शैलेश मटियानी
सब झूठ-भरम का फेर रे-ए-ए-ए...
माया-ममता का घेरा रे-ए-ए-ए...
कोई ना तेरा, ना मेरा रे-ए-ए-ए...
नटवर पंडित का कंठ-स्वर ऐसे पंचम पर चढ़ता जा रहा था, जैसे किसी बहुत ऊँचे वृक्ष की चूल पर बैठा पपीहा, चोंच आकाश की ओर उठाए, टिटकारी भर रहा हो -
बादल राज, पणि-पणि-पणि... बादल राजा, पणि-पणि... और अपने बीमार बेटे के पहरे पर लगे जनार्दन पंडा को कुछ ऐसा भ्रम हो रहा था कि, मरने के बाद, यह नटवर पंडित भी, शायद ऐसे ही किसी पंछी-योनि में जाएगा और नरक के किसी ठूँठ पर टिटकारी मारेगा - ए-ए-ए...
आधी रात बीत जाती है। गाँव के, वन-खेत के कामों से थके लोग सो जाते हैं, मगर नटवर पंडित का कंठ नहीं थमता। वन के वृक्षों और खेतखड़ी फसल को साँय-साँय झकझोरती बनैली बयार, रात के सन्नाटे में फनीले सर्पों की जैसी फूत्कारें छोड़ती है। शिवार्पण की रुग्ण काया जैसे प्रेतछाया की पकड़ में आई हुई-सी थरथरा उठती है और वह बिलबिलाता, पिता की छाती से चिपक जाता है - बा-बा-बा...
जनार्दन पंडा का हृदय विचलित हो उठता है - 'हे प्रभो, जैसा संतानसुख तूने मुझे दिया, ऐसा मेरे किसी सात जन्मों के शत्रु को भी न देना। मुझसे तो नटवर पंडित भाग्यशाली पुरुष हुआ। माया-ममता के घेरे से मुक्त, निश्चिंत चित्त से राम का नाम तो लेता है। संतति न होने का क्लेश भले हो, अपंग-भाग्यहीन संतति जनमाने का संताप तो नहीं डसता उसे।'
पिछल बरस तक नटवर पंडित के पंचम सुर के भजनों से जनार्दन पंडा बहुत चिढ़ते रहे। हर साल एक-न-एक बच्चा जन्म लेता या विदा होता उनके घर से। जाने कितनी बारी यही हुआ कि इधर लगभग आधी रात के समय जनार्दन पंडा के घर में संतति जन्म लेती, उस वक्त भी नटवर पंडित के कंठ का स्वर पंचम पर ही मिलता - और जब बीमार बच्चा दम तोड़ देता, दुखियारी पंडितानी विह्वल कंठ से विलाप करती, तब भी नटवर पंडित का स्वर उस विलाप से जुगलबंदी करता, मानो गिद्धों के पंखों की डरावनी आवाज उत्पन्न करता छत पर उतरता। अगर कभी यह पूजा का समय होता और नटवर पंडित शंख बजाते, तो भी उसमें से बिल्लियों के रोने की सी आवाज ही प्रकट होती मालूम पड़ती।
'हे राम, इस असगुनिया रँडुवे का पांचजन्य नहीं फूटता।' संतति-शोक से विह्वल जनार्दन पंडा दोनों हाथ आकाश की ओर उठा देते - 'किसी के घर संतति जन्में, तब भी यह कुभागी एकदम चील की सी टिटकारी छोड़ेगा। शोक-संताप हो, तब भी इस असगुनिया का पंचम सुर नहीं थमता। साक्षात अधम नर-राक्षस है ससुरा! न किसी का सुख सुहाता इसे, न किसी की पीर कचोटती। ऐसा अधम पुरुष जाने ब्राह्मण-योनि कैसे पा गया? इसे तो म्लेच्छों के घर जनमना था।'
दुरगा पंडितानी तो और भी संतप्त कंठ से नटवर पंडित को कोसती - 'अरे, इस एक छड़ लट्ठू-मूसल को किसी का सुख-दुख कहाँ व्याप सकता? चार-चार औरतों को टोक चुका कसाई, फिर भी घर में संतति के नाम पर, इसके गोठ की गैया के थनों में भी दूध नहीं उतरा! सच पूछो, तो अंतर का डाह जलाता इसे। चाहता है, जैसे इसकी घरवालियाँ मसान का प्रेत बन गईं इसे, ऐसे ही औरों की भी मर जाएँ। जैसे इसके घर में कोई बालक नहीं, ऐसे ही सब के घर बंजर-वीरान हो जाएँ। खुद पा नहीं सका, पराए सुख के शूल चुभते हैं। कैसी डरावने सुरों में भजन गाता है, जैसे स्यापा करता फिरता हो। हे राम, उठा ले जाए इसको ही धो-पोंछकर इसका यह आधी-आधी रात का विलाप!'
