मुहम्मद अली जौहर
काम करना है यही
ख़ाक जीना है अगर मौत से डरना है यही
हवसे-ज़ीस्त हो इस दर्जा तो मरना है यही
क़ुलज़ुमे-इश्क़ में हैं नफ़ा-ओ-सलामत दोनों
इसमें छूबे भी तो क्या पार उतरना है यही
और किस वज़आ की जोया हैं उरुसाने-बिहिश्त
है कफ़न सुर्ख़, शहीदों का संवरना है यही
हद है पस्ती की कि पस्ती को बलन्दी जाना
अब भी एहसास हो इसका तो उभरना है यही
हो न मायूस कि है फ़तह की तक़रीबे-शिकस्त
क़ल्बे-मोमिन का मिरी जान निखरना है यही
नक़्दे-जां नज़्र करो सोचते क्यों हो 'जौहर'
काम करने का यही है, तुम्हें करना है यही
चश्मे-ख़ूंनाबा बार
सीना हमारा फ़िगार देखिये कब तक रहे
चश्म यह ख़ूंनाबा बार देखिये कब तक रहे
हक़ की क़मक एक दिन आ ही रहेगी वले
गर्द में पिन्हा सवार देखिये कब तक रहे
यूं तो है हर सू अयां आमदे-फ़स्ले-ख़िज़ा
जौर-ओ-जफ़ा की बहार देखिये कब तक रहे
रौनके-देहली पे रश्क था कभी जन्नत को भी
यूं ही यह उजड़ा दयार देखिये कब तक रहे
ज़ोर का पहले ही दिन नश्शा हरन हो गया
ज़ोम का बाक़ी ख़ुमार देखिये कब तक रहे
आशियां बरबाद
हैं यह अनदाज ज़माने के
और ही ढ़ग हैं सताने के
घर छुटा यूं कि छोड़ने वाले
थे न हम उसके आस्ताने के
एक इक करके सबके सब तिनके
किये बरबाद आशियाने के
कुछ दिनों घुमता मुक़द्दर था
साथ साथ अपने आब-ओ-दाने के
देखिये अब यह गर्दिशे-तक़दीर
कहीं आने के हैं न जाने के
पूछते क्या हो बद-ओ-बाश का हाल
हम हैं बाशिन्दे जेलख़ाने के
ख़ूगरे-सितम
न उड़ जायें कहीं क़ैदी क़फ़स के
ज़रा पर बांधना र्सयाद कस के
निशाने-आशियां क्या जिस चमन में
लगे हो ढ़ेर हर सू ख़ार-ओ-ख़स के
मिले इक ख़ूम तो मैख़ाने से साक़ी
कि हम छूटे हुए हैं दो बरस के
गरां हो अब तो शायद सैरे-गुल भी
कुछ ऐसे हो गये ख़ूगर क़फ़स के
मिली है क़ैद आज़ादी की ख़ातिर
न पड़ जायें कहीं दोनों के चस्के
चमन तो हमने ख़ुद छोड़ा है गुलची
गिले फिर क्या करें क़ैद-ओ-क़फ़स के
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