डा. वीरेंद्र पुष्पक
मैं पत्रकार हूं, एक स्टोरी की कबरेज के लिए देहरादून आया हुआ था। पुराना मित्र मिल गया। बहुत दिनों के बाद मिला था। घूमने के लिए ऋषिकेश आ गए। गंगा के किनारे बैठे थे। आतंकवाद पर बात होने लगी। उसने एक कहानी सुनाई अपनी कश्मीर, विशेष रूप से अनन्तनाग की यात्रा के सम्बन्ध में। मैं अपने मित्र का नाम जानबूझ कर नहीं लिख रहा हूँ।
उसने कहना शुरू किया कि बात शायद 2014 की है। हमारे यहां से एक बस 10 दिन के टूर पर बाबा बर्फानी अमरनाथ यात्रा पर जा रही है। मेरी पत्नी का निधन हुआ था। मैं उन दिनों डिस्टर्ब सा था। मेरी बेटी ने स्थान परिवर्तन से मेरे मानसिक दबाब को कम करने के लिए अमरनाथ यात्रा का कार्यक्रम बना लिया। मेडिकल, रजिस्ट्रेशन आदि की कबायत पूरी की, जाने की तैयारी करने लगे। कुल मिला कर निश्चित समय पर हम अमरनाथ यात्रा के लिए निकल पड़े।
कश्मीर की सुंदर वादियों का नजारा देखने का मौका मिला। वास्तव में मन कुछ हल्का हुआ। हमारा टूर पहलगांव से चंदनबाड़ी, पिस्सू टॉप होता हुआ शेषनाग तक पहुंच गया। रात्रि में यहां विश्राम करना था। यहां सेना ने बर्फ को समतल करके बनाये गए मैदान में टैंट लगा कर यात्रियों के रात्रि विश्राम की व्यवस्था की थी। पता नहीं क्या हुआ कि मेरी घबराहट बढ़ने लगी। सोने का प्रयास किया तो सांस लेने में परेशानी होने लगी । मुझे चिकित्सा शिविर में ले जाया गया। लेकिन मुझे वहां भी कोई विशेष राहत नहीं मिली।
शायद मुझे बाबा बर्फानी के दर्शन होने ही नहीं थे। शायद हम यात्रा की श्रद्धा लेकर नहीं आये थे। मेरी हालत को देखते हुए, मेरी बेटी ने यहीं से वापस चलने का फैसला कर लिया। सुबह का इंतजार करना बड़ा दूभर हो रहा था। सुबह चार बजे ही लौटने के लिए मेरी बेटी ने मेरी हालत बता कर एक पिठ्ठू वाले से रुपये तय किये, उसने बहुत ही मुनासिब यानी 700 रुपये प्रति के हिसाब से चंदनवाड़ी तक पहुचने के बताए। रास्ते में पालकी से उतरने के लिए भी उसमें शामिल थे।
ये पिठ्ठू और पालकी तो आप समझ गए होंगे। पिठ्ठू का मतलब खच्चर वाला जो खच्चर पर आपको बैठा कर पहाड़ पर चढ़ाते उतारते हैं। पालकी का मतलब एक कुर्सी के दोनों ओर बांस बांधकर डोली बना कर चार लोग कंधे पर लेकर चलते हैं। पिठ्ठू से उतरते समय कलेजा मुँह को आजाता है। जबकि पालकी पर बैठकर तो हर कदम पर मौत ही नजर आती है।
उस मौत के मंजर को देखते हुए हमें ग्यारह बजे दोपहर में चंदनबाड़ी मिलेट्री बेसकैम्प पहुंच गए। हमें लगा कि बाकई उसने हमने उसे किराया कम लिया था। इस लिए हमने उसे तय किराये से 100 रुपये ज्यादा दिए तो वो बहुत ही ज्यादा अहसानमंद हुआ। वो हमारा दूर तक शुक्रिया अदा करता रहा। सच में आम कश्मीरी आज भी बहुत सीधा सच्चा होता है।