देवदार के एकदम घने वनों से घिरी घाटी में महाकाल नागेश्वर का प्राचीन मंदिर बसा है। महाकाल के भक्त चंद्रवंशी राजाओं ने आस-पास के अनेक गाँव ब्राह्मणों को दान में दिए। तब से नागेश्वर महादेव के भव्य मंदिर के उत्तर-पश्चिम वाले छोरों पर पंडे-पुजारियों के गाँव बसे हैं। दक्षिण-पूर्व देवदारु की घनी वृक्षावलियों से घिरा है। जबकि आबादी बहुत कम है। थोड़े मकान और उनमें भी एक फासला-सा। जैसे प्रकृति ही चाहती रही हो कि महाकाल की इस घाटी में ज्यादा लोगों की बस्ती न हो।
सदैव एक सन्नाटा विद्यमान रहे और जब हवा तेज चले, तो देवदारु वृक्षों का झूमना साफ-साफ सुनाई भी पड़े। नटवर पंडित और जनार्दन पंडा भी मृत्युंजय महाकाल के वंशानुगत पुजारी रहे हैं। सप्ताह में एक-एक दिन इन दोनों की बारी भी लगती।
उत्तर में वृद्ध नागेश्वर, दक्षिण में क्षेत्रपाल, पूर्व में कोटेश्वर और पश्चिम में दंडेश्वर, महाकाल के रूप में शंकर के चार स्वरूपों की चौकियाँ लगी हैं यहाँ और घाटी के बीचोंबीच स्थित है, बाल नागेश्वर का पुराण-प्रसिद्ध सोनकलश मंदिर। 'नागेशं दारुका वने' के अनुसार, महाकाल के एक ज्योतिर्लिंग की संस्थापना इस घाटी में है। मंदिरों से लगी, आकार में नदी, लेकिन प्रकार में अत्यंत ही एक पतली पवित्र धारा बहती है, जिसके स्फटिक स्वच्छ जल के किनारे के वृक्षों ही नहीं, बल्कि वनस्पतियों तक के प्रतिबिंब देखे जा सकते हैं।
श्रुति थी, कि महाकाल नागेश के मंदिर में रात भर दीपक हाथ में लेकर दीपार्चना करने से जन्म-बाँझ औरत भी पुत्रवती बनती है। नटवर पंडित न जाने कितनी बार शिवपुराण का वाचन-पाठन और न जाने कितनी बार शिवस्तोत्र का पारायण कर चुके। सहस्रों घृतबातियाँ दीपकों में बालीं, मगर चार-चार विवाह करने पर भी संतति नहीं जन्मी तो नहीं ही जन्मी। चौथी पत्नी से तो उन्होंने रात्रिपर्यंत की दीपार्चना भी करवाई, मगर इस रात्रि-जागरण के दूसरे ही दिन, वह उनका घर छोड़ किसी दूसरे पुजारी के घर बस गई और वहाँ उससे एक के बाद एक तीन बेटे हुए। जबकि नटवर पंडित के यहाँ पाथर टूट के दो नहीं होने वाला मुहावरा भले ही घर-भर में कूदता-फाँदता रहा हो, संतति का आगमन दूर ही रहा।
श्रुति तो यह भी थी कि महाकाल मृत्युंजय हैं। उनकी आराधना करने पर संतति सौ वर्ष जीवित रह सकती है। ...मगर जनार्दन पंडा के घर में संतति साल-दो साल भी बड़ी कठिनाई से ही ठहरती। दो-तीन, चार-पाँच नहीं, पचीस वर्षों की अवधि में पंद्रह बच्चे हो चुके थे, मगर एक बारह वर्षों की एक कन्या शेष थी तारामती और दो वर्षों का यह अंतिम पुत्र, जिसे महाकाल शिव को समर्पित करके, नाम शिवार्पण रख दिया था जनार्दन पंडा ने, ताकि इसे भी मृत्यु न उठा ले जाए।
तेरह तो बेटे-ही-बेटे जन्मे। कोई महीने-दो-महीने, कोई चार महीने, कोई पाँच महीने और कोई एकाध वर्ष जिया।
संतति-शोक में तिल-तिल टूटते, आखिर पिछले वर्ष दुरगा पंडितानी भी चली गई। अंतिम साँस से पहले इतना कह गई थीं - 'शिवार्पण के बाबू, अब दूसरी लाकर गोत-वंश चलाने की उमर तो आपकी रह नहीं गई। कहने को तो मैं बेर की बेल-जैसी फली, मगर वैसी ही सूख भी गई। यह एक कच्चे सूत जैसा छोरा छोड़े जा रही और एक कन्या। कन्या तो पराए घर की धरोहर होती। उससे अपना गोत-वंश नहीं चला करता। ...अब तुम रोज एक कलशी गंगाजल की मृत्युंजय महाकाल के ज्योतिर्लिंग पर चढ़ाना और महाकाल शंकर से प्रार्थना करना कि प्रभो, अंतिम संतति है। गोत-वंश बचाए रखना! गोत गया, तो सब गया। भृगु, भारद्वाज, जमदग्नि आदि ऋषि-मुनियों का नाम भी आखिर आज तक गोत से ही चल रहा है। श्राद्ध-पर्वों पर भी पितरों, ममगृहे-ममगृहे; कहने वाले ही नहीं रहे, तो मनुष्य का चिह्न कहाँ रहा?'
तब शिवार्पण कुछ ही दिनों का था।
साल-भर तक तो शिवार्पण पूरी तरह स्वस्थ रहा, मगर जैसे कोई अशुभ छाया कहीं से अचानक ही प्रकट हुई हो, इस वर्ष का संवत्सर लगते-लगते, उसे भी रोग ने घेर लिया। कभी सूखी खाँसी हो जाती। कभी पेट चल जाता। कभी अपच और कभी शीत।
पिछले तीन महीनों से तो थोड़ा-सा गाय का दूध भी बड़ी कठिनाई से पचा पाता था। डेढ़ साल का हो गया, मगर चल फिर नहीं सकता। हाथ-पाँव एकदम सूखे-से हो चले। माथे पर की नसें तन गईं। त्वचा बूढ़ों की-सी हो आई। पेट बढ़ गया और ओठों की पपड़ियाँ सूख चलीं अब आँखों की पुतलियाँ बिना जल के बादल-जैसी नीरस प्रतीत होने लगीं। ...यानी लक्षणों से देखें, तो शिवार्पण के बचने की आशा दिन-पर-दिन कुछ धुँधली ही होती जा रही।
अंतिम दीपक के बुझने की आशंका से ही आँखों में अंधकार छाने लगता और जनार्दन पंडा सोचते कि एक दिन बेटी अरुंधती भी विदा हो जाएगी और तब इस उजाड़ घर में, अकेले-अकेले वो भी, शायद, नटवर पंडित की ही तरह पंचम सुर में भजन गाते, आधी-आधी रात जागते मसानघाट के प्रेतों की तरह भटकते रहेंगे - 'सब झूठ-भरम का फेरा रे-ए-ए-ए... कोई ना तेरा, ना मेरा रे-ए-ए-ए...'
