अवधेश कुमार यादव
साभार
http://chauthisatta.blogspot.com/2016/01/blog-post_29.html
प्रजातांत्रिक देशों में सत्ता का संचालन संवैधानिक प्रावधानों के तहत होता है। इन्हीं प्रावधानों के अनुरूप नागरिक आचरण करते हैं तथा संचार माध्यम संदेशों का सम्प्रेषण। संचार माध्यमों पर राष्ट्रों की अस्मिता भी निर्भर है, क्योंकि इनमें दो देशों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध को बनाने, बनाये रखने और बिगाड़ने की क्षमता होती है। आधुनिक संचार माध्यम तकनीक आधारित है। इस आधार पर सम्पूर्ण विश्व को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहला- उन्नत संचार तकनीक वाले देश, जो सूचना राजनीति के तहत साम्राज्यवाद के विस्तार में लगे हैं, और दूसरा- अल्पविकसित संचार तकनीक वाले देश, जो अपने सीमित संसाधनों के बल पर सूचना राजनीति और साम्राज्यवाद के विरोधी हैं। उपरोक्त विभाजन के आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व वर्तमान समय में भी दो गुटों में विभाजित है। यह बात अलग है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के तत्काल बाद का विभाजन राजनीतिक था तथा वर्तमान विभाजन संचार तकनीक पर आधारित है।
अंतर्राष्ट्रीय संचार : अंतर्राष्ट्रीय संचार की अवधारणा का सम्बन्ध मानव सभ्यता के साथ जुड़ा हुआ है, क्योंकि मानव जैसे-जैसे विकास की ओर अग्रसर होता गया, वैसे-वैसे अन्य देशों की सूचनाओं और सांस्कृतियों गतिविधियों के संदर्भ में जानने का प्रयत्न करने लगा। परिणामतः अंतर्राष्ट्रीय संचार की अवधारणा का सूत्रपात हुआ। सभ्यता के विकास के प्रारंभिक युग में 'देशाटन' एक मात्र अंतर्राष्ट्रीय संचार का माध्यम था, जिसके तहत एक देश के नागरिक समूह बनाकर जल-थल मार्ग से दूसरे देश का भ्रमण करते थे तथा वहां के नागरिकों से मिलकर एक-दूसरे की सांस्कृतिक गतिविधियों से परिचित होते थे। इसके बाद, स्वदेश लौटकर अपने समाज के लोगों को यात्रा-वृतांत सुनाते तथा दूसरे देशों की संस्कृति के बारे में जानकारी देते थे।
अंतर्राष्ट्रीय संचार के क्षेत्र में तकनीकी का उपयोग 18वीं शताब्दी में सर्वप्रथम ब्रिटेन ने अपने विदेशी उपनिवेशों में सत्ता पर शासकीय नियंत्रण बनाये रखने के लिए किया। इसके लिए सम्रुद्री केबल लाइन की सहायता से संदेशों का आदान-प्रदान किया जाता था। हालांकि, इसमें सामान्य जनों की सहभागिता नहीं होती थी। सामान्य जन 'देशाटन' के माध्यम से ही अंतर्राष्ट्रीय संचार का कार्य करते थे। बाद में मुद्रण तकनीक के उद्भव व विकास के बाद पुस्तकों के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय संचार का कार्य किया जाने लगा।
अंतर्राष्ट्रीय संचार और समाचार समिति: प्रिण्ट माध्यमों के विकास के बाद अंतर्राष्ट्रीय संचार के क्षेत्र में समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं का उपयोग किया जाने लगा। बंदरगाहों पर नियुक्त संवाददाता नाविकों और यात्रियों से वार्तालाप कर अंतर्राष्ट्रीय समाचारों का संकलन करते थेे। ऐसे समाचारों में निष्पक्षता व प्रमाणिकता का अभाव था, जिसके चलते एक निश्चित स्थान पर विश्वसनीय स्रोतों से समाचारों के संकलन और प्रकाशन के लिए उपलब्ध कराने की आवश्यकता महसूस की गई, जिसके चलते