चांदनबाड़ी से हम कार से पहलगांव आ गए। पहलगांव आकर मैंने खुद को स्वस्थ महसूस किया। अब मुझे लग रहा था कि मेरी बेटी मेरी वजह से बाबा बर्फ़ानी के दर्शन नहीं कर सकी। मन में बोझ हो गया। पहलगांव के एक पार्क में दो बजे तक हम चिनार नदी में पैर डाले बैठे रहे, रास्ते की सारी थकान, लौट कर आने का मन का बोझ, दूर हुआ। बेटी ने बेटों की कमी नहीं होने दी। मेरा मन बेटी के लिए श्रद्धा से भर गया।
चिनार नदी में ऐसा लगा जैसे हम गंगानदी में हरिद्वार में पैर डालकर बैठने हों। या यूं कहें कि ऐसे जैसे मां की गोद में बैठने पर महसूस करते हैं। लगभग दो घंटे तक हम पानी मे डुबकी लगाते रहे। कपड़े हमारे पास वही थी जो हम पहन कर चढ़ाई कर रहे थे तीन दिन पहले। क्योंकि बाकी कपड़े और समान तो बस में था जो बालटाल जा चुकी थी। अब बस को चार दिन बाद श्रीनगर आना था। इसका सीधा सा मतलब था कि हमें किसी भी तरह ये चार दिन बिताने हैं। हमने निर्णय किया कि श्रीनगर बेस कैंप में लगे यात्रा सेवा शिविर में ही चलते है। वहीं शिविर में ही रहेंगे और चार दिन बिता लेंगे।
वास्तविक किस्सा यहीं से शुरू होता है। हमने प्राइवेट बस पकड़ी जो पहलगांव से अनन्तनाग जाती थी। बस में बैठने पर पता चला कि अनन्तनाग को कश्मीरी आज भी इस्लामाबाद ही कहते हैं। कश्मीर के लोग भारत के लोगो से कितनी नफरत करते हैं ये पता भी बस की यात्रा के दौरान ही हुआ। हमारा हुलिया कुछ कुछ साधारण कश्मीरी जैसा था। इस लिए कोई परेशानी नहीं हुई, लेकिन उनकी बातें सुनकर लगा कि अगर कोई अकेला दुकेले यहां फंस गया तो ये बिना बात ही उसकी रेल बना देंगे। तीन घंटे बस का सफर यादगार सफर रहा। कभी मौका मिला तो उस यात्रा का वर्णन आपको सुनाऊंगा। अभी तो मैं आपको अपने श्रीनगर से कादर भाई के यहां आने जाने का किस्सा सुनने जा रहा हूं। इसलिए मैंने बाकी सारी बातों को संछिप्त कर दिया है। कादर भाई के गांव का किस्सा सुनना है तो अनन्तनाग के बारे में बताना जरूरी समझता हूं। क्योंकि उनका गांव जिला अनन्तनाग में ही है।
बस में चढ़ते ही पता चल गया कि शायद हम बिना पासपोर्ट के पाकिस्तान आगये है। पूरी बस में हिंदुस्तान, मिलेट्री, हिंदुस्तानी, हिन्दू के बारे में ही चर्चा थी। किसी देश के नागरिक इतने जहरीले कैसे हो सकते हैं। बस अनन्तनाग या वहां की भाषा में इस्लामाबाद तक की ही थी। इस लिए बसअड्डे पर उतर गए। यहां से बस, कार आदि श्रीनगर जाती थी। हमने कार के मुकाबले बस को प्राथमिकता देनी ज्यादा सुरक्षित माना।
बस एक घंटे बाद आनी थी इसलिए बस के इंतजार में यहां हम एक दुकान पर चाय पीने बैठे, दुकान में बैठे लोगो में चर्चा चल रही थी कि हिंदुस्तान ने उन पर जबरदस्ती कब्जा कर रखा है, हिंदुस्तान उनपर बेहद जुल्म कर रहा है। हिंदुस्तान और हिंदुस्तानियों को तो तोप लगाकर दुनिया के नक्शे से मिटा देना चाहिए। ऐसा लग गया कि ये जिला वाकई आतंकवादियों का गढ़ होगा। या हम बाकई पाकिस्तान में आ गए थे।