दुर्गा पंडितानी का कहना कानों में बजता रहेगा कि वंश उजड़ गया, तो घर की भित्तियाँ भी उखड़ गईं।
सोचते-सोचते, जनार्दन पंड की आँखों की पुतलियाँ जैसे फिर जल में डूब गईं। धीरे-धीरे, जैसे कि ताँबे की कुनी में जलघड़ी डूबती है - बूँद-बूँद, बूँद-बूँद!
जलघड़ी रीती कुछ, तो जनार्दन पंडा ने खिड़की से बाहर की ओर झाँका - सूर्य देव क्षेत्रपाल धुरी की ऊँची चोटी पर देवदार वृक्ष का सहारा लिए हुए-से ठहरे थे और उनका प्रभामंडल देवदारुओं से भरे अरण्य में ही थम गया-सा आभासित होता था। जैसे घाटी कहती हो कि आगे कहाँ जाओगे, यहीं विश्राम करो।
सूर्योदय और सूर्यास्त, दोनों काल के अद्भुत-से बिंब बना देते हैं। सूर्य वही, लेकिन परिदृश्य भिन्न, तो छवियाँ भी भिन्न-भिन्न हैं। दोपहरी को जो सूर्य सारी पृथ्वी को तपाता भाषित होता, संध्या को वहीं अरण्य की गोद में स्थान खोजता। महाकाल की घाटी में काल और प्रकृति का संगम देखते ही बनता। अस्ताचल से लगे सूर्यदेवता भीष्म पितामह की तरह प्राण त्यागते से मालूम पड़ते।
सूर्यदेवता अरण्य में ही डूबते-से प्रतीत हो रहे थे। 'जय सोमनाथ! जय मृत्युंजय!' विह्वल होकर, जनार्दन पंडा ने अपने जुड़े हाथ घाटी-स्थित महाकाल मंदिर की ओर झुका दिए।
संध्यापूजन तथा भोजन से निवृत्त होकर, पुनः शिवार्पण के पहरे पर बैठ गए जनार्दन। जाने कब, किस क्षण सब-कुछ समाप्त हो जाए। एक त्रास-सा हर क्षण उपस्थित रहता है भीतर कहीं चारों ओर, लेकिन आज शिवार्पण का खाँसना-कराहना थमा रहा, तो उनकी भी आँख लग गई।
एकाएक आधी रात में नींद खुली और खिड़की से बाहर झाँका, तो दिखाई पड़ा कि संहारक शिव की भूमि में कहीं कुछ तीव्र प्रकाश फैला पड़ा है।
'हे राम! कोई यात्रा तो नहीं आ गई?' - जनार्दन पंडा के मन में कँपकँपी-सी उठी और उनहोंने अपनी भय-विह्वल आँखें कृशकाय शिवार्पण के चेहरे पर टिका दीं। शिवार्पण अभी सोया नहीं, मगर लगता था, जैसे वर्षों से जड़वत पड़ा है। जनार्दन पंडा आतंकित होकर पुकार उठे - 'तारामती!'
तारामती घड़ी-भर पहले ही सोई थी। थककर चूर होती दिखी, तो जनार्दन ने उसे सुला दिया था - 'तू घड़ी भर निंदिया ले, बेटी! शिवार्पण को मैं देखता रहूँगा।'
तारामती भी, अंतिम सहोदर की रुग्णता और पिता की व्यथा में घिरी रहती। शिवार्पण कभी अधिक अस्वस्थ हो उठता, तब रात-भर जागती रहती थी। कल रात भी जागती रही। आज पिता के कहने पर सो तो गई, मगर एकदम निश्चिंत होकर नहीं। रह-रहकर नटवर पंडित का तीखा सुर उसे भी बेधता रहता। पिता ने अचानक पुकार लिया, तो उनके स्वर के आतंक में तारामती एकदम अचकचाकर उठ गई और उसकी आँखें सीधे शिवार्पण के चेहरे पर टिक गई - शिवार्पण!
लालटेन की रोशनी में उसका चेहरा जाने कब के मुर्झाए फूल-जैसा श्रीहीन दिख रहा था। जैसे सारी सुगंध उड़ चुकी हो। उसमें देह का ढाँचा तो था, लेकिन प्राण के चिह्न अंतर्धान मालूम पड़ते थे। कुछ क्षण टकटकी बाँधे देखने के बाद, वह लगभग चीख-सी उठी - 'क्या हो गया बाबू, शिवार्पण को?'
