नंददुलारे वाजपेयी
कुछ समय पूर्व, जब दिल्ली की एक सरकारी समिति में उत्तर भारत से दक्षिण भारत को हिंदी के प्रति सद्भावना-संचार के लिए कुछ साहित्यिकों के भेजे जाने का प्रस्ताव किया गया और मेरे सामने यह प्रश्न रखा गया कि मैं दक्षिण के किस प्रदेश में जाना चाहूँगा तो मैंने बिना एक क्षण-भर सोचे केरल का नाम लिया था। इसका कारण यह न था कि मुझमें उस समय की केरल की कम्युनिस्ट सत्ता के प्रति कोई अभिरुचि या लगवा था परंतु एक पंथ दो काज हो जाएँ तो कम्युनिस्ट शासन की गतिविधि को देख लेने में हानि भी क्या थी! एक प्रेरणा जो मन के किसी कोने में निहित थी, यह अवश्य थी कि इसी बहाने देश के दक्षिण छोर का और मार्ग में समस्त दक्षिण-पथ का दर्शन और पर्यटन हो जाएगा। सरकारी खर्च पर खदि यह कार्य हो जाए तो उससे वंचित रहना बुद्धिमानी नहीं जान पड़ी। विश्वविद्यालय से बीस-बाईस दिन की छुट्टी लेकर यदि अपने नियमित कार्य में अंझा डाला जाए तो उसके बदले में कुछ तो हासिल होना ही चाहिए और जब एक बार केरल की यात्रा पर निकल ही पड़ा तो दक्षिण के विशाल मंदिरों और तीर्थ-स्थानों को क्यों न देखूँ? संभव है, ये सारे इरादे अंतर्मन में पहले से ही काम कर रहे हों, अन्यथा बिना सोचे-विचारे कमेटी के सामने केरल का नाम निकल पड़ना कैसे संभव था! सभी शुभ कार्यों में विघ्न आते ही हैं, इस लोक-विश्वास की सच्चाई मुझे अपनी यात्रा के इस प्रसंग में भी दिखाई दी। सन 1958 के आरंभ में मेरे केरल जाने का प्रस्ताव स्वीकृत आई। इस लंबे समय के कितनी बार कितनी दिशाओं से क्या-क्या अवरोध आए, अपने में यह भी एक वर्णनीय विषय है; पर इस समय मुझे उनके वर्णन का लोभ संवरण करना पड़ेगा अन्यथा एक निबंध के स्थान पर दो निबंध तैयार करने होंगे, जिसके लिए यहाँ समय नहीं है। शायद इतना संकेत कर देने से काम चल जाए कि केंद्रीय और प्रादेशिक सरकारों के बीच चलने-वाली लंबी लिखा-पढ़ी और किसी भी अवसर पर दोनों के बीच मेरे केरल पहुँचने की तिथि पर मतैक्य का न हो पाना, हमारे संकल्पित प्रयाण में रुकावटें डाल रहे थे। इसी बीच केंद्रीय मंत्रिमंडल के शिक्षामंत्री मौलाना अबुलकलाम आजाद का निधन हो जाने से मेरे प्रस्थान की संभावना और दूर चली गई और मैं करीब-करीब निराश ही हो गया था। इतने में सहसा दिल्ली और त्रिवेंद्रम से एक साथ दो पत्र मिले जिनमें 16 अगस्त सन 1959 को मुझे केरल पहुँच ही जाना है, इसकी सूचना थी। यह सूचना अपनी शब्दावली में आदेश के इतने निकट थी कि मेरी पहली प्रतिक्रिया उसे अमान्य कर देने की हुई। विचित्रता यह थी कि 16 को त्रिवेंद्रम पहुँचने का आदेश देने वाले पत्र मुझे उक्त तिथि से केवल दो या तीन दिन पहले मिले थे। इतना भी समय न था कि लंबी यात्रा-संबंधी आनुषंगिक व्यय का द्रव्य भी दिल्ली से नहीं आया था, फिर मैं किस बूते पर जाने का साहस करता। इतनी असंगतियों के रहते हुए भी उनके प्रस्ताव को एकदम अस्वीकार नहीं किया, इसे भी मैं अपनी भलमनसाहत ही कहूँगा। मैंने दिल्ली से दस-बारह दिन की मोहलत माँगी और सत्ताईस अगस्त को केरल पहुँचने का इरादा प्रकट किया। मेरे इस पत्र पर पहली बार दोनों पक्षों - दिल्ली और त्रिवेंद्रम - का अनुमोदन प्राप्त हुआ और मैंने संतोष की गहरी साँस ली।
इस आरंभिक अवरोध के पश्चात परिस्थितियाँ ऐसा अनुकूल मोड़ लेती गईं और मेरी सारी यात्रा इतनी आह्लादक घटनाओं से आपूरित हो गई कि मुझे स्वयं ही इस व्यतिरेक पर विस्मय हुआ। बीस दिन की जिस यात्रा को आरंभ करने में ही बीस महीने का अंतराल पड़ गया, उसकी परिसमाप्ति ऐसी हँसी-खुशी से हुई मानो बीस क्षण भी न लगे हों। ठीक है, स्रोतस्विनी जब पहाड़ी चट्टानों को काटकर उनकी संधियों से निःसृत होती है, तब उसकी विघ्न-बाधाओं का ओर-छोर नहीं रहता, पर ज्योंही वह समतल में आकर समुद्र की ओर प्रवाहित होती है, तब उसकी तीव्र गति का अंदाज लगाना भी संभव नहीं होता। यद्यपि मैं स्रोतस्विनी नहीं हूँ और न दिल्ली और केरल की सरकारें चट्टानें हैं, पर पिछले अनुभवों के पश्चात आगामी यात्रा का इतना सुखद स्वरूप इस रूपक को सार्थकता प्रदान करता है। सागर से सीधे केरल न जाकर मैंने कलकत्ता से हवाई जहाज के द्वारा त्रिवेंद्रम जाने का निश्चय किया। ऐसा करने में ऊपरी हेतु तो यह था कि मुझे कलकत्ता विश्वविद्यालय कुछ कार्य निपटा देना था, पर भीतरी और असली हेतु यह था कि हवाई यात्रा के अनुकूल अच्छी तैयारी कलकत्ता पहुँचकर ही की जा सकती थी। मुझे यह भी बता देना चाहिए कि यह मेरी पहली आकाश-यात्रा थी और इसे मैं एक असाधारण अभियान समझ रहा था। इसलिए जब 25 अगस्त को कलकत्ता में अपने आत्मीय छात्र श्री कृष्णबिहारी मिश्र के साथ बहुत-सा नया सामान खरीदकर और एअरलाइंस कार्यालय में मद्रास तक के दो टिकट (एक अपने और दूसरा अपने निजी सचिव श्री बलभद्र तिवारी के लिए) लेकर जब रात को दस बजे अनेक साहित्यिक मित्रों के साथ दमदम हवाई अड्डे पर पहुँचा, तब अनेक अद्भुत कल्पनाओं से मन तरंगित होने लगा। किंतु मित्रों की उपस्थिति में मन की चंचलता आत्मविश्वास में परिणत होती जा रही थी। और जब सवा दस बजे को एअर इंडिया के नागपुर होकर मद्रास जाने वाले वायुयान पर आसीन हो गया और जब प्रायः आधे घंटे में आरंभिक नवीनता के बाद हम हवाई जहाज पर नए-पुराने हो गए, तब मैंने एक सरल आवेश में अपने निजी सचिव (नि.स.) से कहा : बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का जो चीरा तो कतरा-ए खूं निकला। सच पूछिए तो हवाई जहाज की यात्रा में और एक बिगड़ी हुई बस की यात्रा में विशेष अंतर नहीं है - आवाज की दृष्टि से। दूसरी कुछ दृष्टियों से कुछ अंतर अवश्य है, पर उस अंतर का भान मुझे उस रात नहीं हुआ।
कलकत्ता से नागपुर और नागपुर में तीन घंटे विश्राम करने के पश्चात सोनेगाँव (नागपुर) से मद्रास पहुँचने तक सबेरा हो गया था। रात-भर कुछ भी नया देखने को नहीं मिला, पर प्रातःकाल होते ही नए-नए दृश्य दस-बारह हजार फुट की ऊँचाई से उड़ने वाले वायुयान से दिखाई देने लगे। सात बजे सबेंरे जब हमारा यान मद्रास नगर की परिक्रमा कर रहा था, तब वह विशाल नगर चीड़ के बने ऐसे डिब्बे की भाँति दिखाई पड़ता था, जिसकी दीवालों में अनेकानेक छेद बने हुए हों। मद्रास नगर के विशाल मकानों की कतार मुश्किल से ताश के पत्तों या अधिक से अधिक एक बड़ी मोटर-बस के बराबर जान पड़ती थी। और जब हम मद्रास हवाई अड्डे पर उतरकर आधे घंटे के भीतर ही उसी कंपनी के दूसरे हवाई जहाज पर बैठकर मद्रास से त्रिवेंद्रम चले, तब दृश्यावली और भी सुंदर होने लगी। रास्ते में पड़ने वाली कृष्णा और कावेरी जैसी चौड़े पाटवाली नदियाँ ऐसी जान पड़तीं मानो मुश्किल से पचास फुट चौड़ी कोई नहर हो। उनके तट के बड़े-बड़े वृक्ष ऐसे लगते थे जैसे किसी बगीचे के दो फुट ऊँचे पौधे हों; और ये सारे दृश्य वास्तविक नहीं, चित्र में अंकित-से जान पड़ते थे। दक्षिण की सारी भूमि ऐसी लगती थी जैसे किसी चित्रकार का कागज पर बनाया कोई रेखाचित्र हो। दूर की चीजें जहाँ इस प्रकार नजर आती थीं, वहाँ अत्यंत समीप के बदल और पहाड़ों के शिखर एक दूसरा ही समां बाँध रहे थे। हमारा जहाज बादलों से भी ऊपर था, पर्वत-शिखरों के ऊपर तो वह था ही। कभी-कभी यह दूरी बहुत कम हो जाती थी और हमें यह जान पड़ता था कि हम पर्वतों पर पैर रखकर सफेद बादलों की चादर लपेटे हुए चल रहे हैं। बादलों के फुहारे हवाई जहाज के छोटे-छोटे छिद्रों से जो वायु के प्रवेश के लिए रखे गए हैं, घुसे आ रहे थे। उनकी शीतलता प्रातःकालीन वायु से मिलकर बड़ी सुखद लगती थी। अचानक हम उस पर्वतमाला के पास पहुँचे जिसके ऊपर से हमारा हवाई जहाज प्रायः आधे घंटे, करीब सौ मील की दूरी तक, उड़ता रहा। यह पर्वतमाला कौन-सी थी, इसका ज्ञान तब हुआ जब हम त्रिवेंद्रम के अत्यंत समीप पहुँच गए। कदाचित यह नीलगिरि की पर्वतमाला थी, अथवा पश्चिमी घाट की कोई श्रृंखला थी। नाम से विशेष प्रयोजन इसलिए नहीं कि दृश्य उससे कहीं अच्छा था। प्रायः एक सौ मील तक हिम-श्वेत बादलों का प्रसार नीलवर्ण की पर्वतमालाओं के ऊपर गंगा की भाँति प्रवाहित हो रहा था और उससे भी ऊपर हमारा हवाई जहाज, इस नील-धवल दृश्य-राशि को लाँघता हुआ प्रकृति के ऊपर मनुष्य की विजय की सूचना दे रहा था। साथ ही, प्रकृति के साथ एक अंतरंग सामंजस्य का द्योतन भी वह कर रहा था। मीलों तक फैले हुए श्वेत बादल खूब अच्छी तरह धुनी हुई रूई के समान, पर साथ ही, एक अपूर्व नमी लिए हुए, दिखाई देते थे। जान पड़ता था कि हिम के विशाल शिखर ही बूँद-बूँद और रेशे-रेशे होकर उड़े जा रहे हैं। आगे-पीछे और दोनों पार्श्वों में भी श्वेत-राशि दिखाई दे रही थी। ऐसा जान पड़ता था कि आकाश ही परिवर्तित होकर बादलों का समूह बन गया है। प्रसाद की कामायनी के अंतिम सर्ग में पैदल यात्रा करते हुए मनु, श्रद्धा और इड़ा जब हिमालय के ऊपर पहुँचकर मानसरोवर के समीप जा रहे थे, तब कुछ पंक्तियों में ऐसी ही दृश्यावली का आभास दिया गया। अंतर इतना ही है कि प्रसाद की पंक्तियों में मनुष्य की गति मंद और दृश्यावली का आच्छादन अधिक है। दृश्य मानव-पात्रों पर हावी हो गया है, पर यहाँ तीव्रगतिक वायुयान पर बैठे हुए हम दृश्यों पर अनुशासन कर रहे थे। हमारे सामने उड़ते हुए बादल हमको अभिभूत नहीं कर पाते थे क्योंकि वे हमसे नीचे थे। कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता था कि श्वेत खरहों की असंख्य राशि अपने पर्वत-कोटर में प्रवेश करने के लिए दौड़ी जा रही है। हमें ऐसा भान हुआ कि एक और हिम या बरफ के अपार ढूहों में से उनका जल-सार निकालकर खोखला कर दिया। गया है, वे ही बादल बनकर भागे जा रहे हैं और दूसरी ओर ऐसा जान पड़ता कि हिमखंडों का जल-सार श्वेताकाश को समर्पित कर दिया गया है जिससे बादल बनकर हमारे पैरों तले आ गया है। सहसा हमें ऐसा लगा कि दृश्य के ऊपर गति की और गति के ऊपर मानव-वृद्धि की प्रतिष्ठा पूर्ण रूप से हो गई। क्या आधुनिक विज्ञान हमें इसी दिशा में ले जा है!