समाचार समिति (News Agency) की परिकल्पना का जन्म हुआ। फ्रांसीसी नागरिक चाल्र्स आवास को आधुनिक समाचार समिति का जनक कहा जाता है, जिसने सन् 1825 में 'न्यूज ब्यूरो' नामक दुनिया की पहली समाचार समिति स्थापित की तथा समाचार संकलन के लिए यूरोपीय देशों की राजधानियों में संवाददाता नियुक्त किया। प्रारंभ में आवास अपने ग्राहकों तक विशेष वाहक या डाक विभाग की सहायता से देश-दुनिया के समाचारों को उपलब्ध कराया। बाद में, इस कार्य के लिए तार का उपयोग करने लगा। सन् 1840 में आवास ने प्रायोगिक तौर पर पेरिस, लंदन एवं ब्रुसेल्स के बीच कबूतरों के माध्यम से समाचार भेजने का कार्य प्रारंभ किया, जो अंतर्राष्ट्रीय संचार का अनोखा उदाहरण है। इससे 'न्यूज ब्यूरो' को अत्यधिक लोकप्रियता मिली। सन् 1848 में चाल्र्स आवास ने 6 से 10 किलोमीटर की दूरी पर टाॅवर बनाकर टेलीस्कोपी की सहायता से समाचारों को भेजना प्रारंभ किया। इसी साल टेलीग्राफ से समाचार भेजने की प्रणाली विकसित हुई। सन् 1849 में आवास के दो कर्मचारियों ने स्वतंत्र रूप से समाचार समिति का गठन किया। इनमें पहला था- बर्नार्ड वोल्फ, जिसने 'वोल्फ' नामक समाचार समिति शुरू की। हालांकि, बर्नार्ड वोल्फ ने एक साल पहले ही प्रायोगिक तौर पर बर्लिन से 'नेशनल जीतंुग' शीर्षक से स्टॉक एक्सचेंज का भाव देना प्रारंभ कर दिया था। दूसरा था- जर्मनी का जुलियस रायटर था, जिसने 'रायटर' नामक समाचार समिति का गठन किया। जुलियस रायटर की समाचार समिति ने समाचार संकलन और वितरण के लिए डाकतार एवं रेलवे का भरपूर उपयोग किया।
समाचार समिति का उद्भव भले ही यूरोपीय देशों में हुआ, लेकिन इसके प्रभाव से अमेरिका अछूता नहीं रहा। सन् 1848 में न्यूयार्क के कुछ समाचार-पत्रों ने मिलकर 'हार्बर न्यूज एसोसिएशन' नामक समाचार समिति का गठन हुआ, जो नौकाओं के माध्यम से अंतर्राष्ट्रीय समाचार प्रेषित करती थी। सन् 1850 में 'जनरल न्यूज एसोसिएशन' का गठन हुआ। सन् 1857 में दोनों का 'नेशनल न्यूयार्क एसोसिएटेड प्रेस' के रूप में विलय हो गया। इस समिति ने यूरोप के समाचारों के लिए 'आवास' और 'रायटर' के साथ व्यापारिक समझौता किया, जो अंतर्राष्ट्रीय संचार के विकास का उदाहरण है। हालांकि यह समझौता लम्बे समय तक चल नहीं सका। इसी दौरान एक नई समाचार समिति 'यूनाइटेड प्रेस एसोसिएशन' का गठन हुआ, जिसका सन् 1909 में 'यूनाइटेड प्रेस इंटरनेशनल' नामक एक नई समाचार समिति में विलय हो गया। यूरोप की तीनों समाचार समितियों- 'आवास', 'वोल्फ' व 'रायटर' ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कार्य करने का निर्णय लिया। इससे अंतर्राष्ट्रीय संचार माध्यम के रूप में समाचार समिति का विकास व विस्तार को गति मिली।
अंतर्राष्ट्रीय सूचना-प्रवाह : द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-1945) के बाद का विश्व राजनीतिक आधार पर दो गुटो में विभाजित था। एक गुट का साम्राज्यवादी अमेरिका तथा दूसरे गुट का साम्यवादी सोवियत संघ नेतृत्व करने लगा। इनके बीच भारत जैसे कुछ तीसरी दुनिया के विकासशील देश थे, जो धीरे-धीरे विदेशी उपनिवेश से स्वतंत्र हो रहे थे। इनमें अधिकांश देश कमजोर आर्थिक स्थिति वाले थे, जिनकी न तो अंतर्राष्ट्रीय सूचना-प्रवाह में कोई योगदान था और न तो इसके महत्व को समझ पा रहे थे। अमेरिकी विदेश मंत्री 'विलियम वेन्स' ने विकसित देशों के हित में अंतर्राष्ट्रीय सूचना-प्रवाह पर जोर दिया। इसके लिए संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) का उपयोग भी किया।