अभी तो... अभी तो कुछ ठीक ही जैसा था...' कहते-कहते, जनार्दन पंडा की आतंक-भरी आँखें फिर मृत्युंजय घाट की ओर मुड़ गईं। वहाँ गैसे के हंडों की रोशनी में अनेक मानव-आकृतियाँ छायाओं की तरह चलती-फिरती दिखाई दे रही थीं। जनार्दन को लगा कि तारामती की आँखों में जो प्रश्न उभरा है, वह मृत्युंजय घाट में अर्थी पहुँचने नहीं, बल्कि शिवार्पण की मृत्यु की आशंका के कारण। उन्होंने खिड़की बंद कर दी कि कहीं तारामती की भी आँखें श्मशानघाट की ओर उठ गईं, तो डरेगी और डरे हुए का साथ बीमार बच्चों के लिए और भी बुरा होता है।
खिड़की बंद कर लेने पर, जनार्दन पंडा ने शिवार्पण की ओर ध्यान दिया। अनुभवी होने के नाते, इतना उन्हें इत्मीनान था कि शिवार्पण ने अभी प्राण नहीं त्यागे हैं। तारामती का माथा सहलाते हुए, वे उसका ध्यान इस ओर से हटाने लगे कि शिवार्पण को कुछ हुआ है। साथ ही, धीरे-धीरे शिवार्पण की मुँदी आँखों को स्पर्श करते हुए। तभी शिवार्पण की आँखों के पपोटे मकड़ी के जाले में फँसी मक्खी के पंखों की भाँति थरथराए और सूखे ओंठ खड़खड़ा-सा उठे - 'बा-बा-बा'।
घने अरण्य से भरी घाटी में उसकी वह काँपती आवाज सन्नाटे को बिजली के कड़कने की तरह तोड़ती प्रतीत हुई जनार्दन पंडित को। एक अरण्य आदमी के भीतर भी तो है।
'जरा दूध-बताशा बना ले तो, तारा! कंठ सूख गया होगा छोरे का।' - आर्द्र स्वर में जनार्दन बोले।
उनकी आँखों के आँसू पोंछने को तारामती ने अपनी धोती का छोर बढ़ाया ही था कि उन्होंने उसका हाथ नीचे कर दिया। तारामती को लगा, शिवार्पण उसकी तरह स्वस्थ होता और वह शिवार्पण की जगह मरणासन्न पड़ी होती, तब शायद पिता की आँखों में यों आँसू न उमड़ते।
उसे एकाएक याद हो आया कि माँ कहा करती थी - 'जिनसे गोत-वंश आगे बढ़ता, पितरों को सद्गति मिलती, इहलोक-परलोक में तारण होता, वो अभागे तो ठहरते नहीं, मगर यह पराए घर की सौगात जो बेल-जैसी बढ़ती जा रही। आज कोई लड़का सात-आठ साल का होता, तो आँखों में सुख भरता...'
अपने होने की निरर्थकता की अनुभूति में, वह फफक-फफककर रोने लगी। जनार्दन पंडा का स्वर कुछ तीखा हो गया - 'क्यों री, अभी से विलाप क्यों करने लगी तू? अभी तो प्राण छूटे नहीं छोरे के...'
तो क्या यह सिर्फ इसलिए है, कि छोटे भाई मरें, तो विलाप करे आधी-आधी रात? और कोई उपयोग उसके अस्तित्व का नहीं?
अपने को समेटती वह रसोईघर की तरफ चली गई, दूध-बताशा बनाने। उसका उठकर चले जाना, जैसे स्थान बना गया और उधर सामने थोड़ी ही फासले पर के मकान से नटवर पंडित की आवाज और ज्यादा साफ सुनाई पड़ने लगी - ना तेरा, ना मेरा रे...
जनार्दन पंडा का मन फिर तिलमिला उठा। उन्हें लगा कि नटवर पंडित ने दो पतले बाँस कंधों पर रखे हुए हैं और अपने एकांत घर में, इस कोने से उस कोने, पाँव पटकता चिल्लाता फिर रहा है - राम-नाम सत्त हैं... राम-नाम सत्त हैं... राम-नाम सत्त हैं...
'पंडा जी!' तभी बाहर से किसी ने पुकार लिया। पुकारने वाले की आवाज और समय के अनुसार, जनार्दन ने अनुमान लगा लिया कि जरूर कोई अभी-अभी नीचे घाटी में पहुँची अर्थी के साथ का यात्री है।
अद्यःओम् विष्णुर्विष्णुर्विष्णु नमः परमात्मने श्री श्वेत वाराहकल्पे वैवस्वत मन्वंतरे अष्टार्विशतितमे युगे कलिप्रथमचरणे... यजमान, जनेऊ, बाईं ओर कर ली है न?'
जौ-तिल का तर्पण बड़े बेटे के हाथ में देते, जनार्दन पंडा बोले। बोलते-बोलते ही, उनका मन तर्पण विधि से हटकर, शिवार्पण पर चला गया - अभी तो शिवार्पण का यज्ञोपवीत-संस्कार भी नहीं हुआ? दुरगा पंडितानी की गति-क्रिया तो उन्होंने कर दी, उनकी सद्गति कौन करेगा? और अपने हाथों में जौ-तिल लेकर बाईं जनेऊ करके 'पितृप्रेतो तारणार्थ' कहेगा? गोदान, कालदान और स्वर्णदान करके उन्हें गोलोक भेजेगा? जब संततिहीन ब्रह्मार्षि पुंनरक में उल्टे लटकते रहे, तो उनकी न-जाने क्या गति होगी?
'तर्पण कराइए, महाराज! चिता तैयार हो चुकी।' किसी ने कहा तो जनार्दन पंडा झेप गए। अवसन्न कंठ से फिर तर्पण कराने में लग गए - 'कलि जुगे कलि प्रथम चरणे, राक्षस नाम संवत्सरे... दक्षिणायने...'
हे राम! कहीं तारामती ने दक्षिण वाली खिड़की न खोल दी हो, वहाँ से तो चिता की लपटें एकदम साफ दिखाई देती हैं। कहीं वह डर गई, तो शिवार्पण को भी औचक न लग जाए?
