इक़बाल
सच कह दूं ऐ बिरहमन ! गर तू बुरा न माने
तेरे सनमकदों[11] के बुत हो गए पुराने
अपनों से बैर रखना तूने बुतों से सीखा
जंगो-जदल[12] सिखाया वाइज़ [13] को भी खुदा ने
तंग आके मैंने आखिर दैरो-हरम को [14] छोड़ा
वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने [15]
पत्थर की मूरतों में समझा है तू खुदा है
ख़ाके-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है
आ ग़ैरियत[16] के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें, नक़्शे-दुई [17] मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिवाला इस देस में बना दें
दुनिया से तीरथों से ऊँचा हो अपना तीरथ
दामाने-आस्मां[18] से इसका कलश मिला दें
हर सुबह उठके गायें मंतर[19] वो मीठे-मीठे।
सारे पुजारियों को मय[20] पीत की पिला दें।।
शक्ति भी शान्ति भी भक्ति के गीत में है।
धरती के बासियों की मुक्ति परीत [21] में है।।
[11] बुतख़ाना (मन्दिर)
[12] युद्ध
[13] इस्लामी उपदेशक
[14] मन्दिर तथा काबे की चारदीवारी को
[15] कहानियां
[16] वैर-भाव
[17] दुई के चिह्न
[18] आकाश का दामन (आकाश)
[19] मन्त्र
[20] मदिरा
[21] प्रीत
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