इस प्रकार, अमेरिका समेत पश्चिम के विकसित देशों का अंतर्राष्ट्रीय सूचना-प्रवाह पर एकाधिकार और मजबूत हो गया। विकसित देश अपनी समाचार समितियों के माध्यम से जैसा चाहते थे, वैसी सूचना दुनिया को उपलब्ध कराने लगे। एक तरफा प्रवाह के कारण विकसित देशों की सूचनाओं को विकासशील देश ज्यों का त्यों स्वीकार करने को विवश थे। पश्चिमी देशों की समाचार समितियों द्वारा सम्प्रेषित सूचनाएं विकासशील देशों के अनुरूप नहीं होती थी। इन सूचनाओं में विकासशील देशों के नकारात्मक पक्ष को प्रमुखता से तथा सकारात्मक पक्ष को दबाकर या विकृत रूप में प्रचारित किया जाता था। विकसित देशों की सूचना राजनीति को तीसरी दुनिया के विकासशील देश शीघ्र ही समझ गए और अंतर्राष्ट्रीय मंचों के माध्यम से भनई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था्य की मांग करने लगे।
नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था (NWICO) : अंतर्राष्ट्रीय संचार के इतिहास की पड़ताल से पता चलता है कि नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था की मांग का प्रमुख कारण विकसित देशों द्वारा असंतुलित सूचना प्रवाह था। इसके अलावा भी कई अन्य थे, जिसके चलते तीसरी दुनिया के विकासशील देश पहली दुनिया के विकसित देशों के खिलाफ लामबन्द होने लगे। यथा-
1. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद छोटे-छोटे साम्राज्यों के टूटने से नये देशों का अभ्युदय।
2. पश्चिमी के औद्योगिक व विकसित देशों का नये देशों के साथ सम्बन्ध, जिससे पश्चिमी देशों का आर्थिक और राजनैतिक प्रभाव का लगातार बढ़ना।
3. यू.एस. और यू.एस.एस.आर. के आक्रामक प्रभाव से परेशान होकर नये देशों का गुटनिरपेक्ष देशों के साथ जुड़ना।
4. अंतर्राष्ट्रीय संगठनों- यू.एन.ओ. और यूनेस्को में विकसित देशों का वर्चस्व।
इस मुद्दे को विकासशील देशों ने गुट निरपेक्ष आंदोलन (G-77), संयुक्त राष्ट्र संघ (UNO) तथा संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक वैज्ञानिक सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में प्रमुखता से उठाया। अल्जीरिया में आयोजित (5-9 सितम्बर, 1975) गुट निरपेक्ष देशों के चतुर्थ सम्मेलन में अंतर्राष्ट्रीय संचार को बढ़ावा देने के लिए नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था (NWICO) की मांग की गई। इस सम्मेलन में 75 सदस्य देश तथा 24 पर्यवेक्षक देश और तीन अतिथि देश सम्मलित हुए थे। इस मुद्दे पर सन् 1976 में ट्यनिस एवं कोलम्बो सम्मेलन में भी विचार-विमर्श किया गया।
अंतर्राष्ट्रीय संचार व्यवस्था पर आधारित विचार-विमर्श का प्रमुख केन्द्र होने के कारण यूनेस्को नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था (न्यूको) की स्थापना के लिए प्रयास किया। इसके लिए मैकब्राइड आयोग का गठन और सम्मेलन का आयोजन किया। सन् 1980 में यूनेस्को के सामान्य अधिवेशन में नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था (NWICO) के लिए निम्नलिखित दिशा-निर्देशों का निर्धारित किया:-