अनेकों बार, इसी मृत्युंजय घाट में जलती चिता के पास निर्विकार चित्त से बैठे-बैठे पिंड-दान और तर्पण, कपोतबंध आदि करा चुके जनार्दन। कभी-कभी एक चिता को अग्नि दिलवाकर, दूसरी अर्थी के पास प्रेत-कर्म निपटाने जाना पड़ा है।
जागेश्वर के तिथाण (तीर्थस्थान) में अंत्येष्टि से मोक्ष पाने दूर-दूर तक के लोग वृद्ध माता-पिता को यहाँ लाते रहे हैं। कभी-कभी तो दो-दो तीन-तीन चिताओं की लपटों को निष्काम आँखों से देखते हुए विषादग्रस्त यजमानों को सांत्वना देनी पड़ती कि नाशवार देह की अंतिम स्थिति यही अवश्यंभावी है। महाकाल मृत्युंजय के इस तीर्थ में सद्गति पा लेने पर फिर मनुष्य को पुनर्जन्म की व्याधि नहीं भोगनी पड़ती। आत्मा सनातन है, शरीर क्षणभंगुर।
नैनंछिदंति शस्त्राणि नैनं दहति पावक...
...मगर आज जनार्दन पंडा का चित्त एकदम उचाट हो रहा था। कुछ ऐसा लगता रहा कि देवदार के विशाल वृक्षों से घिरी घाटी में उनका बार-बार पुनर्जन्म हो रहा है और वैसे ही तत्काल अकाल अंत भी और अब पुंनरक चारों ओर चिता की लपटों से घिर गया है। किसी ठूँठ वृक्ष पर उल्टा लटका उनका आत्म-हंस हृदय-विदारक विलाप कर रहा है - शिवार्पण... शिवार्पण... शिवार्पण...
'अंत में, सब कुछ शिवार्पण ही होना है, महाराज, आप सत्य वचन ही कह रहे हैं।' एक आदमी ने महाकाल के मंदिर की ओर आँख उठाकर कहा, तो जनार्दन पंडा फिर काँप उठे - तो क्या मेरा शिवार्पण भी? लेकिन उसे तो पहले ही शिवार्पित कर चुका? हे राम...!
महाकाल शिव की पूजा-प्रतिष्ठा करते-करते, चतुर्थावस्था आ गई। मगर दुख जब भी घना होता, जनार्दन पंडा के मुँह से 'हे राम!' ही निकलता। काश कि एक बार किसी पुत्र को भगवान श्रीराम को अर्पित किया होता?
घृताहुति के साथ ही चिता में लपटें उठने लगीं, तो जनार्दन पंडा ने घी से चुपड़े हाथों को, जल्दी से पोंछ लिया और इतना कहते, चल पड़े - 'यजमान, दाह-संस्कार की क्रिया निबटा चुका। कपोत-बंधन के समय तक फिर आ जाऊँगा। घर में अकेली कन्या और बीमार बच्चा है। जरा उनकी भी सुधि ले लूँ...।'
श्मशान घाट से अपने घर की ओर की चढ़ाई चढ़ते में, जनार्दन को लगा कि घुटनों के जोड़ उतर गए। उन्हें कुछ भ्रम-सा हुआ कि पीछे-पीछे दुरगा पंडितानी चली आ रही है, और उनकी पीठ के पीछे अब तक के दिवंगत पुत्रों की कतार खड़ी है। और इसी कतार में, थोड़े-से ही फासले पर खड़ा है - शिवार्पण भी!
त्रास के मारे, उन्होंने तेज चलना शुरू किया। कुछ दूर आगे निकल चुकने पर एकदम पलटकर देखा, तो हवा में साँय-साँय करते देवदारु वृक्षों की पाँतों से उनकी आँखें ऐसे ढँप गईं, जैसे किसी ने घनी झाड़ियों से जलते दीपकों को ढाँप दिया हो।
एक अज्ञात आशंका से जनार्दन का हृदय काँप उठा - बालकों के तो पूर्ण संस्कार नहीं हुए थे, उनका प्रेतयानि में रह जाना संभव था। ...मगर, शिवार्पण की माँ तो सुहागिनी, पति के हाथों सद्गति पाकर गई थी, वह क्यों प्रेतछाया-सी भटक रही?
रात के सन्नाटे में जंगल और खेतों के किनारे के वृक्ष तक यही बोलते मालूम पड़ रहे थे - शिवार्पण! शिवार्पण! शिवार्पण! ...जनार्दन को लगा कि जैसे चारों ओर, हवा नहीं, दुरगा पंडितानी बिलखती भटक रही है... तो क्या बिना पुत्र के हाथों पिंड-काष्ठ पाए माता-पिता का सचमुच कोई तारण नहीं होता?