26 अगस्त को दिन के ग्यारह बजे जब हम आसमान से उतरकर जमीन पर पहुँचे तो हमारे सामने त्रिवेंद्रम का हवाई अड्डा था। हम अपने मित्र और छात्र श्री एन.ई. विश्वनाथ अय्यर को तार दे चुके थे और अड्डे पर उनसे मिलने की प्रतिक्षा थी, पर जब वे आसपास कहीं दिखाई न दिए, तब हम (मैं और मेरे नि.स. श्रीतिवारी) आश्चर्य में पड़ और पाँच मिनट तक हांडी में ऊँट की तरह उनकी तलाश करते रहे; यद्यापि हमारे मित्र श्री अय्यर जी ऊँट की उपमा नहीं रखते; काफी छोटे हैं। अंत में पूछताछ-दफ्तर में जाकर जब संबंधित अधिकारी से अँग्रेजी में बात की, तब वे बंगाली सज्जन हिंदी में बोले, 'क्या आप बंगाली हैं?' मैंने कहा, कलकत्ता से आया हूँ, पर बंगाली नहीं हूँ।' उत्तर प्रदेश का अपना जिला और मध्य प्रदेश का अपना स्थान बताना पड़ा, तब बंगाली महोदय ने बड़ी लगन के साथ हमारी बातें सुनीं क्योंकि दक्षिण में बंगाली भी अपने को उत्तर भारतीय ही समझते हैं। उन्होंने हमारे लिए सरकारी मोटर की व्यवस्था कर दी और विश्वनाथ अय्यर का पता न बताकर भास्करन नायर के घर का पता बता दिया। खैरियत यह हुई कि दोनों के घर एक ही गली में थे। लोगों से पूछने-पाछते हम अय्यरजी के मकान पर पहुँच गए। पहली बार ही ज्ञात हुआ कि त्रिवेंद्रम में लोग अँग्रेजी कम और हिंदी उससे अधिक जानते हैं। जिस किसी से अँग्रेजी में बात की, चेहरा संदिग्ध पाया। मलयालम हम जानते न थे। विश्वनाथ जी से मिलते ही यह रहस्य ज्ञात हुआ कि उनके मुहल्ले में हिंदी का प्रचार अँग्रेजी की अपेक्षा अधिक क्यों है? वह मुहल्ला अध्यापकों का था - ट्यूटर्स लेन, जहाँ अध्यापकों के लड़के-लडकियाँ स्कूल में अनिवार्य रूप में हिंदी पढ़ रहे है। इस पहली जानकारी से हमारा आधा भार हल्का हो गया क्योंकि हमने देखा कि हिंदी के प्रति सद्भावना उत्पन्न करने की भूमि यहाँ पहले से ही तैयार हो चुकी है। जोती हुई भूमि को जोतना आवश्यक नहीं होता। श्री विश्वनाथ अय्यर से ज्ञात हुआ कि तार उन्हें अब तक नहीं मिला। मैं समझ गया कि यह रोग सार्वदेशिक है और भोजन से निवृत्त होकर डाक बंगले की ओर चला, जहाँ हम लोग ठहराए जाने वाले थे। रास्ते-भर सड़कों के किनारे, मकानों के भीतर-बाहर नारियल के लंबे-लंबे पेड़, केले के बगीचे, सुपारी और इलायची के वृक्षों से सारा नगर आच्छादित दीखा। छोटे-मोटे मकान तो दीखते ही न थे। यह निश्चय करना कठिन था कि यह वृक्षावली प्रकृति की दी हुई है या मनुष्यों की लगाई हुई; यह कल्पना भी नहीं होती कि मनुष्य इतने पेड़ कैसे लगा सकता है! पर विश्वनाथ जी ने बताया कि ये सब के सब पेड़ यहाँ के निवासियों के ही लगाए हुए हैं। यहाँ हमारी इच्छा के विरुद्ध कोई चीज पनप नहीं सकती। मनुष्य-जाति की इस अपार कार्यक्षमता को देखकर हम चकित रह गए।
सभी तीर्थस्थानों में हिंदी जानने वाले और बोलने वाले लोग मिल जाते हैं, चाहे वे देश के किसी छोर पर हों। कन्याकुमारी में भी यही बात दिखाई दी। एक सात-आठ वर्ष का बालक जो संध्या से ही हमारे साथ लगा हुआ था, हिंदी में धड़ल्ले से बातें कर रहा था। वह हमें आसपास के सभी दर्शनीय स्थानों का परिचय देने को उत्सुक था। यात्रियों को घुमा-फिराकर दिखाना ही उनकी आजीविका थी। साढ़े सात बजे कन्याकुमारी से चलकर हम तीनों रास्ते में पड़ने वाले एक अन्य विशाल मंदिर शुचींद्रम का दर्शन करते हुए और द्रविड़ कजगम पार्टी वाले एक ऊँचे पहाड़ की लंबी चट्टान से जुड़ा था, नौ-साढ़े नौ बजे त्रिवेंद्रम के अपने डाक बंगले वापस आ गए।
27 से 30 अगस्त तक चार दिन त्रिवेंद्रम में रहा। वहाँ के अनेक कॉलेजों में पुरुष-छात्रों और महिला-छात्राओं के बीच भाषण दिए। उन संस्थाओं के अधिकारियों, अध्यापकों और अन्य कार्यकर्ताओं से मिला। नगर का प्रसिद्ध संग्रहालय देखा। मलयालम के बृहत् कोश-कार्यालय में गया और उसके प्रधान संपादक श्री सूर्यनाड कुंजन पिल्लई से बातचीत की। विश्वविद्यालय के बृहत् पुस्तकालय में घूमा जहाँ सांस्कृतिक जीवन से परिचित हुआ। तिरुअनंतपुरम की हिंदी प्रचार-सभा और द.भा.हि.प्र. सभा के तिरुवितांकुर कार्यालय जाकर सभी कार्यकर्ताओं से भेंट की। अंततः केरल सरकार के शासकीय अधिकारियों से भी परिचित हुआ। इस प्रकार केरल की राजधानी में चार दिन रहकर जो कुछ जाना सकता है और जो कुछ जानने के योग्य है, उसे जानने की चेष्टा की।
क्रिश्चियन कॉलेजों में अधिकारीगण हिंदी के प्रति अभी भी पूरी तरह सहृदय नहीं हो पाए हैं, पर विद्यार्थियों और विद्यार्थिनियों में उतना की उत्साह और तत्परता दिखी, जितनी किसी अन्य कॉलेज में। नई और पुरानी पीढ़ियों का विचार-भेद इन क्रिश्चियन कॉलेजों में स्पष्टता से दिखाई दिया। मार आइवानिस कॉलेज में हमारी सभा की अध्यक्षता आर्चविशप ने की थी। विशप तथा दूसरे धार्मिक अधिकारी भी उपस्थित थे। आर्चबिशप श्री ग्रिगेरियस महोदय ने विद्यार्थियों की कठिनाइयों का उल्लेख करते हुए यह शिकायत की कि नए पाठ्यक्रम में तीन-तीन, चार-चार भाषाएँ रखी गई हैं। यह शैक्षणिक दृष्टि से विद्यार्थियों की वय को देखते हुए असमीचीन है। उनका संकेत यह था कि अँग्रेजी तो पाठ्यक्रम में अवश्य रहे पर हिंदी, संस्कृत और मलयालम में से कोई दो निकल दी जाएँ। यह सब कहते हुए उनकी मुद्रा से यह स्पष्ट हो रहा था कि वे समय की गति और आवश्यकता को रोकने का निष्फल प्रयत्न कर रहे हैं। मेरे भाषण के पश्चात विद्यार्थियों की जोश-भरी करतल-ध्वनि ने उन्हें सूचना दे दी कि उनके तर्क और सिद्धांत नई पीढ़ी के हृदय में स्थान नहीं पा रहे हैं। राष्ट्र-जीवन में ऐसे समय आते हैं जब सिद्धांत की अपेक्षा आवश्यकता का प्रश्न प्रमुख हो जाता है; और अपने देश में वैसा ही समय आज चल रहा है।
व्यवहार और शिष्टाचार में क्रिश्चियन संस्थाओं के अधिकारों किसी से भी होड़ ले सकते हैं, यह बात उनके कॉलेजों में जाने पर प्रत्यक्ष हो गई। शासकीय या सरकारी नीतियों और आदर्शों के प्रति मन में चाहें जितनी वितृष्णा हो, प्रयोग और अनुवर्तन में उनकी पूरी पाबंदी की जाती है। केरल के प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता श्री पद्मनाभन (जो कुछ दिनों से राजनीति में भी सुनाई देने लगे हैं) के उद्योग से वहाँ का प्रसिद्ध महात्मा गांधी कॉलेज बहुत बड़ा शैक्षणिक केंद्र बन गया है। प्रिंसिपल महोदय भी गांधीवादी कार्यकर्ता हैं। बड़े त्याग और मनोयोग के इस संस्था को चला रहे हैं। कृष्ण और अर्जुन की भाँति ये दोनों सज्जन क्रिश्चियन कॉलेजों की होड़ में एक महाभारत ही लड़ते रहे हैं। क्या ही अच्छा होता यदि वे राजनीति से अलग रहकर अपने शैक्षणिक महा-अभिमान में संलग्न रहते!