बड़ी इंतजार के बाद आयी बस में भीड़ बहुत ज्यादा थी।खड़े होने तक कि भी जगह नहीं मिल रही थी। बस को छोड़ कर हम टैक्सी में सवार हो गए। हमारे पास बैठा यात्री बता रहा था कि कल रास्ते के कहां कहां पुलिस और मिलेट्री पर हमला किया गया। हम अभी रास्ते में ही थे कि पता चला सड़क पर लंबा जाम लगा है। जाम शायद सात आठ किलोमीटर लंबा लगा था। पता चला कि अभी अभी चार आतंकवादियों ने गस्त कर रही मिलेट्री की टुकड़ी पर हमला कर दिया। इसलिए अब बहुत कड़ी जांच के बाद वाहन निकले जा रहे हैं।
कार चालक लोकल था। गांव की गलियों से वाकिफ, उसने गाँव के ही रस्तों से निकल कर चैकिंग वाली जगह पर लाकर खड़ा कर दिया, सभी सवारियों की तलाशी हुई, आईडी चैक की गई। रात होते होते हम श्रीनगर आगये। श्रीनगर में बसअड्डे पर मिलेट्री की ओर से अमरनाथ यात्रा सेवा शिविर था। यहां आतंकवादियों के चलते बड़ी कड़ी सुरक्षा थी, शिविर की चारों तरफ के गेट पर कांटो वाली बाढ़ लगी थी। आमतौर पर किसी को भी बाहर जाने की अनुमति नहीं थी। रात का भोजन किया अब हम सोच रहे थे कि इस शिविर में हम कैदियों की तरह किस तरह चार दिन गुजार पाएंगे।
हमसे तो शाम के बाद के वो तीन चार घंटे भी नहीं गुजर रहे थे। जबकि अभी चार दिन गुजरने शेष थे। अचानक याद आया कि पत्नी की बीमारी के समय जब हम पीजीआई चंडीगढ़ में थे, तो हमें ठहरने के लिए रोटरी सराय में एक कम्बाइंड हाल में एक बैड मिला था। हाल में चार बैड थे। हमारे सामने वाले बैड पर कोई कश्मीरी था। जो रात को वहां सोने आता था। कुछ और कश्मीरी भी थे जो रोटरी सराय में ही थे। जिस दिन से हम रोटरी सराय में आये थे हमने महसूस किया कि वो बहुत कम आता था अपने बैड पर।
हम चर्चा करते थे कि कैसे कश्मीरी या तो आतंकवादी होते हैं या फिर आतंकवादियों के सहयोगी। इधर वो कश्मीरी कभी जरूरत पड़ने पर अपने कपड़े या समान लेने आता था जो एक कम्बाइंड अलमारी में रखा था, उसने मेरे बेटों से कहा कि वे सोने के लिए परेशान न हों उसके बैड का आराम प्रयोग करें। वो अपने साथियों के साथ रह लेगा। इस बीच मेरे बेटों की उससे बातें भी होती, एक सप्ताह बाद जब उसे अस्पताल से छुट्टी मिली उस दिन पहली बार मेरी उससे बात हुई। उसकी भाषा कश्मीरी ही थी मगर वो कुछ कुछ हिंदी समझ तथा कुछ कुछ बोल भी लेता था।
हमें उसकी बात कुछ कुछ समझ में आती थी लेकिन उसकी हिंदी भी कश्मीरी टोन में ही होती थी। लेकिन एक भाषा है जिसे मन की भाषा कहतें है और उससे हमें वो भलामानस लगा। उसने अपना नाम अब्दल खादर बताया। उसके नाम को समझने में हमें बड़ा समय लगा था। बताया तो अपने गांव का नाम भी था लेकिन वो उसके लाख समझने के बाद भी हमारी समझ में नहीं आया। बस ये समझ में आया कि उसका गांव अनन्तनाग जिले में पड़ता है। जो अमरनाथ यात्रा पर जाने वाले रास्ते से मात्र