अख़्तर-उल-ईमान
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम
आती नहीं कहीं से दिले-जिंदा की सदा
सूने पड़े हैं कूच'ओ-बाज़ार इश्क के
है शमए-अंजुमन का नया हुस्ने-जां-गुदाज़
शायद नहीं रहे वो पतंगों के वलवले
ताज़ा न रख सकेगी रिवायाते-दश्तो-दार
वो फ़ितनासर गये जिन्हें कांटे अज़ीज़ थे
अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलाएं हम
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम
सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें
क्या जाने अब न उल्फ़ते-देरीना याद आए
इस हुस्ने-इख्तियार पे आँखें झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़
संभले हुए तो हैं पे ज़रा डगमगा तो लें
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम
Comments
Post a Comment