पुत्र-मोह में और अधिक अभिभूत हो उठे जनार्दन पंडा। पर घाटी से लगभग फर्लांग भर दूर है - ऊँचाई की तरफ घुटनों पर हाथ रख-रखकर चढ़ाई चढ़ते चले। घर के बाहर आँगन में थमकर, हाँफते-हाँफते दीवार का सहारा लेकर कान लगाते खड़े हो गए - शिवार्पण जीवित होगा, तो तारामती की लोरी सुनाई देगी, और यदि समाप्त हो गया होगा सब-कुछ, तो उनके सामने पड़ते ही वह एक मर्मवेधी चीख मारेगी! ओर फिर करुण विलाप गूँज उठेगा - शिवार्पण! शिवार्पण! शिवार्पण! और उधर नटवर पंडित अपने एकांत में बाँस कंधे पर धरे भजन गा रहा होगा - राम-नाम...राम...नाम
एकाएक भीतर किसी बाहर के व्यक्ति का बोलना-सा सुनाई पड़ा तो जनार्दन पंडा आश्चर्य से अभिभूत हो उठे। उन्होंने सुना, घर के अंदर नटवर पंडित बोल रहा है - बेटी तारा, इस संसार सागर में तो आखिर सभी-कुछ शिवार्पित ही होने वाला हुआ। तेरा भाई तो पहले ही शिवार्पित हो चुका, इसलिए यह जल्दी नहीं मरेगा। दीर्घायु प्राप्त करेगा।'
'अरे निष्ठुर ब्राह्मण! तू कब, कैसे और क्यों आ मरा हमारे घर में?' जनार्दन ने क्रोध से अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं। नटवर पंडित ने जैसे ठंडे स्वर में 'यह जल्दी नहीं मरेगा' कहा, उन्हें क्रोध में लगा, यह घोषित करते भी इस शख्स की आवाज काँपेगी नहीं कि - शिवार्पण मर चुका है।
'हे राम, अशगुन क्षमा करना!' कहते हुए, जनार्दन ने अपने दोनों कान पकड़े और अंदर को चल पड़े।
अरे, भाई जनार्दन! यों तारा बेटी को अकेली छोड़कर कहाँ चले गए थे? मसानघाट के सामने का घर। घर में बीमार बच्चा पड़ा हुआ। ऐसे में प्रेत-कर्म निबटाने को नहीं जाना था तुम्हें... भला! अरे, मुझसे कहा होता, मैं चला जाता! दान-दक्षिणा में जो-कुछ मिलता, तुझे ही सौंप देता। मेरा खाने वाला ही कौन हुआ?'
नटवर पंडित का कहा एक-एक शब्द कानों तक पक्षियों की भाँति उड़ता-सा पहुँचा। जनार्दन पंडा को लगा कि नटवर पंडित की बातों में उनके प्रति संवेदना भले ही नहीं, मगर प्रेत-कर्म निबटाने पर मिलने वाली दक्षिणा-सामग्री का लोभ भी दूर ही है।
'क्यों जनार्दन, यों काँप क्यों रहे हो भला? अरे, तुम्हें कुछ ठंड तो नहीं लग गई?' नटवर पंडित ने पूछा, तो पहले जनार्दन को कुढ़न-सी हुई कि आज की सी मनःस्थिति में भला शीत कहाँ लग सकती है, लेकिन फिर अनुभव हुआ कि देह शायद, सचमुच काँप रही।
तारा ने सहारा देकर बिस्तर पर लिटा दिया, तो लिहाफ ओढ़ने पर भी काँपते रहे। कुछ बुखार-सा अनुभव हुआ। शिवार्पण को देखने की सुध भी नहीं रही। कुछ देर-बाद ज्वर थोड़ा, टूटा, तो देखा कि नटवर पंडित शिवार्पण के सिरहाने बैठा झूम रहा है। सामने की दीवार पर उसकी गोखुरी चुटिया की छाया, रह-रहकर काले सर्प की तरह हिलती भासित हो रही थी।
भ्रमवश जनार्दन को ऐसा लगा, जैसे कोई यमदूत आकर बैठ गया है शिवार्पण के सिरहाने।
होर्त्त! जनार्दन जोर से चीख उठे। उन्हें लगा कि अपनी ब्रह्मशक्ति से उन्हें प्रेत को भगाना है, मगर नटवर पंडित ने, बड़े आत्मीय स्वर में धीमे से 'अरे जनार्दन! आज तेरे साथ कोई शिवजी का गण तो नहीं चला आया है?' पूछा तो खिसिया गए।
नटवर पंडित ने धीरे-धीरे पुस्तिका-जैसी खोली और जाने क्या-क्या कहते जनार्दन को मंत्रविद्ध-सा करते गए। एकाएक सुध आई कि जजमानों को आश्वासन देते आए थे, तो बोले-'नटवर भाई, दाह-संस्कार तो करा आया था। अब उतनी दूर जाने की शक्ति नहीं। चिंता निबटने को होगी। तू जरा कपोत बैठवा आता। दक्षिणा-सामग्री भी तू ही ले जाना! मसान लोभ का स्थान नहीं। दान-दक्षिणा पर उसका ही हक हुआ, जो पूरी अंत्येष्टि निबटाए।'
कई दिन बीते, जनार्दन का स्वास्थ्य दिन-पर-दिन गिरता ही चला गया। धीरे-धीरे, शिवार्पण के साथ, वो भी बिस्तर से लग गए। तारामती बेचारी ज्यादा घबरा गई। आजकल नटवर पंडित जरूर आ जाया करते। तारा को थोड़ा सहारा हो जाता। नटवर पंडित कभी-कभी खुद रात भर जागते और तारामती को सुला देते - 'तू सो जा, चेली! मैं तो दिन में नींद पूरी कर लूँगा। रात को तो उलूक पक्षी हुआ! भजनों में ही रात काटने की आदत-सी पड़ गई।'
अद्भुत लगता स्वयं को उलूक की श्रेणी में रखते हुए नटवर पंडित का इतना खुलकर हँसना। बिस्तर पर पड़े जनार्दन को लगता, चूहे फुदक रहे हें आस-पास। नटवर पंडित की छवि और अनुमान के विपरीत की हँसी से कुछ ऐसा भ्रम उत्पन्न होता, जैसे खुद रात ही खिलखिलाती हो।
कभी-कभी तो समय काटने का या भजन गुनगुनाने लगते नटवर पंडित, या उपदेश देने। जनार्दन को दोनों ही चीजें अप्रिय लगतीं, मगर विरोध नहीं कर पाते। ...लेकिन फिर एक दिन नटवर पंडित के उपदेशों ने, जैसे एकाएक ही, उनके ज्ञान-चक्षु खोल दिए ओर उन्हें यही विस्मय हुआ कि - हे राम, जिस नटवर पंडित को मैं मूर्ख और निष्ठुर समझता रहा, असली, ब्रह्मज्ञान तो इसी में निकला?