यूनिवर्सिटी कॉलेज की गतिविधि एक तीसरे ही प्रकार की थी। स्नातकोत्तर अध्यापन का कार्य इसी कॉलेज में केंद्रित होने के कारण यहाँ के वातावरण में एक विशिष्ट अहं-भावना दिखाई दे रही थी। सरकारी कॉलेज होने के कारण अध्यापकों का वैयक्तिक और मानसिक संस्पर्श कुछ हल्का-सा कार्यों में लगे थे, पर किसी केंद्रीय संचालन-शक्ति या उद्देश्य का परिचय कम ही मिला। कदाचित शासकीय संस्थाओं की यह एक अनिवार्य कमी हो। यहीं संयोगवश एक साथ दो-दो भास्करन नायरों से भेंट हो गई! एक प्रिंसिपल और दूसरे हिंदी विभाग के अध्यक्ष - दोनों ही हमारी सभा के संयोजक-संचालक थे। प्रिंसिपल भास्करन हिंदी से प्रायः अनभिज्ञ थे और जान पड़ता था कि किसी नियतिचक्र में पड़कर के सभा से पहले नायर जी का जो आज अपना दिन था। उनकी उत्फुल्लता से पहले नायर जी को मन ही मन कुछ आक्रोश-सा हो रहा था। तुलसीदासजी ने ऐसे ही संयोग पर लक्ष्य करके 'सम प्रकास तम पाख दुहु नाम भेद बिधि कीन्ह, ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह' की उक्ति कही होगी।
इस कॉलेज में स्नातकोत्तर हिंदी छात्रों से मिलकर और उनके साहित्य-संबंधी प्रश्नों को सुनकर मुझे यह आश्वासन मिला कि छात्र और छात्राएँ अपनी साहित्यिक जिज्ञासा में अपने समकक्ष किसी अन्य प्रदेश के विद्यार्थियों से कम नहीं हैं। उनकी इच्छा थी कि उनकी कक्षा में स्वतंत्र रूप से साहित्यिक विषय पर मेरा भाषण हो। पर समयाभाव के कारण उसकी पूर्ति नहीं की जा सकी। एक संयुक्त गोष्ठी में ही मुझे कुछ देर बोलने को अवसर मिला। इतने से तृप्ति न होने पर उनमें से कुछ से संबंधित अनेक विषयों पर बातें करते रहे। ऐसा जान पड़ा कि हिंदी साहित्य-संबंधी अनेक विषयों पर बातें करते रहे। ऐसा जान पड़ा कि हिंदी साहित्य-संबंधी उनकी ज्ञान-तृष्णा स्थानिक साधना से पूरी तरह प्रशमित नहीं हो पाती, कदाचित् इसीलिए यहाँ के स्नातकोत्तर विद्यार्थी उत्तर भारत के हिंदी विभागों में जाकर पढ़ने की अपनी प्रबल इच्छा व्यक्त कर रहे थे। त्रिवेंद्रम में महिलाओं के कॉलेज एकाधिक हैं। डिग्री कॉलेज में सहस्राधिक छात्राएँ पढ़ती हैं। उनकी सभा में जब मैंने पार्वती-परिणय आख्यान के बहाने केरल की महिलाओं द्वारा हिंदी के वरण करने की बात कही, तब वे सब की सब छात्राएँ इतनी उल्फुल्ल थीं, मानो अपने को पार्वती ही मानने लगी हों। अक्सर महिलाएँ पुरानी परंपरा से विच्छिन्न नहीं होतीं, पुरुष भले ही हो जाएँ। पर केरल के नए प्रवर्तन को केरल के नवीन नारी-समाज ने खुले दिल से अपना लिया है। शिक्षा-संस्थाओं के अतिरिक्त केरल की सांस्कृतिक अभिरुचियाँ त्रिवेंद्रम के प्रसिद्ध कला-संग्रहालय, नवीन कोश कार्यालय और प्राचीन पांडुलिपियों के बृहत् ग्रंथागार के रूप में अभिव्यक्त हुई हैं। समय की कमी के कारण हम पूरे संग्रहालय को नहीं देख सके। पर रवि वर्मा से लेकर अद्यतन चित्रशिल्पियों की प्रायः सारी रचनाएँ देखीं। बीसवीं शती के आरंभ के कला-आंदोलन के प्रवर्तक अवनींद्रनाथ ठाकुर और उनके शिष्य-प्रशिष्यों के कुछ प्रतिनिधि चित्र संगृहीत थे। पूरी आकृति के तैलचित्रों की भी बड़ी संख्या थी। मासिक पत्रिकाओं और अन्यत्र इन चित्रों की जो प्रतिलिपियाँ हम देखते हैं, उनसे कलाकारों की तूलिका की पूरी पहचान नहीं हो पाती। छपे कागज पर सूक्ष्म संकेत आ ही नहीं सकते। एक मोटी प्रतिच्छायामात्र दीख पड़ती है। इस संग्रहालय में अनेकानेक चित्रकारों द्वारा रचे मौलिक चित्र देखकर दूसरे ही प्रकार की कलाभिज्ञता प्राप्त होती है। यद्यापि रवि वर्मा के चित्रों में राज-परिवार के पुरुषों और नारियों की आकृतियाँ ही अधिक अंकित हुई हैं। परंतु नवीन सौदर्यं और नव-जीवन की कल्पना भी उनके बनाए चित्रों में व्यंजित हुई है। रवि वर्मा केरल के ही निवासी थे, अतएव उनके चित्रों में केरलीय आकृतियाँ अधिक पाई जाती हैं।
मलयालम के अभिनव कोश-विभाग में श्री सूर्यनाड कुंजन पिल्लई और उनके साथियों से मिलने पर ज्ञात हुआ कि कितना संगठित प्रयास कोश-निर्माण के निमित्त किया जा रहा है। संस्कृत और द्रविड़ भाषाओं की समस्त मौलिक कृतियाँ और कोश एकत्र करके मलयालम भाषा की सहस्रों प्राचीन पांडुलिपियों के आधार पर यह कोष बनाया जा रहा है। श्री पिल्लई मुख्यतः संस्कृत के पंडित हैं। इसलिए देशभाषा मलयालम के संबंध में उनके विचार उनकी संसकृतज्ञता से अनुशासित हैं। उनका कथन था कि सारी मौलिकता संस्कृत में है, मलयालम साहित्य में संस्कृत की मूल वस्तु का प्रसार-प्रस्तार किया गया है। मलयालम साहित्य मे इसीलिए अलंकरण की प्रधानता है। मैं उनके ये विचार सुनकर चकित रह गया क्योंकि हिंदी और संस्कृत-साहित्यों की तुलना करते हुए उत्तर भारत के किसी भी पंडित ने ऐसी बात नहीं कही थी। देश-भाषाओं का साहित्य संस्कृत-साहित्य से प्रकृत्या भिन्न है, यह बात विशेषज्ञों से छिपी नहीं। न केवल सामाजिक परिवर्तनों के कारण, बल्कि जनता के अधिक समीप रहने के कारण देश-भाषाओं में जन-जीवन की जो शक्तियों हैं, सामान्य मनुष्य के सुख-दुखों और आशा-आकांक्षाओं का जो तलवर्ती चित्रण है, गति और लय की जो नैसर्गिकता है, वह पांडित्य-प्रचुर संस्कृत साहित्य में विरल ही कही जाएगी। यद्यपि मलयालम से परिचित न होने के कारण मैं पिल्लई जी को अधिकारपूर्वक उत्तर न दे सका, पर जिन देश-भाषाओं से मेरा परिचय है, उनके आधार पर अपने कई भाषणों में मैंने पिल्लईजी द्वारा प्रवर्तित इस तथ्य पर संदेह प्रकट किया। यदि पिल्लई जी के वक्तव्य को प्रामाणिक मान लिया जाए तो यह भी मानना पड़ेगा कि पिछले एक सहस्र वर्षों में भारतीय समाज और जीवन में कोई नवीनता आई ही नहीं। पर ऐसा मानना इतिहास और समाजशास्त्र के मौलिक नियमों के विपरीत जाना होगा। पुस्तकालय के अध्यक्ष महोदय अभी-अभी यूरोप से लौटे थे। वे उसे नई व्यवस्था देने में व्यस्त थे, इसलिए जल्दी-जल्दी में, बिना प्राचीन प्रतियों की बैठनें खोले, मैंने उनकी सहायता से पुस्तकाल की परिक्रमा कर ली। यह आभास तो मिला ही कि सैकड़ों वर्षों तक शोधकार्य करने के लिए यहाँ सामग्री उपलब्ध है। जातीय साहित्य का इतना बड़ा संग्रहालय मैंने इसके पहले किसी एक स्थान पर नहीं देखा था। हिंदी-प्रसार-संबंधी दो प्रतियोगी और प्रतिस्पर्द्धी संस्थाएँ कायम हो जाने से हिंदी के प्रचार-कार्य की गति कुछ विलक्षण हो गई है। एक-दूसरे से होड़ करती हुई ये दोनों संस्थाएँ क्रमश: श्री गोविंद मेनन और श्री के. वासुदेवन पिल्लई के नायकत्व में संचालित हो रही हैं। दोनों ही पुराने और कर्मठ कार्यकर्ता हैं और किसी समय बड़े मित्र भी थे। अब भी वे मित्र हैं और साथ-साथ घूमते हैं, पर दिन के समय नहीं। दिन में द्वंद्व रहता है, रात्रि में मिलाप होता है। महाभारत के युद्ध में भी रात्रि के समय कौरव और पांडव नेता एक-दूसरे से मिलते रहते थे। वही स्थिति यहाँ भी थी। श्री गोविंद मेनन और श्री वासुदेवन पिल्लई कर्ण और अर्जुन के समान अपनी-अपनी विद्याओं में पारंगत है। मुझे ऐसा जान पड़ा कि द.भा.हि.प्र. सभा अपने पुराने कार्यकर्ताओं को संतुष्ट रखना नहीं जानती। यदि वह जानती होती तो इस दूसरी संस्था का उदय की क्यों होता? पर कदाचित यह भी सत्य है कि परिवार बढ़ने पर सम्मिलित कुटुंब टूटता ही है और नई इकाइयाँ बनती ही हैं। पर मेरा अपना अनुभव यह हुआ कि एक ही संख्या के माध्यम से त्रिवेंद्रम का सारा हिंदी-प्रचार कार्य चलाया जाता तो अधिक अच्छा था। केरल प्रदेश की अपनी सद्भावना-यात्रा में सहायक शासकीय अधिकारियोंका नामोल्लेख करना भी आवश्यक है। मेरी सबसे पहली मानसिक प्रतिक्रिया यह हुई कि शासन के अधिकारी हमें हर प्रकार से मदद करने को समुत्सुक हैं। शिक्षा-विभाग के ज्वाइंट सेक्रेटरी के कक्ष में प्रवेश करते ही युवक संयुक्त सचिव ने जिस तत्परता से हमारा स्वागत किया और जितने थोड़े समय में श्री विश्वनाथ अय्यर (जो स्वयं सरकारी शिक्षक हैं) को हमारी यात्रा में हमारे साथ रहने की अनुमति दे दी, ऑफिस-सुपरिटेंडेंट को पत्र लिख दिया कि छुट्टी दे दी जाए, वे उनकी सहयोग-भावना के ही परिचायक थे। कुछ छोटे-छोटे प्रश्न पूछकर और उनके दो-दो वाक्यों में उत्तर पाकर उन्होंने मुझे विदा दी। दूसरे अधिकारी श्री केश्वा मेनन, कॉलेजों के डाइरेक्टर हैं। वे तो मुझसे मिलने को उत्सुक ही बैठे थे। केरल के हिंदी प्रसार-कार्य में उनका वैयक्तिक योग भी रहा है। मुझसे मिलने पर उन्होंने प्रस्ताव किया कि मैं अपनी यात्रा में सरकारी कार का उपयोग करूँ। शायद उन्होंने इसकी व्यवस्था भी कर ली थी। पर नियत समय पर हमें अपना