1. वर्तमान संचार व्यवस्था में व्याप्त असंतुलन को समाप्त करना।
2. एकाधिकारी, सार्वजनिक, निजी और अति केन्द्रीकृत व्यवस्था के नकारात्मक प्रभाव को समाप्त करना।
3. विचारों एवं सूचनाओं के स्वतंत्र प्रवाह एवं विस्तारीकरण के मार्ग में आने वाली आन्तरिक एवं वाह्य बाधाओं को दूर करना।
4. सूचना के साधनों एवं माध्यमों की संख्या में बढ़ोत्तरी करना।
5. सूचना एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करना।
6. पत्रकारों एवं जनमाध्यमों से जुड़े लोगों की उत्तरदायित्वपूर्ण स्वतंत्रता सुनिश्चित करना।
7. विकासशील देशों को उनकी क्षमता के अनुरूप उपकरण व प्रशिक्षण में वृद्धि करना और आधारभूत सुविधाओं, आवश्यकताओं एवं उद्देश्यों के अनुरूप् संचार व्यवस्था का विकास करना।
8. विकसित देशों में इन उद्देश्यों की प्राप्ति में सहयोग करने की भावना जागृत करना।
9. एक दूसरे की सांस्कृतिक पहचान और प्रत्येक देश को अपने व्यापक सामाजिक और सांस्कृतिक हित के बारे में विश्व को सूचित करने के अधिकार का सम्मान करना।
10. सूचना के अंतर्राष्ट्रीय आदान-प्रदान के संदर्भ में वैयक्तिक अधिकारों का सम्मान करना।
11. प्रत्येक व्यक्ति की सूचना एवं संचार व्यवस्था में सहभागिता के अधिकार का सम्मान करना।
नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था ही तीसरी दुनिया के देशों के विकास का प्रमुख साधन है। इसके लिए विकासशील देश लगातार प्रयत्नशील हैं।
मैकब्राइड आयोग : यूनेस्को ने सन् 1977 में एक अंतर्राष्ट्रीय आयोग का गठन किया, जिसके अध्यक्ष आयरलैण्ड के पूर्व विदेशमंत्री सीयेन मैकब्राइड थे। इस आयोग में कनाडा के विश्व विख्यात संचारविद् मार्शल मैकलुहान के अलावा मिचियो नगाई, मुस्तफा मसमूदी, मोक्तर लूविस, एल्बे मा एकेंजो समेत कुल 15 संचार विशेषज्ञ, शिक्षाविद्, पत्रकारिता एवं प्रसारण विशेषज्ञों को सदस्य बनाया गया था। मैकब्राइड आयोग ने नई अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में विकासशील देशों की आवश्यकता को केन्द्र में रखकर सूचना के मुक्त एवं संतुलित प्रवाह की समस्या का अध्ययन किया तथा 82 महत्वपूर्ण सुझाव दिये। अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद मैकब्राइड आयोग स्वतः समाप्त हो गया।
सन् 1980 में मैकब्राइड आयोग ने 'दुनिया एक - विचार अनेक' (Many Voices One world) शीर्षक से अपनी अध्ययन रिपोर्ट प्रस्तुत किया, जिसमें पश्चिमी देशों के संचार माध्यमों के साम्राज्यवादी एवं एकाधिकारवादी प्रभुत्व पर चिन्ता व्यक्त की गई थी। इस रिपोर्ट में यूनेस्को ने बेलग्रेड सम्मेलन में प्रस्तुत किया। इस दौरान पश्चिम के विकसित देशों ने मैकब्राइड आयोग के सुझावों को मानने से इंकार कर दिया। मैकब्राइड आयोग का सुझाव था कि- 'संचार माध्यमों का सामाजिक या आर्थिक नीति के औजार के रूप में उपयोग किया जाना चाहिए।' जबकि पश्चिमी देशों का तर्क था कि- 'संचार माध्यमों को अपने उद्देश्य का निर्धारण और क्रियान्वयन के मापदण्डों का स्वयं निर्धारित करना चाहिए, न कि सरकारों या अंतर्राष्ट्रीय संगठनों को।'