दो किलोमीटर की दूरी पर है। उसने यह भी बताया था कि उसका एक लड़का मिलेट्री में लेफ्टिनेंट है, दूसरा कश्मीर पुलिस में सबइंस्पेक्टर, लेफ्टिनेंट आजकल हरियाणा में पोस्टेड है। इस तरह जान पहचान हुई। बहरहाल टेलीफोन नंबरों का लेन देन हुआ। कभी आने के आग्रह हुए। जैसे आम तौर पर यात्रा के दौरान यात्रियों में होता है। उसने भी वादा किया कि वो कभी आएगा, मैंने भी। उसका दिया नंबर लैंडलाइन नंबर था।
चंडीगढ़ से आने के बाद हप्ते पन्द्रह दिन में उसका फोन आ ही जाता था। मेरे मोबाइल में उसका नम्बर था। मैंने उसे फोन किया और बताया कि हम श्रीनगर में है आप से मिलना चाहते हैं। उसने हमें अपने गांव का रास्ता बताया।हम ये निश्चित कर के कि सुबह उसके गांव चलेंगे सो गए। उसके गांव का नाम उसके कश्मीरी उच्चारण के कारण अभी भी हमारी समझ में नहीं आया था। सोचा यहां किसी कश्मीरी सुरक्षाकर्मी से बात करा कर समझ लेंगे। सोकर उठने के बाद हमने शिविर के आयोजकों से बात की उन्हें बताया कि अपने मित्र के गांव जाना चाहते हैं। आयोजकों ने हमें सलाह दी कि अनन्तनाग जिला आतंकवादियों का गढ़ है। जहां आये दिन मुठभेड़ होती रहती हैं। वहां जाना किसी भी दशा में सुरक्षित नहीं है। हमने जैसे तैसे करके दिन गुजरा। लेकिन खाली बैठे बैठे हम थक गए, बोर हो गए। अगला दिन रविवार का दिन था। हम फिर चाय पीने के लिए सुरक्षा में लगे सुरक्षा दल के सीओ से परमिशन लेकर शिविर से बाहर आये। एक रेस्टोरेन्ट में चाय पी थी। रेस्टोरेंट का मालिक युवा था। बातों बातों में पता चला कि वो लुधियाना का रहने वाला था। उसने बताया कि आजादी से काफी पहले उसके दादा ने यहां रेस्टोरेंट शुरू किया था। कश्मीरियों के बारे में चाहे वो कश्मीरी पंडित ही क्यों न हो, उसका अनुभव बड़ा ही खराब था। उसका मानना था कि ये बड़ी बेवफा कौम है। आपने मतलब के यार है।
खैर चाय पीकर समय बिताने के लिए हम लाल चौक पहुंच गए। यहां हर इतवार को बाजार लगता है। बाजार में अच्छी क्वालिटी का सामान फड़ पर सस्ते में बिक रहा था। बाजार आये थे इसलिए कुछ तो खरीदना ही था इसलिए एक कश्मीरी टोपी और दो तीन बनियान लिए। यहां वहां ठेले पर खाया, पिया। डलझील देखी। ज्यादातर शिकारे खाली खड़े थे। शायद आतंकवाद की छाया या फिर शायद सीजन खत्म हो गया था। शाम को हम वापस सेवा शिविर में आ गए।
रात में हमने मिलेट्री के कई अधिकारियों से बात की, लेकिन सभी ने हमें वहां न जाने की सलाह दी। इधर कादर भाई से मोबाइल से लगातार बात हो रही थी वो इंतजार कर रहे थे। एक कश्मीरी सुरक्षाकर्मी से कादर भाई की बात कराई उसने भी हमें उस ओर किसी भी दशा में न जाने की सलाह दी। लेकिन एक बात समझ में आ गयी कि कादर भाई का गांव जो अब तक हम समझ नहीं पा रहे थे सुदुरा था। जिसके लिए श्रीनगर रेलवे स्टेशन से ट्रेन भी आती जाती है। इधर उसी रात शिविर के दक्षिणी छोर पर कुछ आतंकवादियों की सुरक्षा बलों से मुठभेड़ हो गयी। काफी देर तक गोलियां चलती रहीं, भय का माहौल रहा शिविर में। सुबह सब सामान्य था। अब भी हमारा निश्चय था कि सुबह चाहे कुछ भी हो हम कादर भाई के गांव जाएंगे ही।