विचार बदलना पड़ा। हम लोगों ने किराए की टैक्सी और ट्रेन से, जहाँ जैसी सुविधा हो, जाने का निश्चय किया और तदनुसार सरकारी सवारी का उपयोग छोड़ दिया। किंतु सरकारी अफसरों में सबसे अधिक गैर-सरकारी अर्थात् स्वतंत्र, श्री केशवन नायर थे जो केरल प्रदेश के प्रदेश के हिंदी विशेषाधिकारी (हिंदी स्पेशल ऑफीसर) हैं। नायर जी ऐसे व्यक्ति हैं - स्पष्टभाषी और निर्द्वंद्व कर्मठ और लगन के पक्के; हिंदी का अनुराग रग-रग में भरे हुए, अच्छे वक्ता, व्याख्याता और तार्किक; सहृदय, विनोद मित्र और साथी। क्या-क्या विशेषण दिए जाएँ - श्री केशवन नायर अपेन में एक संस्था ही हैं। सारा केरल, जहाँ - श्री केशवन नायर अपने में एक संस्था ही हैं। चौदह वर्ष की अवस्था से ही वे केरल के हिंदी-प्रचारक बन गए और आज उनकी चौवन वर्ष की अवस्था है। इन चालीस वर्षों मे हिंदी-प्रेमियों और प्रचारकों की दो पीढ़ियाँ श्री नायर जी देख चुके हैं; इस दृष्टि में दादा भी हैं। श्री नायर काम करना और काम लेना जानते हैं। किसी प्रकार का लंगड़ा तर्क या बहाना उन्हें क्रुद्ध और उद्विग्न बना देता है। घटना मेरे सामने की है। पालघाट के एक कॉलेज के अध्यापक से जो छात्रवास के वार्डन भी थे, चाय की व्यवस्था करने को कहा गया। वे छात्रावास की ओर गए और आधे घंटे में लौटे। बोले कि चाय की व्यवस्था मैं नहीं कर पाया क्योंकि छात्रावास में चाय नहीं, कॉफी पी जाती है, विशेष रूप से चाय बनाना एक अनैतिक कार्य होगा। अनैतिकता की इस लंगड़ी दलील को सुनकर नायरजी उबल पड़े। उन्होंने आधे घंटे तक उस युवक को ऐसी-ऐसी फटकार सुनाई कि उसे छठी का दूध याद आ गया, और अंत में नायर जी ने हम लोगों को बाजार से चाय पिलाई। उनके संबंध में और भी कुछ कहने का अवसर इस निबंध में आगे मिलेगा। सेक्रेटेरियट, शिक्षा विभाग के सुपरिटेंडेंट महोदय तथा अन्य कतिपय कार्यकर्ताओं से भेंट हुई। मेरी इच्छा श्री ई.एम.एस. नंबूदरिपाद से मिलने की भी थी, पर संयोगवश वे उन दिनों अमृतसर गए हुए थे। कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि मैं राज्यपाल श्री बी. रामकृष्णराव से मिलूँ, पर यह सुझाव मुझे पसंद न आया। 30 अगस्त को त्रिवेंद्रम से विदा होकर हम चार लोग (मैं, नायर जी, विश्वनाथ अय्यर और नि.स. बलभद्र तिवारी) टैक्सी से क्विलान को रवाना हुए। त्रिवेंद्रम के चार-पाँच दिन ऐसे बीते कि समय का पता ही न लगा। कार्य इतना किया, पर परिमाण का बोध न हो पाया। जलवायु इतनी सुंदर थी कि थकान का नाम न था। ये तो सारा केरल ही एक विशाल उद्यान है, किंतु त्रिवेंद्रम उस उद्यान का हृदयेश है। दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ते हुए हमने यह अनुभव किया कि दक्षिण केरल उत्तर की अपेक्षा कहीं अधिक हरा-भरा है। यही नहीं, समशीतोष्ण भी है। नगर छोड़कर जब हम पक्की सड़क से आगे बढ़े, मकानों की कतारें सड़क के जाता तो उसके आसपास की वृक्षावली अधिक सघन और पंक्तिबद्ध दीखती थी। रास्ते में एक दृश्य ऐसा मिला, जहाँ दूर तक खेत फैले हुए थे। धान के लहलहाते खेतों को घेरे हुए खूब ऊँचे ओर घने नारियल के पेड़ उस शस्यपूरित भूमि के प्रहरी-से प्रतीत होते थे। ऐसा जान पड़ता था कि वनराज ने अपने क्रोड़ में इन हरे खेतों का प्रेम से चिपका रखा था। लंबे-लंबे जलाशय भी बीच-बीच में दिखाई दिए। कुछ ही देर में हम बड़कला पहुँचे, जहाँ एक प्राचीन मंदिर संस्थापित है। यह जगन्नाथजी का मंदिर कहा जाता है। मंदिर छोटा है, पर अपनी प्राचीन कला के कारण विशेष द्रष्टव्य बन गया है। हम लोगों ने मंदिरों में जाकर देवमूर्तियों के दर्शन किए। श्रीकेशवन नायर में आर्यसमाजीपन का प्रभाव अब भी शेष है, इसलिए वे टैक्सी में ही बैठे रहे। पर इस आर्यसमाजीपन का प्रतिफल उन्हें शीघ्र ही चुकाना पड़ा। पास ही समुद्र लहरा रहा था। उसे देखने गए तो जूते उतारकर थोड़ी दूर समुद्र-जल में चले। वहाँ से निकले तो सीधे टैक्सी में बैठ गए। जूते उनके समुद्र-तट पर ही रह गए। हम लोगों ने बहुत कहा कि देखिए, देव-अवज्ञा का परिणाम तत्काल मिल गया, अब भी जाइए, मंदिर के दर्शन कीजिए और समुद्र से जूते माँग लाइए। पर तब तक हमारी टैक्सी एक मील आगे जा चुकी थी। नायर जी में जिद अब भी कुछ शेष है। उन्होंने जूते लाने से इनकार कर दिया। हम लोग रास्ते-भर उन्हें जूतों की याद दिलाने रहे। थोड़ी देर में बड़कला के प्रसिद्ध आश्रम में पहुँचे, जहाँ एक संन्यासी आनंदजी अपने शिष्यों और साथियों के साथ रहा करते हैं। यह आश्रम एक ऊँची पहाड़ी पर संस्थित होने के कारण अतिशय रमणीक है। संन्यासी जी आसपास के इलाके में बहुत प्रसिद्ध हैं। समाज-सेवा का व्रत ले रखा है। इनका एक कार्य सामूहिक विवाह कराना है। बीसियों जोड़ी स्त्री-पुरुष विवाह के लिए एकत्र दिखाई दिए। बिना दान-दक्षिण और पूजा-पाठ के स्वामीजी एकाध मंत्र पढ़कर विवाह करा देते हैं। स्वामीजी इस समय एक बड़े मुकदमें में फँसे हुए थे; शायद उत्तराधिकारी का मुकदमा था। हम लोगों ने उनका अधिक समय नष्ट उचित न समझा और जलपान करके चलते बने। दो बजे में हम क्विलान पहूँचे। नायर जी वहाँ के पूर्ण प्रकाश होटल से परिचित थे। वहीं हम लोग उतरे। पर कमरे में पहुँचने पर जब दिन में ही मच्छर सताने लगे तो हम लोग पूर्ण प्रकाश की वंदना कर डाक बंगले में जा ठहरे। मैं और श्री तिवारी डाक बंगले चले गए और अय्यर तथा नायर पूर्ण प्रकाश में ही विश्राम करते रहे।
क्विलान के श्री नारायण कॉलेज और फातिमा कॉलेज अधिक प्रसिद्ध हैं। हम उन दोनों संस्थाओं में गए और वहाँ के हिंदी के विद्यार्थियों की सभा में भाषण दिए। श्रीनारायण कॉलेज के प्रिंसिपल महोदय श्री भट्टजी हिंदी के पुराने प्रेमी निकले। इस नाते वे नायरजी के पुराने मित्र भी थे। वहाँ के हिंदी-विभाग के अध्यक्ष के उच्चारण में थोड़ी-सी विलक्षणता थी। कुछ तुतलाते थे और 'मैंने यहाँ-वहाँ जाकर' के बदले में 'मैंमने यहाँम-वहाँम जाकर' बोलते थे। अनुस्वाराधिक्य से उनकी वाणी में माधुर्य तो अधिक था, पर स्पष्टता कम थी। इस कॉलेज के विद्यार्थी खुले मैदान में खड़े-खड़े हमारा भाषण सुन रहे थे। फुहारें पड़ने लगीं, तब भी खड़े रहें; बूँदें गिरने लगीं, तब भी खड़े रहे; पानी बरसने लगा, फिर भी हटे नहीं। फातिमा कॉलेज क्रिश्चियन लोंगो की संस्था है। क्रिश्चियन संस्थाओं में घंटियाँ अधिक बजती हैं, वह मैं पहले से ही जानता था। (मैं भी क्रिश्चियन कॉलेज का छात्र हजारीबाग में रह चुका हूँ।) यहाँ भी उसकी पुष्टि हुई। जब घंटियों का अर्थ समझने से हमने इनकार किया, तब प्रिंसिपल महोदय में बताया कि घंटी बज गई है, लड़के एकत्र हैं, हॉल में चलिए। मैंने उनसे पूछा कि यह कहीं आपकी प्रार्थना की घंटी तो नहीं है? उन्होंने विश्वास दिलाया कि यह घंटी दूसरे प्रकार की है। उसी दिन संध्या को हम लोग क्विलान के समुद्र-तट पर गए और एक यात्री-स्टीमर पर बैठाकर चार-छह मील समुद्र की यात्रा की। यह समुद्र एक बड़ी नहर-सा दिखाई दिया। उसके दोनों छोरों पर इतने घने और ऊँचे पेड़ों का दृश्य था कि संध्या समय वे छोरों पर फैलों हुई ऊँची दीवार या छोटी पहाड़ी का भ्रम उत्पन्न कर रहे थे। घंटे-भर मैं जब हम लौटे, अँधेरा हो चुका था। लोगों ने बताया कि समुद्र की यह चौड़ी नहर त्रिवेंद्रम के आसपास से एरनाकुलम तक चली गई। प्रायः डेढ़ सौ मील लंबी इस नहर में स्टीमरों का ताँता लगा रहता है। प्रायः गरीब यात्री, मछुए और छोटे व्यापारी इन्हीं स्टीमरों का उपयोग कर यात्रा करते और अपना व्यवसाय चलाते हैं। इस जल-यात्रा में उनके बहुत कम पैसे लगते हैं। इसलिए यह रास्ता बहुतायत से उपयोग में लाया जाता है।
यहाँ के हिंदी-शिक्षक श्री दामादर प्रसाद, श्री कुर्यन और श्री नारायण आदि डाक बंगले में मिलकर अपने पी-एच.डी के शोधकार्य के विषय में चर्चा करते रहे। सबका आशय यही था कि सागर विश्वविद्यालय में उनके नाम हिंदी शोध-विद्यार्थियों के रूप में दर्ज कर लिए जाएँ। क्विलान से एक सितंबर को प्रातःकाल ट्रेन से रवाना होकर हम दिन में चंगानूर और दोपहर को चंगनाचेरी पहुँच गए। चंगानूर में हिंदी कॉलेज नाम की एक प्राइवेट संस्था है। यहाँ केवल हिंदी की पढ़ाई की जाती है। इस कॉलेज के अध्यापक इसलिए खिन्न थे कि वे जिन परीक्षाओं के लिए छात्र-छात्राओं को तैयार करते हैं, उनकी मान्यता समाप्त होने वाली है। पढ़ाई का स्तर काफी अच्छा था। इसका प्रमाण इस बात से मिला कि 'प्रसाद' की इन पंक्तियों का अर्थ पूछने पर, बाँधा था शशि को किसने, इन काली जंजीरों से? मणिवाले फणियों का मुख क्यों भरा हुआ हीरों से?