बेलग्रेड बैठक में जिन प्रस्तावों को स्वीकृति मिली, उनमें सबसे महत्वपूर्ण यह है कि सभी सदस्य देशों से आह्वान किया गया कि वे अपनी राष्ट्रीय संचार क्षमताओं का विकास करें और विचार, अभिव्यक्ति एवं सूचना की स्वतंत्रता की रक्षा की मूल आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए संचार के विकास की रणनीति का हिस्सा बनाये। साथ ही यूनेस्कों से अपेक्षा की गई कि वह सूचना और संचार के नए क्षेत्र में समस्याओं की पहचान करने तथा उनके समाधान में निर्णायक भूमिका का निर्वाह करें। इसके बावजूद किसी प्रकार का अंतर्राष्ट्रीय कानून बनाने का निर्णय नहीं लिया। अंतर्राष्ट्रीय संचार एवं सूचना प्रवाह के संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय कानून बनाने का सबसे पहले अमेरिका ने विरोध किया और वह यूनेस्को से अलग हो गया। बाद में ब्रिटेन ने भी अमेरिका की राह पर चलना प्रारंभ कर दिया और वह भी अलग हो गया।
गुट निरपेक्ष समाचार समिति पूल : जुलाई 1976 में गुट निरपेक्ष देशों का सम्मेलन नई दिल्ली में हुआ, जिसमें अंतर्राष्ट्रीय संचार के दौरान असंतुलित सूचना प्रवाह पर चिन्ता व्यक्त की गई तथा गहन विचार-विमर्श के बाद प्रस्ताव पारित कर नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था के तहत गुट निरपेक्ष समाचार समिति पूल का गठन किया गया। इसके तहत गुट निरपेक्ष देशों की समाचार समितियों के बीच समाचारों के आदान-प्रदान की व्यवस्था की गई। इस पूल का भारत सन् 1976 से 1979 तक प्रथम संस्थापन अध्यक्ष बना। इसका कार्य क्षेत्र विश्व के चारों महाद्वीपों- एशिया, पूर्वी यूरोप, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका तक फैला हुआ है। गुट निरपेक्ष समाचार समिति पूल के माध्यम से चार भाषाओं- अंग्रेजी, फ्रेंच, स्पेनिष और अरबी में समाचारों का आदान-प्रदान किया जाने लगा।
पूल की गतिविधियों को संचालन एक निर्वाचित संस्था के द्वारा किया जाता है, जिसे समन्वय समिति भी कहा जाता है। पूल की अध्यक्ष का कार्यकाल तीन वर्ष का होता है। समन्वय समिति के सदस्यों का चयन क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व, निरंतरता, सक्रिय सहभागिता और क्रम के आधार पर किया जाता है। भारत में न्यूज पूल डेस्क संचालन भप्रेस ट्रस्ट आॅफ इंडिया्य ;च्ण्ज्ण्प्ण्द्ध द्वारा किया जाता है।
भारत की भूमिका: अंतर्राष्ट्रीय संचार के क्षेत्न में नई विश्व सूचना एवं संचार व्यवस्था (NWICO) की स्थापना और विकास में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, क्योंकि भारत न्यूको की लक्ष्य प्राप्ति और सिद्धान्तों के पुनः निर्माण, रक्षा और आगे बढ़ाने के लिए सदैव प्रयत्नशील रहा है। सन् 1978 में आयोजित यूनेस्कों के 20वीं सम्मेलन में भारत के प्रतिनिधि मण्डल ने श्रीलंका के प्रतिनिधियों के साथ मिलकर पूरब-पश्चिम देशों के तनाव को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसका उल्लेख जनसंचार माध्यम घोषणा में भी किया गया है। नई विश्व सूचना एंव संचार व्यवस्था के लक्ष्य अन्तर्राष्ट्रीय संचार में सामन्जस्य स्थापित करने के लिए सूचना के संतुलित प्रवाह की व्यवस्था करना है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत की अगुवाई में गुट निरपेक्ष समाचार समिति पूल का गठन किया गया। इसके अलावा, भारत सरकार द्वारा विकासशील देशों के प्रतिनिधियों के प्रशिक्षण के उद्देश्य से नई दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान में कई प्रकार के कार्यक्रम संचालित किया जा रहा है।