सुबह उठे कपड़े तो हमारे पास थे ही नहीं, एक गर्म काली पैजामी, गर्म पूरी आस्तीन की बनियान, मटमैली जैकेट, पैरो में स्पोर्ट शु, बिटिया के कपड़े भी वही थे जो पहाड़ पर चढ़ने के समय पहन रखे थे। हम अपने हुलिये को लेकर थोड़ा हीनभावना के शिकार थे। ऊपर से तीन दिन हो गए थे ठीक से फ्रेस भी नहीं हुए थे। लेकिन क्योंकि हमारे पास कोई विकल्प नहीं था।
हम शिविर से बाहर आये, रैस्टोरेंट पर चाय पी, श्रीनगर रेलवे स्टेशन के लिए बस पकड़ी और पहुंच गए रेलवे स्टेशन श्रीनगर के बाहर। पैदल चलकर रेलवे स्टेशन पहुंचे। स्टेशन पर लगे बोर्ड से पता चला कि हमें जिस जगह जाना है उस स्टेशन का नाम सुडूरा है। हमने टिकिट लिया और ट्रेन का इंतजार करने लगे। स्टेशन पर भी जगह जगह सुरक्षाबल तैनात थे। जो यात्रियों की सुरक्षा का ही ख्याल नहीं रहते, उनकी हर प्रकार की सहायता करते है। उनकी बर्दी भले ही रौबीली हो, उनका व्यवहार बहुत ही मीठा, अपनापन लिए। मैं समझ ही नहीं पाया कि मधुर व्यवहार वाली मिलेट्री का कश्मीरी इतना विरोध क्यों करते हैं। क्या सभी कश्मीरी आतंकवादियों का सुरक्षा कबच बने है? खैर ट्रेन आयी, ट्रेन के डिब्बे खास थे। सिटिंग सिस्टम आरामदेह, बहुत अच्छा था। हर दो सीट पर एक पंखा लगा था। भीड़ इतनी ज्यादा भी न थी इसलिए आराम से जगह मिल गयी।
श्रीनगर से सातवां या शायद आठवां स्टेशन सुडूरा था। हमारा डिब्बा सबसे पिछला था। सुडूरा स्टेशन पर उतर गए। स्टेशन पर हर तरफ सुरक्षाकर्मी ही सुरक्षाकर्मी थे। हमने वहां एक सुरक्षाकर्मी से गांव के बारे में पूछा उसने हमें गाँव न जाने की सलाह दी। हमें वापस लौट जाने को कहा। कुछ दूर चलने पर स्टेशन के गेट के पास ही अब्दुल कादिर भाई खड़े मिले, वो तपाक से गले मिले। दुआ सलाम, खैरियत खैरसल्लाह की बातें हुईं। उनके साथ हम स्टेशन से बाहर निकले, बाहर कोई सवारी नहीं थी अतः पैदल ही बात करते हुए चल रहे थे।
स्टेशन पर तो चप्पे चप्पे पर सुरक्षा बल के जवान, बीएसएफ के जवान तथा कश्मीर पुलिस के जवान मौजूद थे ही। रास्ते के दोनों ओर दूरतक बल के जवान दिखाई दे रहे थे, एक दम अलर्ट जैसे मोर्चे पर हो, अब हमें डर लगने लगा था, डर उन कादर भाई से भी जिनसे मिलने आयें हैं। हमारे मन में क्या चल रहा है इससे बेखबर कादर भाई ने दूर दूर रायफल, मशीन गन ताने मुस्तैद खड़े जवान दिखाकर बताया कि इन पहाड़ी रास्तों के पार पाकिस्तान है। जहां से आतंकवादी यहां आते हैं। पहाड़ियों में, जंगल मे छिपे रहते हैं। यहां आए दिन आतंकवादियों से सुरक्षा बलों की मुठभेड़ होती रहती है। गोलियां चलती रहती हैं, खून बहता रहता है, आतंकवादी कहां से आते हैं कहां चले जाते हैं पता ही नहीं चलता। अभी हम बात करते हुए चल ही रहे थे कि गांव की सीमा आ गयी।