एकत्रित छात्राओं ने अर्थ भी बताया और प्रयुक्त अलंकारों का भी उल्लेख किया। उत्तर भारत के इस कक्षा के विद्यार्थियों से भी इससे अधिक की आशा नहीं की जाती। चंगनाचेरी क्रिश्चियनों की बस्ती है। काफी बड़ा और सुंदर शहर है। यहाँ के दोनों क्रिश्चियन कॉलेज एक ही समिति के द्वारा संचालित किए जाते हैं। एक में लड़कियाँ पढ़ती हैं और दूसरे में लड़के के कॉलेज में लड़कियाँ भी आई और वहीं हमारी सभा हुई। बड़े हॉल में एक सहस्र से अधिक विद्यार्थियों के बीच हमारा भाषण हुआ। हमने देखा कि विद्यार्थी चाह हमारी सारी बातें न समझ पाते हो परंतु भाषा और उसके उच्चारण से वे पूरी तरह आकृष्ट रहते थे। जब किसी वस्तु में नवीनता होती है तब उसका आशय स्पष्ट न होने पर भी यह हमें प्रिय लगती है। हमारी भाषा और उच्चारण की नवीनता यही काम कर रही थी। चंगनाचेरी में रात बिताई। हम लोग कॉलेज के ही अतिथि-भवन में ठहराए गए थे जो छोटा किंतु बड़ा भव्य था।
रात्रि को हम लोग उक्त कॉलेज के संस्कृत-अध्यापक के घर उनके आमंत्रण पर गए। सड़क से दूर खेतों में उतरकर उन्होंने अपना मकान बनवाया था। रात के अँधेरी में यहाँ कठिन हो गया। नायर जी खीझकर वापस आने को हुए परंतु हममें धैर्य अधिक था। इसलिए कीचड़ और पानी-भरी पगडंकी पर धोती के का परिचय तो बड़े मनोयोग से कराया, पर जब पत्नी सामने आई तब बोले, 'she is supposed to be my life', शिष्टाचारवश हमने तो उनका वक्तत्य सुन लिया, पर नायर जी से न रहा गया। उन्होंने कहा, 'If she is your supposed wife, where is your real wife?', वे हतप्रभ तो हुए, पर कुछ बोले नहीं। उन्होंने अपने इस नवनिर्मित गृह का कोना-कोना दिखाया, ऊपर-नीचे ले गए। घर का कुआँ, पशुशाला, सबके दर्शन कराए। रात को दस बजे उनके घर से लौटे। लौटकर कॉलेज के अतिथि-भवन में तो गए और प्रातःकाल टैक्सी लेकर कोटैम की और रवाना हुए। प्रातःकाल की सुख-स्पर्श वायु का टैक्सी की द्रुतगति के साथ आमोद लेते हुए हम लोग दो घंटे में चंगनाचेरी से कोटैम पहुँच गए। वहाँ के महिला कॉलेज में दस बजे दिन से हमारे भाषण की व्यवस्था की गई थी। ठीक समय पर सात-आठ सौ छात्राओं का समूह कॉलेज के बड़े हॉल में एकत्रित हो गया। एक ही पोशाक, एक ही प्रकार की सज्जा, खिले हुए चेहरे-देश की नई पीढ़ी के लिए उज्ज्वल संभावना के प्रतीक थे। केरल के नारी-समाज में किसी प्रकार का हीनता-भाव नहीं दिखाई दिया। सभी लड़कियाँ सुसंयत और आत्म-विश्वास से प्रदीप्त दीख रही थीं। मेरा अनुमान है कि ये लड़कियाँ प्रायः सभी सामान्य परिवारों की रही होंगी क्योंकि इनमें अतिरिक्त शौकीनी के कोई लक्षण न थे। जन-गण-मन राष्ट्रगीत का ऐसा सुंदर गायन केरल में अन्यत्र सुनने को नहीं मिला। यद्यपि प्रधानाध्यापिका महोदया अध्यक्ष-पद समासीन थीं, पर कार्यक्रम का संचालन लड़कियाँ और उनकी हिंदी-अध्यापिकाएँ जो अल्पवयस्क ही थीं, कर रही थीं। एंटोनी और पोर्शिया का आख्यान सुनाते हुए मैंने हिंदी एंटोनी की वकालत करने वाली केरल-पोर्शिया की कहानी कही। शाहलाक के रूप में हिंदी की अग्नि-परीक्षा लेकर भी उसका विरोध करने वाले कुछ विशिष्ट व्यक्तियों का उल्लेख किया। हमारी पोर्शिया के पास उससे कम तर्क न थे, जितने शेक्सपीयर के पास थे। (एंटोनी का फैसला किसी साधारण इजलास में हुआ होगा, हमारी हिंदी का भाग्य-निर्णय भारतीय सुप्रीम कोर्ट में किया गया था जो वस्तुतः लोकमत का न्यायालय भी कहा जा सकता है।) तर्कों की लड़ियाँ एक के बाद दूसरी प्रस्तुत की जा रही थी, जिन्हें सुन-सुनकर कॉलेज की लड़कियाँ खूब प्रसन्न हो रही थीं, मानो वे सचमुच पोर्शिया बन गई हों। इन बालिकाओं खूब प्रसन्न हो रही थीं कि हिंदी को राष्ट्रीय चेतना का प्रतीक मानकर ये उसका हृदय से समर्थन कर रही थीं।
घंटे भर बाद हम कोटैम से विदा हुए और वहाँ से बारह मील दूर श्री केशवन नायर के ग्राम एट्टिमनूर पहुँचे, जहाँ उन्होंने अपना नया मकान बनवाया है। पंद्रह-बीस हजार की लागत का यह छोटा-सा मकान बड़े बगीचे, खेत और जलाशय से वेष्टित है। इसी के बगल में दूसरा मकान है जहाँ नायर जी की बहन और उनके बहनोई आदि रहते हैं।
श्रीमती नायर के संबंध में नायर जी ने हमें पहले से ही चेतावनी दे रखी थी कि प्रथम दर्शन में हम नायर जी की माँ न समझ बैठें। बात यह है कि नायर जी के सारे बाल चौवन वर्ष में भी काले बने हैं, जबकि उनकी पत्नी के श्वेत हो चुके हैं। परंतु जब हमने श्रीमती नायर को देखा तो हमें इस प्रकार का कोई भ्रम नही हुआ। श्रीमती नायर भी शिक्षित महिला हैं और त्रिवेंद्रम के एक स्कूल में अध्यापन का कार्य करती हैं। ये हमारे सुवास के लिए एक रात पहले ही त्रिवेंद्रम से अपने घर पहुँची थीं। बातचीत के सिलसिले में नायरजी को यह ज्ञात हो गया था कि इस वर्ष दो सितंबर को भाद्रपद अमावस्या के दिन मेरा जन्म-दिन पड़ रहा है। उन्होंने उसी समय कहा था कि इस बार आपका जन्म-दिन हमारे घर पर मनाया जाएगा। एट्टिमनूर पहुँचते ही हमने देखा कि इस प्रशांत वातावरण में हलचल-रहित जन्म-दिन मनाने की तैयारी की जा चुकी है। नायर जी के बगीचे में हम लोगों के कई चित्र लिए गए और अब उनके ग्रामीण मित्रों और परिवार-जनों का समुदाय एक-एक करके हम लोगों से मिलने आने लगा। केरल का सर्वश्रेष्ठ भोजन-घर की गाय के घी के साथ, जैसा नायरजी के यहाँ इस दिन बना - मैंने दुबारा केरल में कहीं नहीं पाया। बारह प्रकार के केले, जिनमें से कुछ को पकाकर भी बनाया गया था, हरी सब्जियाँ, मूली (जो केरल में कम दीखती है), सलाद, पायस और दस-बारह प्रकार के सुस्वादु, ताजे और गरम खाद्य बड़े-बड़े केले के पत्तों पर सजाकर रखे गए थे। हम लोगों ने उनका भरपूर उपयोग किया। तिवारी को आज जो तृप्ति मिली, उससे उनका कई दिनों का मुरझाया उपयोग किया। तिवारी को आज जो तृप्ति मिली, उससे उनका कई दिनों का मुरझाया चेहरा खिल पड़ा। केरल के भोजन से मैं तो अपना काम चला लेता था, पर तिवारी को वह फूटी आँखों भी न सुहाता था। आज उसे अपने मन का भोजन मिला। अपराह्न के विश्राम के पश्चात हम लोग टैक्सी पर बैठकर छह मील दूर पालाई गए, जहाँ एक क्रिश्चियन संस्था के द्वारा संचालित स्नातकोत्तर कॉलेज में हमें बुलाया गया था। वहाँ हिंदी में भी एम.ए. की पढ़ाई होती है। यहाँ के हिंदी-विभाग के मुख्य-अध्यापक व्यथित नाम के एक सज्जन हैं। ये पहले उत्तर भारतीय मिले जो केरल में हिंदी-अध्यापक दक्षिण के ही हैं। व्यथित जी की दशा 'जिमि दसन्हि महुँ जीभ विचारी' की-सी जान पड़ी। वे पालाई के वातावरण से काफी असंतुष्ट दीखे। कदाचित इसका कारण यह हो कि व्यथित जी की पत्नी और उनके हिंदी-भाषी परिवार को मेल-जोल के व्यक्ति न मिलते हों अथवा वहाँ के शैक्षणिक वातावरण से उन्हें अपने लिए भविष्य की अच्छी संभावना न दीखती हो। मेरा अनुमान यह भी था कि व्यथित जी की सारी महत्वाकांक्षाएँ जितना परिश्रम चाहती हैं, उतना वे कर नहीं पाते। पालाई के स्नातकोत्तर हिंदी विद्यार्थियों के समक्ष आधे घंटेतक भारतीय साहित्यशास्त्र की मौलिक निष्पत्तियों पर कुछ विचार व्यक्त कर और विद्यार्थियों के प्रश्नों का उत्तर देकर हम बड़ी सभा में पहुँचे, जहाँ कई सौ विद्यार्थी उपस्थित थे। व्यथित जी ने जिस प्रकार हमारा परिचय उक्त सभा में दिया - दुलारे जी का उपनाम देकर पुकार - उससे मेरे इस अनुमान की पुष्टि हुई कि व्यथित जी सचमुच व्यथित हैं।
यहीं पर कॉलेज के प्रिंसिपल और उसके संचालक, विशप श्री के.बी. जोसेफ से भी हमारी भेंट हुई। इन्होंने हमसे केरल विश्वविद्यालय के लिए किसी योग्य वाइसचांसलर का नाम सुझाने की चर्चा की। ये बिशप महोदय विश्वविद्यालय की कार्यकारिणी समिति के एक प्रभावशाली सदस्य हैं, इन्होंने बताया कि श्री जान मथाई जो अब तक वाइसचांसलर रहे हैं, अस्वस्थ होकर बंबई चले गए हैं और उनके लौटने की संभावना नहीं है। मैंने उनसे कहा कि सागर जाकर सोचूँगा और यदि कोई नाम सूझा तो सूचित करूँगा। तब से सागर आए चार महीने हो गए, उन्हें कोई नाम न सुझा सका। इस बीच श्री जान मथाई के निधन की दुःखद सूचना समाचार पत्रों में पढ़ने को मिली।
बिशप महोदय की कार पर हम लोग पालाई से फिर एट्टिमनूर वापस आए और रात को नायर जी के घर पर ही सोए। उनका यह ग्राम-निवास किसी भी साहित्यिक की साहित्य-साधना के लिए आदर्श स्थान है। यदि नायर जी यहाँ एक अच्छा-सा पुस्तकालय भी बना लेते तब तो सोने में सुगंध हो जाती। मैंने उनसे वादा किया है कि या तो कार्याधिक्य से थककर या कोई काम न होने पर एट्टिमनूर के आपके घर पर एक बार अवश्य आऊँगा। कह नहीं सकता कि वह समय कब आएगा?