निष्कर्ष : उपरोक्त प्रयासों के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय संचार के क्षेत्र में विकसित देशों का वर्चस्व कायम है। इसका ज्वलन्त उदाहरण खाड़ी और अफगानिस्तान युद्ध के दौरान अमेरिकी संचार माध्यमों द्वारा प्रसारित भ्रामक सूचना। युद्ध से जुड़ी वास्तविक सूचना को प्रसारित कर भअलजजीरा्य ने अमेरिकी संचार माध्यमों को बेपर्दा किया तो उनके स्टूडियो पर हमला किया गया। द्वितीय खाड़ी युद्ध में अमेरिका ने एक तरह से अघोषित सेंसरशिप लागू किया था, क्योंकि अमेरिकी संचार माध्यमों पर उन्हीं सूचनाओं व समाचारों का प्रसारण व प्रकाशन किया जाता था, जो अमेरिकी शासन की नीतियों के अनुरूप होती थी। इसके विपरीत प्रसारण या प्रकाशन करने का प्रयास करने वालों को सेंसर और शस्त्र के बल से दबाने का पुरजोर प्रयास किया। उपरोक्त घटनाओं से स्पष्ट है कि अंतर्राष्ट्रीय संचार में सूचनाओं के राजनीतिक इस्तेमाल की प्रवृत्ति बढ़ी है। इससे जहां सूचना व समाचार का स्वतंत्र व निष्पक्ष प्रवाह बाधित हो रहा है, वहीं सूचना प्राप्त करने के वैयक्तिक अधिकार का हनन भी हो रहा है।
अंतर्राष्ट्रीय सूचना प्रवाह की निष्पक्षता, स्वतंत्रता और निरंतरता संचार माध्यमों की परस्पर निर्भरता पर आश्रित होती है। अंतर्राष्ट्रीय संचार के दौरान एक देश के संचार माध्यम व समाचार समिति द्वारा दूसरे देश के संचार माध्यम व समाचार समिति को सूचना देने से समाचार का सतत् प्रवाह होता है। इसके लिए जितना सूचनाओं एवं समाचारों का संकलन अनिवार्य है, उतना ही उसे पाठकों व दर्शकों तक पहुंचाना। वैश्वीकरण के मौजूदा दौर में संचार माध्यमों के अंतर्राष्ट्रीयकरण के कारण विकासशील देशों के समक्ष सांस्कृतिक पहचान खोने का खतरा है, क्योंकि विकसित देश मीडिया उत्पाद (संचार माध्यमों में प्रकाशित व प्रसारित होने वाली सामग्री) के निर्यातक है। इनका निर्माण निर्यातक देश अपने सांस्कृतिक परिवेश को ध्यान में रखकर करते हैं। आयातक देश उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर पाते हैं। इस प्रकार, आयातक देशों के समक्ष अपनी सांस्कृतिक पहचान खोने का खतरा मड़रा रहा है। वर्तमान समय में पश्चिमी देश अपने मीडिया उत्पाद के माध्यम से अपरोक्ष रूप से सांस्कृतिक सामाज्यवाद स्थापित कर रहे हैं, जिससे सांस्कृतिक सामाज्यवाद का विस्तार होता है।
21वीं शताब्दी के मौजूदा दौर में अंतर्राष्ट्रीय संचार मानव जीवन का अनिवार्य अंग बन चुका है। इस दिशा में पिछले पांच दशकों से निरंतर विकास हो रहा है। वर्तमान समय में ऐसी वैश्विक परिस्थिति बन चुकी है कि विश्व की अद्यतर घटनाओं एवं सूचनाओं की जानकारी प्राप्त करने को मानव हर पल उत्सुक है, जिसमें आधुनिक संचार माध्यम (प्रिण्ट, इलेक्ट्राॅनिक व वेब) मदद करते हैं। इन संचार माध्यमों के कारण अंतर्राष्ट्रीय संचार बेहद आसान होने के कारण लगता है कि सूचना का मुक्त प्रवाह हो रहा है।
(प्रतियोगिता दर्पण अगस्त, 2015 में प्रकाशित)
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