हुआ यों कि बात-बात में एक दिन, जनार्दन पंडा का दुख अचानक फूट पड़ा और बच्चों की तरह बिलख पड़े कि एक-एक कर इतने बेटे चले गए। पत्नी चली गई। जब-जब एक-एक की सुधि आती है, चेहरे इकट्ठा होने लगते हैं आस-पास और तब जीवन, मरण से भी कष्टकर लगता है। संततिशोक मनुष्य को कितना विदीर्ण कर देता, इसे कोई संततिवान ही जान सकता है। ...और अब कहीं यह शिवार्पण भी चला गया, तो...
नटवर पंडित ने उनके सारे विलाप को सुना तो जैसे मुँह से कान सटाकर, लेकिन जवाब में कतई नहीं कहा कि तुम मेरे निस्संतान होने पर चोट कर रहे हो। उन्होंने आसन-जैसा बाँधा और बोलते गए - 'ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या' कह रखा है जनार्दन! बहुत सांसारिक माया-ममता का जाल बुन रखा तूने अपने आस-पास इसी से बेहाल है। संतति-मोह का जो मधुमक्खियों का जैसा छत्ता तूने अपने में लगा रखा, पगले तू नहीं जानता कि दरअसल यह बर्रों का छत्ता ठहरा! ...शहद पाने के लालच में ही तो डंक-शूल सहता तू? ...जीव ने तो अपना समय पूरा करके विदा होना ही हुआ, तू शोक कर, न कर। तुझे वृथा मोह हो सकता है, तेरे दुश्मनों को तुझ पर दया क्यों आए?'
नटवर पंडित ने यह भी कहा - 'तू समझता है, नटवर पंडित मन का निष्ठुर है। किसी के जन्म-मरण के सुख-दुख इसे व्यापते नहीं। ...मगर, एक समय तक मैं भी तेरी ही तरह माया के जाल में फँसा, संतति-मोह में तड़पता रहता था। ...मगर जब से असली ज्ञान पाया, आत्मा को शिवलिंग की तरह कठोर बना लिया। वर्षों तक जलाभिषेक करने पर भी शिवलिंग कोरे-का-कोरा ही रहता। शिव को इसीलिए मृत्युंजय कहा है जनार्दन! जिस पुरुष ने चित्त कठोर बनाकर संतति-मोह से अपने को मुक्त कर लिया, वही मृत्युंजय पुरुष बन जाता, क्योंकि मोह ही तो मृत्यु है। माया-मोह जिसे न हो, उसे ही मृत्यु का भय-क्लेश भी नहीं व्यापता। स्वामी करुणानंद जी का प्रवचन भूल गया तू? क्या कहा था उन्होंने? शरीर को हम अपना समझते हैं - शरीर हमें अपना नहीं समझता! ये मेरे हाथ, मेरे पाँव, मेरे आँख कान हम कहते फिरते - इनको कभी कहते सुना कि तुम हमारे हो? सनातन संबंध उस अनादि परमात्मा का हुआ, जनार्दन, संतति का संबंध नहीं। संततिशोक छोड़ो। सामने रहे, तो भी मानो, कि हम भले ही इसको अपना कहें, हकीकत में तो यह भी उसी परतपिता का, जिसके हम!'
नटवर पंडित ने एक पुराण-कथा भी सुनाई - 'सुन, जनार्दन! एक समय एक ब्राह्मण के घर में एक-एक-कर, सात सुंदर-स्वरूपवान बच्चों ने जन्म लिया, मगर सब अल्पायु में ही मरते चले गए। वह ब्राह्मण था शिवभक्त। संततिशोक से विह्वल हो शिव की कठिन तपस्या शुरू कर दी। महाकाल ने उसे दर्शन दिए और वरदान माँगने को कहा, तो ब्राह्मण ने कहा - 'मुझे अपने सातों पुत्र चाहिए, प्रभो!' ...तो भाई जनार्दन शिवजी बोले - 'तथास्तु!' और उस ब्राह्मण को लेकर पहुँचे यमलोक। वहाँ एक वृक्ष पर उन्होंने ब्राह्मण को अपने साथ बिठा लिया कि अभी थोड़ी देर में तुम्हारे बेटे यहीं आएँगे। थोड़ी देर ध्यानपूर्वक और धैर्य के साथ उनकी बातें सुनना, फिर साथ ले जाना। सुन रहा है, भाई पुराण-कथा?'
'सुन रहा हूँ पंडित!'
'तो सुन! थोड़ी ही देर के बाद, वहाँ पर एक-एक कर, ब्राह्मण के सातों पुत्र इकट्ठा हुए, तो आपस में बोलने-बतियाने लगे। सब उस ब्राह्मण को गाली देते और हर एक यही कहता कि - क्या करूँ, मैं तो ज्यादा बचा ही नहीं, तो पूँजी के साथ ही ब्याज भी वसूल कर लाता। ऐसा रुलाता ब्राह्मण को कि भूल जाता बनिए का ऋण मारना। क्यों सुन तो रहा है ना, जनार्दन?'
'कहते जाओ, नटवर!'