तीन सितंबर के प्रातःकाल नायर जी के मकान से डेढ़ मील दूर एट्टिमनूर स्टेशन पहुँचे और सात बजे की गाड़ी पर बैठकर नौ बजे दिन एरनाकुलम आए और वहाँ के प्रसिद्ध वुडलैंड होटल में जा ठहरे।
एरनाकुलम त्रिवेंद्रम की अपेक्षा और प्राकृतिक दृष्टि से कम रमणीक नगर है परंतु व्यापार का केंद्र और विशेषकार विदेशी व्यापार का प्रधान अड्डा होने के कारण अधिक संपन्न दीखता है। इसी से लगा हुआ कोचीन का नया बंदरगाह है, जिसे मिलों तक समुद्र को पाट कर बनाया गया है। इस आधुनिक निर्माण में करोड़ों रुपये व्यय हुए हैं, पर इसका परिणाम यह है कि बड़े-बड़े जहाज भी कोचीन के समुद्र-तट पर आते हैं, और नगर तथा प्रवेश को संपन्न बनाते है। यहाँ एरनाकुलम का हवाई अड्डा भी है, जिसमें दिन-रात हवाई जहाज आते और उतरते रहते हैं। हम लोग टैक्सी पर बैठकर इस बंदरगाह को देखने गए। यहाँ कितने ही छोटे-बड़े जहाजों पर माल चढ़ाया और उतारा जा रहा था। कुछ यात्रियों के जहाज भी रहे होंगे, पर पहले से जहाज पर जाने का 'पास' न लेने के कारण हम उन पर न जा सके। एरनाकुलम की शिक्षा-संस्थाओं में वहाँ का महाराज कॉलेज सर्वाधिक प्रसिद्ध है। हिंदी-विभाग के अध्यक्ष - चंद्रहासन जी उस कॉलेज के कार्यकारी प्रिंसिपल भी हैं। श्री चंद्रहासन बड़ी सौम्य प्रकृति के संयत और कार्यदक्ष व्यक्ति हैं। उन्होंने कॉलेज में दो स्थानों में हमारे व्याख्यानों की व्यवस्था की थी - एक तो समस्त विद्यार्थियों के समक्ष बड़े हॉल में और दूसरा स्नातकोत्तर छात्रों के लिए, एक अन्य कक्ष में। दोनों ही अवसरों पर चंद्रहासन जी ने जिस सुचारुता से कार्य-संचालन किया और एक-एक विवरण की वस्तु को जिस सहज भाव से देखा और पहचाना, उससे उनकी अनुभव-प्रवणता का परिचय मिलता है। सागर वापस आने पर चंद्रहासन जी के भेजे हुए सभा में लिए गए कुछ 'स्नैप्स' प्राप्त हुए जिनके निर्माण में सधे हुए हाथों का प्रयोग था। श्री चंद्रहासनजी का सारा व्यक्तित्व गंभीर और कर्तव्य परायणता का उदाहरण कहा जा सकता है।
संध्या समय एरनाकुलम के दक्षिण भारत हिंदी-प्रचार-सभा के भवन में हिंदी कार्यकर्ताओं की बैठक हुई, जिसमें मैं आमंत्रित था। इस बैठक में श्री महालिंगमजी से भी भेंट हुई जो त्रिचनापल्ली-स्थित तमिलनाडु प्रांतीय हिंदी-प्रचार-सभा के महामंत्री हैं। उन्हें केरल का प्रदेश भी प्रचार-व्यवस्था के लिए सौंपा गया है। दक्षिण भारत हिंदी प्रचार-सभा का यह अपना भवन है जिसमें पुस्तकालय, वाचनालय, रंगमंच तथा प्रेक्षागृह आदि का स्थापना की गई है। जब यह भवन पूरा बन जाएगा जब केरल प्रदेश का एक अच्छा साहित्यिक और कला-केंद्र कहलाने का अधिकारी होगा। इस सभा में एक स्थानिक कवि महोदय ने मुझ पर एक कविता भी सुनाई जिसमें छंद का काफी शैथिल्य था, पर उनके हृदय की भावना का सहज उन्मेष उन पंक्तियों में दिखाई देता था। मैंने बड़े संकोच से उस प्रशंसा-गीत को ग्रहण किया और सागर में आने पर उसे बहुत सहेज कर रखा है। संध्या को हम लोग चंद्रहासन जी के घर गए उनकी पत्नी उस समय कुछ रुग्ण थीं। श्री चंद्रहासन के अतिथि-कक्ष में केरलीय कला के कुछ अच्छे नमूने रखे थे। कई सौ वर्ष पुराने केरल की चित्रकला और हस्तकला की निदर्शक कुछ वस्तुएँ भी थी। बहुत ही सुरुचिपूर्ण ढंग से कमरा लजाता गया था। चंद्रहासन जी के घर से चले और रात नौ बजे वुडलैंड होटल में पहुँचकर सो गए। सोने के पहले कई स्नातकोत्तर छात्र अपने हिंदी-अध्ययन आदि के संबंध में प्रासंगिक बातें करने आए थे।
चार सितंबर को प्रातःकाल हम एरनाकुलम से त्रिचूर के लिए टैक्सी पर रवाना हुए। यद्यपि हमारे अन्य साथी सीधे त्रिचूर पहुँचना चाहते थे, पर मैंने सुना था कि हमारे रास्ते से चार मील हटकर कालड़ी नामक नगर है जो शंकाराचार्य का जन्म-स्थान रहा है। इस पुण्य-स्थान को देखे बिना हमारी केरल-यात्रा अधूरी ही रह जाती। इसलिए मैंने आग्रह किया कि हमें कालड़ी चलकर शंकराचार्य की जन्म-भूमि के दर्शन करने ही चाहिए। फलतः हम रास्ते में पड़ने वाले अंकमाली नाकम स्थान से मुड़कर हमारी सड़क पर चले और पंद्रह-बीस मिनट में कालडी के मुख्य बाजार में आ गए। हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि कालड़ी के कुछ निवासी भी हमें शंकराचार्य के जन्म-स्थल का पता न बता सके। इसके बदले उन्होंने हमे रामकृष्ण-आश्रम का पता बता दिया। कई चक्कर लगाते हुए हम अपने अभीष्ट स्थान पर पहुँचे। प्रायः सौ गज लंबे और सौ गज चौड़े अहाते में प्रवेश करने पर हमें दो मंदिर और उनके मध्य में एक समाधि-पट्टिका दिखाई दी। दाहिने हाथ का मंदिर शंकर जी का था, पर उसमें अन्य देवताओं की मूर्तियाँ भी लगी हुई थीं। दूसरे मंदिर में सप्त-माताओं की मूर्तियाँ थी जिनकी शंकराचार्य जी उपासना किया करते थे। शिला-लेख पढ़ने पर ज्ञात हुआ कि नौवीं-दसवीं शती के किसी राजपुरुष ने इन मंदिरों का निर्माण कराया था। निश्चय ही शंकराचार्य के निर्वाण के बहुत पश्चात ये मंदिर बने होंगे। पास में जो समाधि थी, वह शंकराचार्यजी की माता की थी। यह किंवदंती प्रचलित है कि माता की मृत्यु के पूर्व शंकराचार्य भारत-पर्यटन से कालडी लौटे थे और माता की मृत्यु के पश्चात उनकी दाह-क्रिया संपन्न करके पुनः उत्तर भारत चले गए थे। इस स्थान पर आकर मेरा मन भारत के एक अन्यतम महापुरुष और दिग्विजयी पंडित की स्मृति में श्रद्धावनत और तल्लीन हो गया। यही व्यक्ति, जिसने इसी स्थान पर जन्म लेकर यहीं अपनी माँ की अंत्योष्टि की थी, भारत के इतिहास को बदल देने में समर्थ हुआ। बौद्धों की ह्रासोन्मुख जीवनचर्या से क्षुब्ध होकर इसने अपने देश के नैतिक और अध्यात्मिक उत्थान के लिए जिस अभिनव ब्रह्मवाद या अद्वैतवाद का नवीन दर्शन आविर्भूत किया और उक्त दर्शन को देश के कोने-कोने में जाकर प्रचारित किया और तैंतीस वर्ष की आयु में ही यह सब संपन्न करके जिसने अपनी इहलीला समाप्त कर दी, वह भारतीय इतिहास में महान से महान सम्राटों और राजपुरुषों से भी कहीं अधिक स्मरणीय कार्य कर गया है। हमने यह कल्पना की थी कि जो विशाल पौनार नद इस समाधि को छूकर बह रहा है, उसके जल में शंकराचार्य ने नित्यप्रति स्नान किया होगा। इसी समय पानी बरसने लगा था। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि मेरे मन में आई हुई शंकराचार्य की स्मृति को तर्पण का जल देने के लिए ही यह वर्षा हो रही है। इस विशाल नद के दूसरे छोर पर घनी वनराजी मानो इस महापुरुष के इस ऐतिहासिक जन्म-स्थान का निरंतर पहरा देती है।
ऐसे रमणीक और महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल पर सरकार की दृष्टि अभी तक नहीं पड़ी, यह हमारी सांस्कृतिक जागरूकता पर एक कटु प्रश्न-चिह्न है। न तो कोई अतिथिशाला बनी है, न कोई सूचना-गृह, न देख-रेख की कोई अन्य व्यवस्था। केवल एक संस्कृत पाठशाला चल रही है जिसमें कोई दूसरा आश्रय न होने के कारण स्थानीय ब्राह्मणों के कुछ बच्चे आकर संस्कृत पढ़ते हैं और मुफ्त का भोजन पाकर चरम परितृप्ति मानते हैं। यदि किसी दिन उन्हें पचीस या तीस रुपये मासिक की भी कोई नौकरी मिल जाए तो वे उस पाठशाला का परित्याग कर देंगे। दो-तीन विपन्न विद्यार्थी भी खड़े थे। उनकी मुख-मुद्रा अपनी रामकहानी सुना रही थी। क्या हमारे शासनाधिकारी यहाँ दर्शनशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन की एक भारतीय ख्याति की संस्था नहीं बना सकते, जिसमें अन्य भारतीय दर्शनों के अतिरिक्त शंकराचार्य के सिद्धांतों का अध्ययन-अनुशीलन किया जाए? यह सब सोचता-विचारता एक छोटी-सी दक्षिणा देकर और बदले में रोली का तिलक लगवाकर हम बाहर खड़ी टैक्सी पर बैठे और लगभग दो बजे दिन में त्रिचूर पहुँच गए।
त्रिचूर पहुँचकर हम सीधे वहाँ के प्रसिद्ध केरल वर्मा कॉलेज में उतरे जो कोचीन के राजघराने द्वारा स्थापित किया गया था। इस कॉलेज के प्रिंसिपल महोदय अभिनव शिक्षा-प्राप्त राजघराने के ही व्यक्ति हैं। उनकी शरीराकृति, वर्ण और विशेषकर उनकी नाक और आँखें आर्य-आकृति का द्योतन कर रही थीं, उनके वार्तालाप और व्यवहार में भी एक अप्रतिम शिष्टता थी। पुराने हिंदी-सेवक श्री पद्यनाभन इस कॉलेज के प्रमुख अध्यापक हैं। उन्होंने कॉलेज के अपने ही कक्ष में हमारे भोजन की व्यवस्था की। भोजन के उपरांत हम कॉलेज के छात्रावास में गए और वहीं दो घंटे विश्राम किया। कॉलेज की सभा में हमने सौंदर्य-प्रतियोगिता का काल्पनिक आख्यान लेकर रस-अलंकार, रीति-गुण आदि भारतीय साहित्य-सिद्धांतों की सरल व्याख्या की। विद्यार्थियों को यह बताया कि इन सिद्धांतों के माध्यम से 'सुंदरम्' नाम के तत्व के विविध पक्षों की कितनी सुंदर विवेचना की गई है। आजकल की सौंदर्य-प्रतियोगिताएँ केवल शरीर की आकृति और विविध अंगों की नाप पर ही आश्रित रहती हैं। यह कितनी स्थूल सौंदर्य-प्रतियोगिता है! इसके स्थान पर हमारे देश के साहित्यिक विचारकों ने सौंदर्य-संबंधी गहरी जिज्ञासाओं का अपने चिंतन में स्थान दिया है। हमारी इस तुलना को सुनकर उपस्थित छात्र-छात्राएँ, शिक्षक-समुदाय, स्त्रियाँ और पुरुष भारतीय साहित्य-शास्त्र के गौरव के प्रति आकृष्ट दिखाई दिए। संध्या के समय हम त्रिचूर के बाजार में गए और वहाँ की प्रसिद्ध दुकान से डेढ़ फुट ऊँचा एक दीपदान खरीदा जो केरल की गृह-प्रसाधना में एक मुख्य स्थान रखता है। इतने ही ऊँचे और ऐसे ही दीपदान का एक सुंदर नमूना श्री चंद्रहासन जी के घर पर देखा था और उन्हीं से पूछकर त्रिचूर में इसकी तलाश की थी। ज्ञात हुआ कि त्रिचुर इन दीपदानों के निर्माण के लिए समस्त केरल में प्रसिद्ध है।
उसी रात शोनानूर के रास्ते पालघाट पहुँचा। यहाँ श्री केशवन नायर के अनन्य मित्र श्री वासुदेव मेनन और श्री राजगोपालन हमें दो बजे रात स्टेशन पर लेने आए थे। कॉलेज के अतिथि-भवन में पहुँचकर हमने बाजार से कुछ जलपान और चाय आदि मँगवाई। लगभग साढ़े तीन बजे रात खा-पीकर सो गए। दूसरे दिन नौ बजे पालघाट से प्रायः आठ मील दूर हम मलमपुडा स्थान पर गए, जहाँ नदी को बाँधकर एक विशाल जलाशय बनाया गया है। इस बाँध में एक स्थान ऐसा भी है जहाँ से नदी का जल गलाई हुई चाँदी की धार की भाँति निरंतर प्रवाहित होता रहता है। इस बाँध के एक ओर ऊँचे पहाड़ हैं जिन पर श्वेत बादलों की छटा क्षण-क्षण वेश बतदली हुई एक रहस्यमयी नगरी का आभास दे रही थी, दूसरी ओर धान के खेतों से लहलहाती हुई हरी-भरी समतल भूमि और आसपास दिखाई देने वाली बस्तियाँ ठोस वास्तविकता का प्रतीक बन रही थीं। स्वर्ग और पृथ्वी की यह अगल-बगल की झाँकी अतिशय मनोरम और विस्मयकारक थी।