गांव के रास्ते पर कुछ लोग बैठे थे, जैसे ये बैठक हो। ऐसा लगा कि वो किसी के भी गाँव मे प्रवेश के बारे में पता लगाने के लिए बैठे थे। शायद ताड़ सकें चाहे की आने वाला खुफिया विभाग का है या आतंकवादी। शायद वो तो दोनों से ही भयभीत थे। अब जिधर देखो सेव के बाग थे जिनपर हरे हरे सेव लगे थे। कादर भी ने बताया कि ये सबसे ज्यादा खतरनाक जगह है जहां आतंकवादी छिपे होते हैं। डर कर हम तेजी से चलने लगे, बाग, सड़क के किनारे बैठे और आने जाने वाले कादर भाई के साथ अस्सलामालेकुम- बालेकुम अस्सलाम के साथ कश्मीरी भाषा में सब खैरियत और ये कौन है मालूम कर रहे थे। अब माहौल में इतना ख़ौफ़ था कि हमें लगने लगा था कि हमें शिविर के संचालक, शिविर के सुरक्षा बल के अधिकारियों, रैस्टोरेंट वाले युवा की बात मान लेनी चाहिए थी। हमें सुडूरा आना ही नहीं चाहिए था। ऐसे किसी स्टेशन पर या किसी अस्पताल में किसी से जान पहचान होने का मतलब ये तो नहीं है कि उठे और चल दिये साहब।
पूरे माहौल पर ही आतंक का साया था। किसी तरह हम कादर भाई के घर पहुंचे। पूरा घर लकड़ी का बना था। दूसरी मंजिल पर किचन था। किचन में टीवी लगा था। जिसपर उस समय कोई हिंदी सीरियल चल रहा था। इस मंजिल पर कादर भाई का परिवार रहता था। तीसरी मंजिल पर मेहमानखाना था। कमरों को अलग अलग चित्रकारी कर सजाया हुआ था। छत पर भी आर्ट का शानदार प्रदर्शन था। नीचे कालीन बिछी थी। हर कमरा बेहद साफ हवादार था। नीचे बाथरूम था, जहां गर्म और ठंडे पानी का इंतजाम था। कादर भाई हमें फ़्रेश होने के लिए नीचे लाये। गर्म पानी गीजर से नहीं ऊपर रखे टैंक के नीचे लकड़ी जलाकर किया जाता था। ऊपर से नीचे तक घर का रखरखाव बहुत ही शानदार था। रास्ते में लोगों द्वारा किये गए सलाम, और घर के रखरखाव से ही पता चल रहा था कि कादर भाई गांव के असरदार, बड़े आदमियों में से एक है।
ये रमजान के महीना था। शायद 11वां रोजा था। रमजान में परिवार में सब का रोजा था। फ़्रेश होकर हमें मेहमानखाने में ले जाया गया। परिवार के सभी सदस्यों वहां आगये। उस समय वहां कादर भाई की बीबी और चार लड़कियां थी सभी आगयीं जैसे हम कोई परिवार के खास रिस्तेदार हों, सभी बहुत ही सुंदर, सलीकेदार, दीनदार थीं। बहुत मुहब्बत और खुलूस से बातें शुरू हुईं। हिंदुस्तान की कश्मीर की, विकास की। एक परेशानी थी कि उन्हें हिंदी नहीं ही आती थी और हमें तो कश्मीरी बिल्कुल भी नहीं आती थी।
