माहेश्वर तिवारी
आग लपेटे
जंगल-जंगल
हिरन कुलाँच रहे हैं
क्या करते
बेबस बर्बर गाथाएँ
बाँच रहे हैं
सहमे-सहमे
वृक्ष-लताएँ
पागल जब से
हुईं हवाएँ
अपना होना
बड़े गौर से
खुद ही जाँच रहे हैं
डरे-डरे हैं
राजा-रानी
पन्ने-पन्ने
छपी कहानी
स्नानघरों से
शयनकक्ष तक
बिखरे काँच रहे हैं
Comments
Post a Comment