करोड़ों रुपयों की लागत से बना यह पक्का बाँध प्रायः एक मील लंबा होगा, उसकी चौड़ाई भी दो मोटरगाड़ियों के आमने-सामने से निकल जाने के लिए पर्याप्त थी, इसकी ऊँचाई दो सौ फुट से कम न रही होगी। सारा घेरा एक विशाल किले की चहारदीवारी का आभास दे रहा था। इस बाँध के भीतर ही एक विशाल कार्यालय की संस्थिति को देखकर आधुनिक विज्ञान की प्रखरता पर विश्वास होने लगा। इसी बाँध के नीचे एक मील लंबे और प्रायः उतने ही चौड़े एक सुरम्य उद्यान की व्यवस्था की गई है। इसमें भाँति-भाँति के वृक्ष और फलों के पौधे आदि लगाए गए है। बीच से एक नहर बहती है। कई छोटी-बड़ी छतरियाँ बनाई गई हैं, जहाँ बैठकर आगंतुक विश्राम ले सकते हैं। इस उद्यान की श्रीशोभा यद्यपि अभी अपनी शैशावस्था में है, पर इसके परिप्रेक्ष्य को देखकर यह सहज ही अनुमान होता है कि जब यह बगीचा अपने परिपूर्ण यौवन में प्रवेश करेगा तब इसका आकर्षण मैसूर के भारत-प्रसिद्ध वृंदावन बाग के सौंदर्य को भी पीठे छोड़ जाएगा। इस विशाल बगीचे का विन्यास वृंदावन बाग की समता किया गया है और पुराने अनुभव से लाभ उठाकर इसमें कुछ नई कल्पनाएँ भी जोड़ी गई हैं।
दिन में विक्टोरिया कॉलेज के विद्यार्थियों और हिंदी-प्रचारक कार्यकर्ताओं की सम्मिलित सभा में हमने भाषण दिया। श्री केशवन नायर भी आज अपनी पूरी रंगत में थे। केरल के विद्यार्थी भद्दी गलतियाँ वे करते हैं, यह उन्होंने उदाहरण दे-देकर समझाया। उनका व्यंग्य कॉलेजों के आधुनिक अध्यापकों पर था जो केवल पेशे की दृष्टि से हिंदी-अध्यापन का कार्य करते हैं। इनमें इनमें हिंदी के प्रति वह लगन और निष्ठा नहीं है जो वासुदेव मेनन जैसी पिछली पीढ़ी के सर्वस्व-त्यागी कार्यकर्ताओं में रही है। इस प्रकार दो पीढ़ियों के हिंदी-संबंधी दृष्टिकोण की विवेचन करते हुए श्री नायर ने अपना वक्तव्य समाप्त किया।
छह को प्रातःकाल पालघाट से रवाना होकर हम दिन में एक बजे के लगभग कालीकट पहुँचे। यहाँ के सर्वोत्तम होटल अलकापुरी में हम ठहरे थे। पहला दिन तो हमने बाजार-भ्रमण और खरीदारी में बिताई। कालीकट में सोने के आभूषण बहुत अच्छे बनते हैं और शायद कुछ सस्ते भी मिलते हैं क्योंकि अक्सर अरब सागर से चोरी का सोना यहाँ आया करता है। दो तोले के दो छोटे-छोटे किंतु केरल के प्रतिनिधि अलंकार खरीदकर हमने प्रायः दो सौ रुपये दुकानदार को समिर्पित कर दिए, किंतु इसका हमें कुछ भी खेद न था क्योंकि केरल का कुछ स्मृतिचिह्न हमें अपने घर के लिए लेना ही था।
कालीकट की बस्ती काफी गंदी है। समुद्र से नहरें निकालकर लकड़ी के बड़े-बड़े तख्ते और लंबे-लंबे पेड़ों के तने वहाँ तैरने और सड़ने दिए गए थे। त्रिवेंद्रम की स्वच्छता का ठीक दूसरा पहलू केरल के इस उत्तरी नहीं, जितनी संसकृति है। कालीकाट में व्यापारी संपन्नता है, पर सफाई का नाम नहीं। दूसरे दिन स्थानिक गुरूवपूर अप्पन कॉलेज में अपना भाषण समाप्त कर हम संध्या को फिर बाजार गए जहाँ हमारी भेंट सागर विश्वविद्यालय के हमारे छात्र श्री लक्ष्मण नंबियार के छोटे भाई श्री बालकृष्ण नंबियार से हुई, जिसने बिना पूर्व-सूचना के इस अप्रत्याशित नगर में हमें देखने ही पहचान लिया और उसी समय तार देकर अपने भाई को कहला भेजा कि वह दूसरे दिन हमसे टेलीचेरी में मिल ले। एक तार उसने अपने पिताजी को भी दिया। वे टेलीचेरी के समीप एक नगर माहीम में रहते थे। दूसरे दिन आठ सितंबर को जब हम टेलीचेरी पहुँचे तो पिता-पुत्र नंबियार मुझसे मिले। लक्ष्मण बी.ए. करने के पश्चात अपने पिता के अवकाश ग्रहण कर लेने के कारण सागर छोड़कर केरल (केनानूर) वापस चला गया था। यह परिवार यद्यपि केरल का मूल निवासी है, पर पचीसों वर्ष से मध्य प्रदेश में रहने के कारण केरल के अपने नगर की अपेक्षा सागर को ही अपने अनुकूल पाने लगा है। मुझे विश्वास है कि सी.के. लक्ष्मण नंबियार का हिंदी-ज्ञान मलयालम की अपेक्षा कहीं शुद्ध है।
टेलीचेरी में नगर में चार मील दूर एक ऊँची और समतल पहाड़ी पर वहाँ का कॉलेज है जो हमारी इस भाषण-यात्रा की अंतिम मंजिल था। इस कॉलेज में हमने अपनी केरल-यात्रा-यज्ञ की पूर्णाहुति करते हुए एक लंबा भाषण दिया, जिसमें भारतीय और पश्चिम सौंदर्य-बोध और साहित्यिक विवेचन का तुलनात्मक परिचय कराया। यह व्याख्यान भी एक कहानी का रूपक देकर प्रस्तुत किया गया था। अरस्तू से लेकर कॉडवेल तक और भरतमुनि से लेकर रामचंद्र शुक्ल तक पश्चिम और पूर्व के नौ-नौ आचार्यों को लेकर यह तुलना की गई थी। इस प्रकार अठराह पंडितों के साहित्यादर्शों का संक्षेप में उल्लेख करते हुए हमने यह तुलना समाप्त की थी। हमारा यह निष्कर्ष इस ओर जा रहा था कि भारतीय चिंतन में अधिक प्रांजलता, व्यापकता, मताग्रहशून्यता और समरसता दिखाई देती है। पश्चिमी साहित्य-चिंतन अधिक स्वतंत्र और वैविध्यपूर्ण हैं, किंतु समग्रता और सर्वांगीणता उसमें उतनी नहीं। ऊँची पहाड़ी पर संस्थित इस विशाल कॉलेज की छत पर टेलीचरी के हरे-भरे नगर और दूर-दूर तक फैले हुए भूमि-अंचल को देखकर हमने संपूर्ण केरल प्रदेश को एक बार फिर से प्रणाम किया और जलपान करने के पश्चात अपनी पूर्व-योजना के अनुसार नौ सितंबर को सायंकाल त्रिवेंद्रम वापस आए।
नौ के संध्या-समय त्रिवेंद्रम नगर के स्टेशन पर पहुँचते ही श्री विश्वनाथ अय्यर प्लेटफार्म पर मिले। वे हमें लेने के लिए स्टेशन पर आए थे। श्री विश्वनाथ अय्यर के संबंध में अभी तक हमने कुछ नहीं लिखा। इसका कारण यह है कि पिछले तीन वर्षों तक वे अपने पी-एच.डी प्रबंध के लिए हमसे मार्गदर्शन लेते रहे हैं और इस दृष्टि से हमारे शिष्य हैं। शिष्य की प्रशंसा करना, खासकर यदि वह आत्मीय है उचित नहीं माना जाता। पर इस प्रसंग में एकाध बात कहनी आवश्यक है। श्री अय्यर स्वल्पभाषी, संयत और प्रकृति से विनोदी भी हैं। जो कार्य उन्हें सौंपा जाता है उसे शत-प्रतिशत निभाने में वे दक्ष हैं। पिछले वर्ष जब वे केरल विश्वविद्यालय के अपने एम.ए. छात्रों के साथ हमारे यहाँ सागर आए थे तो उनकी नियोजन-शक्ति का भी परिचय मिला था। उनके वाक्य छोटे, किंतु सारगार्भित होते हैं। इस बार जब हम त्रिवेंद्रम पहुँचे तो ठहरने से लेकर हमारे भोजन-पान, नगर-दर्शन और पर्यटन आदि की सारी व्यवस्था उन्होंने ही सँभाली थी। पंद्रह दिन की केरल-यात्रा में प्रायः एक सप्ताह वे हमारे साथ घूमते रहे। एरनाकुलम से उन्होंने हमारा साथ छोड़ा।
स्टेशन से हम सीधे श्री विश्वनाथ अय्यर के घर पर गए। शीघ्र ही हमें स्नान और भोजन-पान से निवृत्त होकर रात दस बजे की गाड़ी पकड़नी थी जो हमें मदुरा पहुँचाती। हम केरल की यात्रा समाप्त कर दक्षिण के कुछ मंदिरों का दर्शन करने में चार-पाँच दिन लगाने वाले थे। अय्यरजी की दो लड़कियाँ हैं, जयंती और माला। जयंती 6-7 वर्ष की है। संगीत, वाद्य और नृत्य में निपुण हो चुकी हैं। जब-जब हम अय्यरजी के घर पहुँचे, वह कुछ न कुछ सुनाने को उत्सुक दीखी। माला उससे छोटी है, पर शायद उससे वाचाल और मिलनसार। परंतु मुश्किल यह थी कि वह हिंदी बहुत कम जान पाई थी और मैं मलयालम उससे भी कम। विनिमय-साधन के अभाव में हम लोग संकेतों से ही बातचीत कर सकें। श्रीमती अय्यर गृह-कार्य में चातुर हैं। और अपने पति की सिधाई और तज्जन्य संकटों से उन्हें बचाती रहती हैं।
रात दस बजे गाड़ी पर बैठकर दूसरे दिन दस बजे के लगभग मदुरा पहुँचे। यहाँ हमें मीनाक्षी का मंदिर देखना था, पर वह तीन बजे के पहले नहीं खुलता। बीच के समय का उपयोग नगर के मुख्य स्थानों को देखने और महाराजा के उस महल की परिक्रमा करने में बिताया, जिसमें आजकल मदुरा की कचहरी लगती है। परिक्रमा मैं इसलिए कहना हूँ कि हम लोग, मैं और तिवारी, बहुत प्रयत्न करने पर भी भीतर के वस्तु-भंडार को नहीं देख पाए। वस्तु-भंडार के चपरासियों की कृपा से हम लोगों को महल की छत पर जाकर नगर का दर्शन करना भी नसीब नहीं हुआ। चपरासियों के सामने बड़े-बड़ों की नहीं गलती, फिर हम तो परदेसी थे। निराश होकर लौटने के बाद टैक्सीवाले ने हमें बताया कि आपने चपरासी को चार आने दे दिए होते तो महल के ऊपर सात बार आपको ले जाता। मैं अपनी भूल पर पछताता ही रहा।
मीनाक्षी का मंदिर अपनी विशालता में दक्षिण के प्रमुख मंदिरों में परिगणित है। विशालता की अपेक्षा उसकी ख्याति उसके कला-सौष्ठव में अधिक है। दक्षिण में मीनाक्षी से भी अधिक विशाल मंदिर हैं, पर उनमें इस मंदिर का-सा कला-वैभव नहीं है। मंदिर के एक पार्श्व में - चित्रशाला नामक पार्श्व में - पूरे एक हजार स्तंभ हैं। प्रायः सौ फुट ऊँचे और तीन फुट चौड़े रहे होंगे। प्रत्येक स्तंभ पर एक-एक मूर्ति लगी हुई थी। देवताओं की, अप्सराओं की, पौराणिक कथा-यात्राओं की मूर्तियाँ, सबमें एक विशालता थी। सबकी मुद्राएँ सौम्य थीं। बहुत कुछ अर्जता की छाया दिखाई देती थी। परंतु देवी-देवताओं की इतनी बड़ी संख्या अजंता में कहाँ! काले पत्थर पर बड़ी ही भव्य मूर्ति निर्मित की गई है। परंतु वहाँ एक दूसरी मूर्ति भी थी जो रत्नजटिल थी और कदाचित् लाखों रुपये की लागत से बनी होगी। इस चमकती हुई मूर्ति के पीछे ही वास्तविक मीनाक्षी की प्रस्तर प्रतिमा थी। मैंने यत्नपूर्वक यह देखना चाहा कि इस मूर्ति के नेत्र में क्या विशेषता है, जिसके कारण इसे मीनाक्षी कहते हैं। मैंने देखा कि मूर्ति में आलोकित आँखें खूब सुडौल, न अधिक खुली न अधिक मुंदी, सौम्य और साथ ही, दीर्घाकार भी थीं। मुझे इस मूर्ति पर भी आर्य-आकृर्ति की छाप दिखाई दी। पास ही मैं शंकरजी का मंदिर था, जिसमें बृहत् शिवलिंग प्रतिष्ठित है। अन्य मंदिरों में अन्य देवों की मूर्तियाँ प्रस्थापित थीं। लंबे-लंबे आयताकर दालानों को पार करते हुए हमने प्रत्येक दालान के साथ संलग्न एक बड़ी मूर्ति और अनेक छोटी मूर्तियों के दर्शन किए। प्राकार के भीतर की प्ररिक्रमा करते हुए हम उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ प्रस्तर के एक स्तंभ से सप्तस्वर निकाले जाते थे। स्तंभ को किसी लकड़ी से आघात करने पर ये स्वर अपने-आप निकलने लगते थे। बड़ा विचित्र कौशल था!