इस बात का अंदाजा इस बात से लगा लो कि कादर भाई का नाम हमें बहुत मुश्किल से समझ में आया था। कादर भाई की पत्नी को तो हिंदी बिल्कुल भी नहीं आती थी। हमारी बातों को कादर भाई ट्रांसलेट करके उन्हें बताते थे। हां लड़कियां कुछ कुछ हिंदी समझ लेतीं थी। मगर बोल भी ठीक से नहीं पातीं थीं। शायद हिंदी सीरियल की बजह हो। वैसे वहां पढ़ाई उर्दू में होती है, हिंदी बोलना शायद मना है कश्मीर में।
हाँ तो भाषा की इस उलझन के बाबजूद पूरे परिवार ने हमसे जमकर बातें की। रमजान होने और हमारे लाख मना करने के बाबजूद कहवा बनाया, नास्ता बनाया। उनके घर पर पहुंचकर परिवार के व्यवहार से मन में बैठा डर दूर हुआ। कादर भाई ने अपने घर पर लगे देशी अंजीर तोड़ कर दिए। हमारे वापस लौटने का समय हो रहा था, परिवार के सदस्य हमें गेट तक छोड़ने आए। जैसे किसी रिश्तेदार को छोड़ने गेट तक आते हैं। कादर भाई हमें स्टेशन पर छोड़कर चैन की सांस लेते चले गए, शायद उनके मन में भी कुछ अनहोनी का भय था, हमारे किसी अनिष्ठ की चिंता थी। हमें स्टेशन पर सकुशल छोड़ कर कादर भाई अपने गांव के लिए चल पड़े। स्टेशन पर हमने मालूम किया कि श्रीनगर के लिए ट्रेन कब आएगी। हमारी भाषा से स्टेशन पर तैनात मिलेट्री के जवानों पहचान गए कि हम कश्मीरी नहीं हैं।
हमारी भाषा में उत्तरप्रदेश की भाषा का पुट था। दो तीन जवान उत्तर प्रदेश के भी थे। उन्होंने हमें बैठने के लिए स्टेशन मास्टर के कमरे से दो कुर्सी निकल कर बहुत ही सम्मान के साथ बैठाया। हमारे आने जाने का कारण पूछा। हमने बताया पूरा घटना क्रम उन्हें बता दिया। उन्होंने कहा कि अगर गांव जाने से पहले उन्हें मालूम होता तो वे हमें कभी भी न जाने देते या फिर एक टुकड़ी सुरक्षा के लिए साथ जाती। कादर भाई ठीक आदमी हो सकते हैं लेकिन इस गांव में आतंकवादियों की कोई न कोई बारदात होती ही रहती है। जवान शुरू से ही हमारा सम्मान कर रहे थे।
शायद मैं उन्हें चेहरे से कोई मिलेट्री या पुलिस का अधिकारी लग रहा था। हमारे लिए चाय बनवाई गई। बिस्कुट मंगवाए गए। बाहर जहां हम लोग बैठे थे, थोड़ा गर्मी थी, एक जवान ने अपने कैम्प से लेकर पंखा लगा दिया। उन्होंने बताया कि अब आखरी एक ट्रेन है जो बारामुला से चलकर श्रीनगर, सुडूरा होते हुए बनिहाल जाएगी। फिर वही ट्रेन बनिहाल से वापस सुडूरा श्रीनगर होते हुए बारामूला जाएगी। ट्रेन के आने में बहुत समय था।
हम स्टेशन पर मिलेट्री के जवानों के साथ आराम से बैठे थे कि पता चला कि सुडूरा गांव के रास्ते में आतंकवादियों ने किसी पर हमला कर दिया। उसे बचाने के लिए सुरक्षा बलों की आतंकवादियों से मुठभेड़ हो गयी। बहुत देर तक गोलियां चलती रहीं। अंत में आतंकवादी जंगल का लाभ उठाकर भाग गए। हमले में कोई हताहत नहीं हुआ। सुरक्षा बलों के जवानों ने यह भी बताया कि शायद ये हमला हमारे मित्र पर ही हुआ हो। क्योंकि हमें गाँव में खुफिया एजेंसी का समझा गया होगा। लेकिन इस हमले में कोई भी हताहत नहीं हुआ। ये सोचकर मन को शांति हुई। दुख भी हुआ अपने आने पर कि हमारी वजह से कादर भाई इस मुसीबत में फंस गए।
