सुधीर तन्हा
कभी कश्ती कभी मुझको किनारा छोड़ जाता है।
ये दरिया प्यार का प्यासे को प्यासा छोड़ जाता है।।
भूलाना भी जिसे मुमकिन नहीं होता कभी अक्सर।
कई सदियों को पीछे एक लम्हा छोड़ जाता है।।
मैं जब महसूस करता हूँ मेरा ये दर्दे दिल कम है।
वो फिर से राख में कोई शरारा छोड़ जाता है।।
मैं जब भी ज़िंदगी के गहरे दरिया में उतरता हूँ।
भँवर की आँख में कोई इशारा छोड़ जाता है।।
तलब से भी ज़ियादा देना उसकी ऐन फ़ितरत है।
मैं क़तरा माँगता हूँ और वो दरिया छोड़ जाता है।।
वो मेरा हमसफ़र कुछ दूर चलकर साथ में 'तन्हा' ।
मेरी ख़ातिर वही पेचीदा रस्ता छोड़ जाता है।।
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