चार मुख्य गोपुर उस मंदिर में हैं। इन्ही द्वारों से प्रवेश किया जाता है। भीतरी मंदिर की अपेक्षा ये गोपुर ही अधिक ऊँचे और विशाल होते हैं। मीनाक्षी का मुख्य गोपुर एक सौ सत्तर फुट ऊँचा बताया गया। उसमें उत्कीर्ण मूर्तियों की संख्या सहस्राधिक रही होगी। चारों द्वारा बनावट में एक-से ही थे।
मीनाक्षी मंदिर के दर्शन करने के पश्चात हम मदुरा स्टेशन पर पहुँचे और संध्या छह बजे की गाड़ी में बैठकर रामेश्वरम के लिए रवाना हुए। रात्रि को एक बजे रामेश्वरम के स्टेशन पर पहुँचकर हमने रेलवे स्टेशन के रेस्ट हाउस में विश्राम किया। उसी समय मंदिर के एक परिदर्शक आ गए थे। उन्होंने प्रातःकाल पाँच बजे ही हमें जगाया और हम लोग हाथ-मुँह धोकर रामेश्वर के दर्शन करने चले। इस मंदिर की विशालता को देखकर हम स्तब्ध रह गए। इतने बड़े मंदिर क्या, किले भी उत्तर भारत में कम दिखाई देते हैं। इस मंदिर के प्राकार की ऊँचाई प्रायः सौ फुट होगी। इसकी लंबाई-चौड़ाई का अंदाजा लगाना कठिन था क्योंकि एक द्वार से प्रवेश ज्योंही हम भीतर घुसे, बहुत बड़ी सुरगांवकर इमारत सामने आई जो दोनों ओर ऊँची-ऊँची दीवालों से घिरी हुई और ऊपर छत से पटी हुई थी। इतनी लंबी-लंबी छतें केवल देवता के प्रयोजन से बनाई होंगी, यह विश्वास करना कठिन है। संभव है, इनका उपयोग विपक्षियों के आक्रमण से रक्षा करने में भी किया जाता है। इतिहास इस संबंध में अधिक प्रकाश नहीं देता।
कुछ दूर एक सुरंग से चलते-चलते हमें दाहिनी ओर मुड़कर चलना पड़ा और इस प्रकार सुरंगों की भूलभुलैया पार कर हम मंदिर में प्रविष्ट हुए। यहाँ भी भगवान के शयन कक्ष में ताले जड़े हुए थे। कुछ ही देर में ताले खुले और देव-वंदना प्रारंभ हुई। वही रत्नखचित छोटी मूर्ति यहाँ भी थी, जिसे उठाकर मुख्य मूर्ति के समीप ले जाया गया। रामेश्वरम की मूर्ति शंकर भगवान की है। भेरियाँ और घंटों की मंद ध्वनि के साथ प्रातःकाल का देवार्चन समाप्त हुआ। हम लोग पार्श्ववर्ती मूर्तियों के दर्शन को भी गए और इसमें प्रायः आधा घंटा लगा। केवल मंदिर की परिक्रमा करने में ओर देवताओं के दर्शन करते हुए बिना रुके चलते रहने में पुरा एक घंटा लग गया। सूर्योदय होते-होते हम मंदिर के समीपस्थ सागर तट पर पहुँच गए। समुद्र-स्नान किया, लौटकर स्टेशन आए। यहाँ पर खरीदने की वस्तुओें के नाम पर अनेक प्रकार के शंख और कौड़े आदि थे जिनमें लोग अपने-अपने नाम खुदवाकर आजकल पेपरवेट का काम लेते हैं। हमने और अपने मित्रों के लिए बहुत-से कौड़े खरीदे, उनमें नाम अंकित कराए और उन सबको कई पोटलियों में रखकर घर लाए। रामेश्वरम से लौटते समय पामबन के पूर्व समुद्र पर बने पुल पर डेढ़ मील तक हमारी गाड़ी चलती रही। हमें आश्चर्य हुआ कि समुद्र पर इतना बड़ा पुल इतने दिनों से स्थिर कैसे है? इसे तो अब तक बह जाना चाहिए था। लेकिन हमारे आश्चर्य का ठिकाना ही न रहा जब हमने यह सुना कि रेल की पटरियाँ इस प्रकार डाली गई हैं कि जहाजों के लिए रास्ता देने को यह पुल उठाया जा सकता है और जहाज निकल जाने पर फिर से पूर्ववत गिरा दिया जाता है और पटरियों अपने स्थान पर आ जाती हैं।
तीसरा विशाल मंदिर हमने रंगनाथ का देखा जो त्रिचनापल्ली से तीन-चार मील की दूरी पर है। प्राचीन नगर मंदिर के पास ही बसा था, बल्कि यह कहना चाहिए कि मंदिर में ही नगर बसाया गया था। इस मंदिर में सात द्वार एक दिशा में और सात द्वार दूसरी दिशा में - कुल मिलाकर चौदह द्वार हैं। इस प्रकार इस मंदिर में सात प्राकार बने हुए हैं। स्वभावतः सबसे प्रारंभ का प्राकार सबसे लंबा और क्रमशः दूसरे प्राकार छोटे होते गए हैं। इन प्रकारों के केंद्र में रंगनाथजी का विशाल मंदिर है, जिसमें विष्णु भगवान की भीमकाय मूर्ति शयन-मुद्रा में दिखाई दी। हमने त्रिवेंद्रम के पद्मनाभ मंदिर में भी शेषशायी विष्णु की मूर्ति देखी थी, पर रंगनाथ की मूर्ति उससे कई गुना बड़ी थी। दूसरी सुंदर मूर्ति लक्ष्मीजी की थी जो अत्यंत ऐश्वर्य-मंडित दिखाई देती थी। इनके अतिरिक्त अन्य पार्श्ववर्ती चारों ओर बनी हुई थीं। मंदिर के साथ संलग्न अनेक सत्र थे। यहाँ भगवान के प्रसाद के लिए सामग्री रखी हुई थी। सारी चीजें नाप तोलकर दी जा रही थीं, जिनसे प्रसाद बनने को था। इस मंदिर की परिक्रमा और परिदर्शन में हमें दो घंटे का समय लग गया क्योंकि यहाँ मदुरा और रामेश्वरम की अपेक्षा भीड़ अधिक थी। रंगनाथ के दर्शन करने के लिए तो हमें 'क्यू' भी लगानी पड़ी थी। 'क्यू' लगाकर रंगनाथ के दर्शन में कौन-सा लाभ भक्त-जनों को मिलता है, यह तो भक्तजन ही जानें। मेरी समझ में तो इससे विक्षेप ही उत्पन्न होता है।
त्रिचनापल्ली में हम दक्षिण भारत हिंदी-प्रसार-सभा के अतिथि-भवन में ठहरे थे और सभा के महामंत्री श्री महालिंगमजी ने हम लोगों का आतिथ्य किया था। श्री महालिंगम की संगठन-शक्ति, विवेक-बुद्धि और कार्य-दक्षता तथा उनका हिंदी के प्रति अनुराग दक्षिण-भर में प्रसिद्ध है। अतएव यहाँ उसका वर्णन करता आवश्यक नहीं जान पड़ता। परंतु अपने मद्रास-स्थित केंद्रीय कार्यालय के अधिकारियों से उनका संबंध बहुत मीठा नहीं जान पड़ा। श्री महालिंगमजी ने 12 सितंबर की संध्या को चार बजे तमिलनाडु प्रांतीय दक्षिण भारत हिंदी प्रचार-सभा के मुख्य भवन में एक सभा की, जिसमें हिंदी-प्रचारक, शिक्षक तथा विद्यार्थी बड़ी संख्या में उपस्थित थे।
बारह की रात्रि को त्रिचनापल्ली से चलकर 13 को प्रातःकाल हम बंगलूर पहुँचे, जहाँ पर हमने साइंस इंस्टीट्यूट और उसका बृहत् पुस्तकालय देखा। वहाँ हमारे विश्वविद्यालय के एक पुराने साथी श्री वेदम जी अध्यापन-कार्य करते हैं। परंतु उन दिनों वे अमेरिका गए हुए थे। सागर विश्वविद्यालय के कुछ भूतपूर्व विज्ञान-छात्र भी वहाँ थे। पर संयोगवश किसी से भी हमारी मुलाकात न हो सकी। संध्या को हम यहाँ का प्रसिद्ध लाल बाग देखने गए। मीलों लंबा और चौड़ा यह बगीचा अपने विशाल वृक्षों की छाया में बड़ा सुहावना लगा। इसकी विशेषता यह है कि इसमें देश-विदेश के पुष्पों और वृक्षों का सँभार तो है ही, इसमें कृत्रिम बगीचे के लक्षण नहीं है। ऐसा नहीं जान पड़ता कि इसमें मनुष्य की करामात अधिक है। सब कुछ प्राकृतिक प्रतीत होता है। एक छोटी-सी पहाड़ी पर बनी हुई आब्जवेंटरी से हमने इस विशाल नगर की शोभा देखी। यहाँ की मुख्य इमारतों में विधानसभा का नवीन भवन अधिक ख्यात है।
तेरह की रात्रि को बंगलूर से चलकर हम 14 की रात को हैदराबाद पहुँचे। हैदराबाद दक्षिण और उत्तर के बीच संधि-स्थल-सा दीखा। यहाँ की भाषा हिंदी है, यह जानकर कुछ विस्मय भी हुआ क्योंकि इसके उत्तर में बहुत दूर तक मराठी-भाषी प्रदेश फैला हुआ है। इसे दक्षिण में हिंदी का एक द्वीप कहें तो शायद अधिक उचित होगा। हैदराबाद में हमने उस्मानिया विश्वविद्यालय की भव्य इमारत देखी जो चिकने और बहुमूल्य पत्थर से बनी है। साधारणतः शिक्षा केंद्रों में ऐसी कीमती इमारतें नहीं बनाई जातीं। हमने प्राचीन फारसी और संस्कृत पुस्तकों का संग्रहालय देखा और वहाँ के आधुनिक पुस्तकालय का भी अवलोकन किया। हिंदी-विभाग के अध्यक्ष श्री रामनिरंजन पांडेय दिन-भर हमारे साथ रहे और संध्या को चार बजे हैदराबाद के प्रसिद्ध सालारजंग संग्रहालय में ले गए। बहत्तर कक्षों में संगृहित संसार-भर की उत्तमोत्तम वस्तुओं को देखकर, जिनकी लागत का अंदाज नहीं लग पाता, हमें कम विस्मय न हुआ। महीन से महीन सुई के काम से लेकर विशाल मूर्तिखंडों तक कला के अनेकानेक निदर्शन दिए। ऐतिहासिक सामग्री भी यथेष्ट मात्रा में मौजूद थी। समय की कमी के कारण हम वस्तुएँ पूरे विवरण के साथ न देख पाए। पाँच बजने में पाँच मिनट थे। हम उस स्थान पर पहुँचे, जहाँ एक बड़ी घड़ी टँगी थी, जिसके घंटे एक विशेष प्रकार की यांत्रिक पद्धति से आदमी की शक्ल का एक यंत्र-पुरुष आकर बजाता है। जिस लहजे से उसका रंगमंच में प्रवेश होता है और जिस तपाक से वह लौहदंड उठाकर घंटा-ध्वनि करता है, वह बच्चों के लिए विस्मय और वयस्कों के लिए विनोद का विषय है। इस संग्रहालय के गंभीर से गंभीर दर्शक भी बिना इस दृश्य को देखें वापस लौटता पसंद नही करते। हम और तिवारी भी खड़े होकर घंटे की पाँच आवाजें सुनते रहे। फिर मुस्कराते हुए हम लोग आगे बढ़े। हैदराबाद से 15 की रात्रि को चलाकर हम निर्विघ्न मनमाड़ होते हुए 20 की दोपहर को सागर पहुँच ही गए। इस प्रकार यह बाईस दिन की केरल-यात्रा एक किनारे लगी।
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