का काम रह गया है बिल्डर, माफिया, ठेकेदार और पूूँजीपतियों, मल्टीनेशनल कंपनियांे के हितों की रक्षा करना। बाजार के वैश्वीकरण ने दुनिया की एक बड़ी आबादी को विकास के नाम पर निराशा की ओर धकेल दिया है। ''उधर सोनामनी दी-नीरज पाहन 'हत्यारे को फाँसी' और पाहन बाबा हत्याकंड जाँच के लिए जुलूस, धरना प्रदर्शन करते तो दूसरी ओर दुरगंदह बचाओं संघर्ष समिति नदी को अतिक्रमण मुक्त, क्लीन किशनपुर-ग्रीन किशनपुर, गंदी बस्तियों का स्थानांतरण आदि मांगों को लेकर ज्यादा बड़ा जुलूस, प्रदर्शन सेमीनार, कांफ्रेन्स की झड़ी लगा रखी थी। नतीजतन सारे शोरगुल बाबा की हत्या के सवाल खोकर रह गए।कृउसके बाद आज न किशन दा हैं और न अनुजा सोमा दी का कोई पता... आदिवासी गाँवों, बस्तियों का उजड़ना पहले से भी तेज़ी से हो रहा है।''9 आदिवासी विरोधी तथाकथित नागरिक आंदोलनों का और स्वयंसेवी संगठनों की गतिविधियों का जादू तो स्थिति को और भी उलझाने वाला है। प्रभावशाली साहब लोगों के नागरिक संगठन अपने संपर्कों और ताकत का इस्तेमाल करके आदिवासी यथार्थ को धूमिल कर रहे हैं। अशोक पोद्दार के साथ-साथ चैदह-पंद्रह साल की लड़की की लाशें मिली थीं। दोनों की गरदन पर तेज़ धारदार हथियार से काटने के निशान मौजूद थे। ''वह बच्ची ग़रीब और आदिवासी दिख रही थी। इसीलिए 'एतवा पाहन गुट के आत्मघाती दस्ते की मेंबर' वाला समाचार गढ़ा गया, क्योंकि एफआईआर के शब्द भी वही हैं। अब उस बच्ची की देह पर कपड़ा क्यों नहीं था? तेज धार वाला वह हथियार कहाँ विला गया? उसकी जांघ खून से लथपथ क्यों थी? और छातियों पर जख्म किसने लगाए थे?''10 भौतिक जगत की सीमाओं से मुक्त होने की सनातन मानवीय इच्छा। इसी इच्छा की परिणति किसी मनुष्य या प्राणी या वस्तु के ग़ायब होने जाने की फैंटेसी या मिथकीय कथा के शृजन के रूप में प्रायः देखी जा सकती है 'ग़ायब होता देश' उपन्यास में तो आदिवासियों का जीता-जागता देश ही भूमाफियाओं और खनन माफियाओं के षड़यंत्रों और छीना-झपटी में देश के मूल बाशिंदे आदिवासियों की आँखों के सामने ही ग़ायब होता जा रहा है। इस प्रकार 'ग़ायब होता देश' '' वैश्विक काॅरपोरेट कंपनियाँ आदिवासियों के देशज ज्ञान को चुरा अपने नाम पर पेटेंट कराकर उपभोक्तावादी बाजार में पूंजी के महल खड़ा कर रही है। भोला-भाला अनपढ़, ग़रीब आदिवासी अपने ज्ञान की इस पूँजीवादी लूट से अनभिज्ञ इन काॅरपोरेटों की चालों का शिकार बनता जा रहा है।''11
आदिवासियों की जमीन पर कल-कारखाने और बड़े उद्योग बन रहे हैं, बड़े-बड़े चमकदार माॅल बन रहे हैं लेकिन उस ज़मीन के असली हक़दार उसी की चमक में दफ़न हो रहे हैं और इस आधुनिकता में नवसाम्राज्यवाद का यह यथार्थ है कि इस पर राष्ट्रीय जश्न मनाया जाता है। इस उपन्यास में राजनीतिक और प्रशासनिक मिली भगत से किस तरह झारखंड में भूमाफियाओं ने आदिवासियों की ज़मीन को कब्जाया और किस तरह से ज़मीन हाथ से निकलते ही आदिवासियों की पहचान मिट जाती है। जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण 'ग़ायब होता देश' में देखने को मिलता है।
संदर्भ
1. रणेंद्र, 'ग़ायब होता देश', पेंगुइन बुक्स इण्डिया, प्रथम संस्करण-2014 की भूमिका से।
2. वही पृष्ठ-1
3. संजय सहाय, हंस, मानवीय संकट की कथा, अजय वर्मा ;समी.द्ध, जनवरी-2016, पृष्ठ-87
4. विनोद कुमार शुक्ल, 'समर शेष है', नई दिल्लीः प्रकाशन संस्थान, संस्करण-1999, पृष्ठ-87
5. ग़ायब होता देश, पृष्ठ-120-121
6. मैत्रैयी पुष्पा, 'अल्मा कबूतरी', नई दिल्लीः राजकमल प्रकाशन, तीसरी आवृत्ति-2011 पृष्ठ-99
7. रणेंद्र 'ग्लोबल गाँव का देवता' नई दिल्ली भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण-2009, पृष्ठ-83
8. शैलेंद्र सागर, 'कथा क्रम', विशेषांक आदिवासी समाज और साहित्य, प्रो. वीर भारत तलवार ;साक्षा.द्ध, सभी सत्ताधारी आदिवासियों के आदिवासीपन से डरते हैं, केदार प्रसाद मीणा द्वारा, वर्ष-14, अंक-50 अक्टूबर-दिसंबर- 2011, पृष्ठ-8
9. ग़ायब होता देश, पृष्ठ-164
10. वही, पृष्ठ-291
11. डाॅ. एम. फिरोज़ अहमद, 'वाङ्मय', आदिवासी विशेषांक-3, ग़ायब होते जीते जागते आदिवासी ;शोधद्ध, प्रमोद मीणा, जुलाई-2013, पृष्ठ-24
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