आखिरी ट्रेन होने के कारण स्टेशन पर और भी ज्यादा भीड़ थी। अभी हम ट्रेन का इंतजार कर ही रहे थे कि उन जवानों ने हमें सुझाव दिया कि सुडूरा से बनिहाल होते हुए श्रीनगर का टिकिट ले लें। इस तरह यहां से श्रीनगर से आने वाली ट्रेन में बनिहाल चले जाना और उसी ट्रेन से श्रीनगर चले जाना। एक तो भीड़ की समस्या से बच जाओगे, दूसरा पीर पंजाल की 11 किलोमीटर लंबी सुरंग को भी देख लोगे। लोग डलझील की तरह इस सुरंग को देखने भी आते है। सुझाव पसन्द आया।
जवानों में से एक ने हमारे टिकिट लाकर दे दिया। ट्रेन आने पर ट्रेन के सामान्य डिब्बो में बहुत भीड़ होने पर हमें गार्ड के डिब्बे में बैठा दिया गया। पता चला कि यहां सुरक्षाकर्मियों के लिए दो सीट होती है, उन जवानों ने हमें उसी सीट पर बैठा दिया। ट्रेन के सुरक्षाकर्मियों ने भी हमारा बहुत सम्मान किया। ट्रेन चली काजीगुंड पार कर पीर पंजाल की 11 किलोमीटर लम्बी सुरंग पार बनिहाल पहुंची। सुरंग वो भी 11 किलोमीटर लंबी से जब ट्रेन गुजर रही थी तो कुछ डर कुछ रोमांच का अनुभव हुआ। लौटते हुए और भी ज्यादा आनंद आया सुंरग का। ट्रेन में सुरक्षाकर्मी जो शायद बारामुला और सौपोर के थे अपने व्यक्तिगत आतंकवाद से सम्बंधित सुनाते चल रहे थे। बनिहाल पहुंचने पर सुरक्षाकर्मी हमारे लिए चाय और बिस्कुट और एक बोतल पानी की ले आए आये। 10 मिनट के बाद ट्रेन फिर चली और दो घंटे के सफर के बाद हम श्रीनगर रेलवे स्टेशन पर थे। सुरक्षाकर्मी हमें स्टेशन से बाहर तक छोड़ने आये। रात होने लगी थी, हमने बस पकड़ी और अपने शिविर में आगये। किसी को कुछ नहीं बताया लेकिन मन पर एक बोझ से लिये रात को सो गए। सुबह से बस के आने का इंतजार शुरू हो गया।
मेरे मित्र ने कहानी का अंत करके मेरी ओर देखा। मेरे पास शब्द ही नहीं थे कि उसकी तारीफ करूं। लेकिन मैंने उससे ये वादा किया कि मैं उसकी कहानी को कागज पर उतारूंगा। आज उसकी कहानी आपके सामने उसी के शब्दों में पेश कर रहा हूं। मुझे लग रहा है कि वो कश्मीर के बारे में ठीक से समझ नहीं पाया। क्योंकि मैंने भी कश्मीर की यात्रा की है। कश्मीरियों से मुझे भी मिलने का मौका मिला। वैसे उसकी कहानी का कादर भाई भी तो कश्मीरी ही था। मुझे तो आम कश्मीरी भले ही लगे थे। बस ये जरूर मालूम करते थे कि हिंदुस्तान से आये हो? हो सकता है कुछ कश्मीरी युवक भटक गए हो। उन्हें जिहाद के नाम पर मक्कार लोगों ने अहिंसा का पाठ पढ़ा दिया गया हो। या फिर मजहब या राजनीति के नाम उन्हें आतंकवादी बना रहे हों। लेकिन अधिकांश कश्मीरी बहुत ही भलेमानस मिले मुझे तो। खैर दोस्त से किया वादा पूरा कर रहा हूँ उसकी कहानी पेश कर रहा हूँ।
मेरे कहानी संग्रह 'एक कहानी मैं कहूं' से कहानी सम्पूर्ण
@कहानीकार डा. वीरेंद्र पुष्पक
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