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भारतीय उच्च शिक्षा में मूल्य एवं गुणवत्ता



डाॅ0 नरेन्द्र पाल सिंह 


उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हमारे देश में पर्याप्त विकास एवं विस्तार हुआ है, उच्च शिक्षा की प्रगति का विश्लेषण करें तो पता चलता है कि यह वृद्धि संख्यात्मक रूप से उल्लेखनीय है किन्तु गुणात्मक रूप से तो इसमें कमी आयी है। देश में प्रदान की जा रही शिक्षा को उसके भविष्य के रूप में देखा जाता है, क्योंकि हम जैसी शिक्षा अपनी वर्तमान पीढ़ी को देंगे वैसा ही उसका भविष्य भी होगा। वर्तमान उच्च शिक्षा व्यवस्था का मूल्यांकन सही रूप से न हो पाने के कारण, उच्च शिक्षा की कमजोरियों के लिये आर्थिक मजबूरियों को दोषी माना जाता है। उच्च शिक्षा के लिये संसाधनों की उतनी कमी नहीं है जितनी कि अच्छे प्रबन्धन की है। महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों पर सरकार अथवा इनका प्रबन्धन चाहे जितना खर्च कर ले तब तक सुधार सम्भव नहीं है जब तक कि इनके अच्छे प्रबन्धन पर जोर नहीं दिया जाता। उच्च शिक्षा का उद्देश्य, प्रशासन, उद्योग, वाणिज्यिक व्यवसाय व ज्ञान-विज्ञान में अधिकतम नेतृत्व करना तथा राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना उत्पन्न कर, जीवन को सांस्कृतिक रूप से समृद्ध करना है, अर्थात् यदि किसी राष्ट्र द्वारा मानवीय संसाधनों के त्वरित विकास पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता तो वह राष्ट्र अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों में भी समुचित विकास नहीं कर पाता। मानवीय संसाधनों के ज्ञान, कुशलता, क्षमता और दक्षता में वृद्धि उच्च शिक्षा द्वारा ही सम्भव होती है, परन्तु दुःखद बात यह है कि आज भवन तथा भौतिक संरचना को अधिक महत्वपूर्ण समझा जा रहा है और सभी समस्याओं के हल में धन को देखा जाता है। विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में प्रवेश की समस्याओं को देखकर लोगों ने जगह-जगह स्ववित्तपोषित नये-नये काॅलेज खोले हैं किन्तु जब उनमें भी प्रवेश की समस्या हल नहीं हो पाती तो पत्राचार के माध्यम से डिग्रियां थोक में प्रदान की जाती हैं और सभी नियमों का उल्लंघन कर उनको ताक पर रख दिया जाता है। ये ऐसे काॅलेज एवं संस्थान न तो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा निर्धारित मानकों को पूरा करते हैं और न ही इनके पास पर्याप्त भवन एवं संसाधन होते हैं।



हमारे देश में उच्च शिक्षा व्यवस्था की शुरूआत सन् 1818 में अंग्रेजी शासन द्वारा की गयी। सन् 1857 में तीन केन्द्रीय विश्वविद्यालय कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में खोले गये, जिनका उद्देश्य अंग्रेजों द्वारा अपने लोगों को शिक्षित करना था किन्तु आजादी के समय तक उच्च शिक्षा में प्रगति बहुत धीमी रही और 90 साल में मात्र 18 विश्वविद्यालय ही देश में खोले गये। स्वतन्त्रता के बाद निजीकरण एवं उदारीकरण का दौर आया और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली गयी। संस्थागत रूप से अध्ययन करने वाले छात्रों का प्रतिशत 88 है जबकि दूरस्थ शिक्षा के क्षेत्र में 12 प्रतिशत छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। कुल छात्र संख्या का 86 प्रतिशत स्नातक स्तर पर, 12 प्रतिशत परास्नातक, 1 प्रतिशत छात्र शोध व पी.एच.डी. एवं 1 प्रतिशत डिप्लोमा अथवा सर्टीफिकेट स्तर पर अध्ययनरत हैं। उच्च शिक्षा में आज लगभग 20 मिलियन छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं, जिसमें 37 प्रतिशत कला संकाय में, 19 प्रतिशत विज्ञान संकाय में, 18 प्रतिशत वाणिज्य एवं प्रबन्धन में तथा 16 प्रतिशत छात्र इंजीनियरिंग एवं टेक्नोलोजी में, बाकी शिक्षा, चिकित्सा विज्ञान, विधि, कृषि, पशुचिकित्सा विज्ञान में लगभग 11 प्रतिशत छात्र शिक्षा पा रहे हैं। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में समस्त विद्यार्थियों में वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार कुल साक्षरता दर 73.0 प्रतिशत थी, जिसमें लड़कों का 80.9 प्रतिशत एवं लड़कियों का 64.6 प्रतिशत है। इसका अर्थ है कि छात्राओं में शिक्षा के प्रति जाग्रति बढ़ी है, जो कि हमारे देश के विकास के लिये अच्छा संकेत है। आज हमारे देश में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले लोगों की संख्या में अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है किन्तु उनको देश में समुचित रोजगार उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। 