उन सातों में एक भी ब्राह्मण नहीं ठहरा। कोई सूदखोर बनिया, तो कोई चांडाल। कोई कुछ और। सब इस बात पर अट्टहास करते कि - यारो, जब मैं अपने ऋण वसूलकर, लौटने की तैयारी में था, तो मूर्ख ब्राह्मण मुझको मरता हुआ समझ, अपने कलेजे से लगा-लगाकर, 'हाय मेरे पूत, हाय मेरे प्राण!' बिलखता और दुख से विलाप करता था। कहता था - हे राम, मेरे प्राण ले लो, मगर बालक को मुझसे मत छीनो! ...और मुझे उसकी मूर्खता पर रह-रहकर हँसी आती। ऐसे ही प्रत्येक अपनी वसूली की कथा सुनाता और फिर सब एक साथ ठहाके लगाते। ...तो, भाई जनार्दन, अंत में उस ब्राह्मण को भी यही ज्ञान प्राप्त हुआ - अरे, जिन ससुरों को मैं अपना बेटा समझता था, ये तो सूदखोर बनिए और चांडाल निकले! ...बस, तब से उस ब्राह्मण ने मिथ्या माया-ममता के जाल से अपने को मुक्त कर लिया और महाकाल की सेवा में लग गया। अंत में उसे परमधाम की प्राप्ति हो गई।'
'लेकिन नटवर पंडित, बिना पुत्र के हाथों पिंड-काष्ठ पाए परमधाम कैसे मिल सकता भला?'
'जिन पुत्रों के जीते-जी नरकधाम में रहना पड़े, उनके हाथों के पिंड-काष्ठ से परमधाम की प्राप्ति कैसे हो सकती, जनार्दन? परमधाम की प्राप्ति का एकमात्र उपाय हरि-भजन है। तुझे भी यही समझकर संतोष करना चाहिए कि ससुरे जितने चले गए, सब सूदखोर बनिए थे। एक यह है, तो अगर सपूत न होकर, वही सूदखोर निकला तो ऋण उतरते ही यह भी चला जाएगा। एक जो दुरगा भौजी इन सूदखोरों का निमित्त थी, वह भी चली गई। तुझे अब, स्वयं को ऋणमुक्त हुआ, ऐसा अनुमान करते हुए, हरिभजन में चित्त लगाना चाहिए। तेरे मन का सारा शोक-संताप स्वयं छेंट जाएगा। संत तुकाराम की शादी हुई, तो कहा, रोटी बेलने वाली मिली - भजन को पूरा समय मिलेगा। पत्नी मर गई तो बोले - समय लेने वाली गई, अब पूरा समय भजन को है। देख, यह बेटी ही तेरा सच्चा धन है। कन्या के हाथों का जल, पुत्रों के पिंड-काष्ठ से ज्यादा पवित्र होता है, जनार्दन! ...मगर मोह ज्यादा इसके प्रति भी मत रखना, क्योंकि धन चाहे सच्चा हो, या झूठा, जाने को शोक व्यापता जरूर है। सत्तर की उम्र होने को आई तेरी भी। जीवन पर्याप्त हुआ। साल-दो साल में बिटिया के हाथ पीले करके खुद भी चलते बनो, तो इसमें शोक क्या हैं?'
कहना पूरा करके, नटवर पंडित ने फिर ठहाका लगाया था - 'मैं खुद उधर चलने की तैयारी में ही तो रात-भर भजन गाता कि गाते-बजाते चलो। गाते-गाते चल निकलो। ...धाम वही, जो सदा को है। यहाँ काल के अधीन रहना है। यहाँ मुक्ति कहाँ है...'
बस, उस दिन से जनार्दन पंडा कि विह्वलता भी छँटती गई। देह तो नहीं सँभल सकी, मगर चित्त शांत हो गया। अब शिवार्पण के प्रति भी मोह कम हो चला और आखिर-आखिर जनार्दन हरि का नाम लेते, परमधाम को चल दिए। ...हालाँकि विवाह तो नहीं हो पाया, तारामती का उनके जीवित रहते, मगर वाग्दान करते गए।
शिवार्पण के बारे में जाति-बिरादरी के लोगों का यही विचार था कि यह शिवार्पित बालक शिव की तरह ही संहारक सिद्ध हुआ है। अब तो माता-पिता भी मर चुके। ऐसे संहारक और रुग्ण बालक को कौन आश्रय दे? सभी समझते कि जब तक जिएगा, तारा ही सँभालेगी! ...मगर एक दिन वह भी छोड़कर ननिहाल भाग गई। उस आतंक-भरे घर में मरणासन्न शिवार्पण के साथ अकेले रहने की ताब उसमें नहीं थी।
मगर शिवार्पण नहीं मरा। तारामती के भागने के बाद, लोगों की आँखों में फिर यही प्रश्न उभरा - अब कौन सँभालेगा इसे? लेकिन जब तक में तारा ननिहाल से किसी को साथ लिए लौटती, शिवार्पण को नटवर पंडित अपने घर उठा ले गए। लोग चकित कि यह अजूबा क्यों घटित हुआ।
तारा मामा के साथ लौटी, मगर नटवर पंडित ने शिवार्पण को वापस नहीं किया। बोले - 'इस अपंग का तुम लोग क्या करोगे? फिर यह तारा भी तो वाग्दत्ता ठहरी। तुम मामा हुए, पितृतुल्य ही ठहरे, तुम इसके विवाह की सोचो।'
इस घटना के कई-एक दिनों के बाद की बात है। नटवर पंडित शिवार्पण को बाहर धूप में लिटाकर, उसके कमजोर पाँवों की तेल-मालिश कर रहे थे कि गाँव के कई लोग आस-पास जुट आए और कौतूहल-भरी आँखों से घूरते रहे।
नटवर पंडित ने उनके मंतव्य को भाँप लिया। और तेल-मालिश से निबटकर, आस-पास इकट्ठा हुए लोगों की जिज्ञासा को इन थोड़े-से शब्दों में ही शांत कर दिया - 'यारो, आँखें फैला-फैलाकर क्या ताक रहे हो? गोद ले लिया है मैंने शिवार्पण को! खुद के हिस्से का ऋण उतारकर, जनार्दन चला गया! ...अपने हिस्से का ऋण अब मुझे उतारना है।
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