आज उच्च शिक्षा के लिये, सरकार एवं सभी संस्थान, आम छात्रों के लिये उसकी अधिगम्यता एवं सभी के लिये समानता लाने में प्रयासरत है। पहले गरीब एवं ग्रामीण छात्र की पहुँच उच्च शिक्षा तक नहीं हो पाती थी किन्तु आज प्रवेश के लिये प्रतियोगिता के माध्यम से सभी छात्रों को समानता का अवसर प्रदान किया जा रहा है। प्रतिभाशाली एवं गरीब छात्रों को उच्च शिक्षा एवं शोध कार्य हेतु छात्रवृत्तियां प्रदान की जा रही हैं, साथ ही विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में इन छात्रों को शिक्षण हेतु पुस्तकालयों से पुस्तकें भी उपलब्ध करायी जा रही हैं। महंगाई एवं उच्च शिक्षा पर व्यय को देखते हुए सरकारी संस्थानों में शिक्षण शुल्क भी नगण्य है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सभी को समानता का अवसर प्रदान करने के लिये आरक्षण व्यवस्था को भी निरन्तर अपनाया जा रहा है। वर्तमान में सरकार का उद्देश्य एवं लक्ष्य समान शैक्षणिक प्रतिमान निर्धारित कर, सभी को शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराना है तथा सभी स्तरों पर शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाना है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा शिक्षा के स्तर में समानता लाने हेतु स्नातक, स्नातकोत्तर एवं तकनीकी शिक्षा हेतु एक समान पाठ्यक्रम एवं सेमेस्टर सिस्टम को भी लागू किया गया है। सरकार द्वारा सभी विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों को उनकी ग्रेडिंग के अनुसार अनुदान देने हेतु नेक संस्था द्वारा उनका मूल्यांकन कराया जा रहा है। सभी विश्वविद्यालयों को अपने शैक्षणिक सत्र को नियमित करने हेतु निर्देशित किया गया है और अधिकांश विश्वविद्यालयों का शैक्षणिक सत्र अब नियमित भी हो गया है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भी शिक्षा के स्तर एवं गुणवत्ता में सुधार, उच्च शिक्षा सुविधाओं में सामाजिक विषमता, भारी क्षेत्रीय असन्तुलन को दूर करना, पाठ्यक्रमों को अधिक उपयोगी समान और सार्थक बनाने के लिये नये सिरे से तैयार करना आदि को अपने उद्देश्य में शामिल किया है। भारत सरकार ने शिक्षा का मौलिक अधिकार घोषित करके सही दिशा में कदम उठाया है।



उच्च शिक्षा में गुणवत्ता का स्तर



उच्च शिक्षा में गुणवत्ता के स्तर पर यदि दृष्टि डाले तो प्राइवेट एवं स्ववित्तपोषित काॅलेजों द्वारा दी जा रही शिक्षा में गुणवत्ता पर कोई विशेष ध्यान नहीं रखा गया है और उनका उद्देश्य व्यवसायिकता पर आधारित हो गया है, क्योंकि जिस गति से जनसंख्या बढ़ी है, छात्र संख्या भी उसी अनुपात में निरन्तर बढ़ रही है। निजी एवं स्ववित्तपोषित काॅलेज अच्छे भवन एवं आधुनिक सुविधाओं के नाम पर अच्छी फीस रखकर अपने स्तर को ऊँचा बनाने का प्रयास करते हैं जबकि अति आवश्यक फैकल्टी के नाम पर योग्य एवं प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति नहीं की जाती है। यदि सरकारी काॅलेजों को देखा जाय तो उसमें भी आधे से अधिक पद स्थायी शिक्षकों के भर्ती न हो पाने के कारण रिक्त पड़े हुए हैं। इंजीनियरिंग और मेडिकल काॅलेजों तक में भी योग्य शिक्षकों का अभाव होने से शिक्षा की गुणवत्ता एवं स्तर में निरन्तर गिरावट आ रही है। आज लगभग 90 प्रतिशत इंजीनियरिंग काॅलेज पूर्णतः निजी क्षेत्र में खोले गये हैं जबकि 1960 में इनका प्रतिशत मात्र 15 था। इसका सीधा अर्थ है कि सरकार उच्च शिक्षा के प्रति अपनी जिम्मेदारी बखूबी नहीं निभा रही है, अधिकांश महाविद्यालयों में आधारभूत सुविधायें, पुस्तकालय, मानक के अनुरूप भवन, खेल मैदान, कम्प्यूटर लैब, शोध सुविधाओं हेतु प्रयोगशाला तथा विभागीय कक्ष आदि उपलब्ध नहीं हैं। सरकारी काॅलेजों में भी स्ववित्तपोषण योजना के अन्तर्गत विभिन्न कक्षाओं में प्रवेश कर उन छात्रों को नियमित छात्रों की अनुपस्थिति एवं स्टाफ की कमी के कारण उन्हें भी साथ ही कक्षाओं में बैठाते हैं और उनके लिये अलग से स्टाफ नियुक्त नहीं किया जाता है। अतः उसको आय के स्रोत के रूप में अपनाकर चलते हैं जबकि ऐसी शिक्षा गुणवत्ताविहीन हो जाती है। राजकीय एवं अशासकीय महाविद्यालयों में आज ऐसी स्थिति बन चुकी है कि गैर शिक्षक कर्मचारियों के अभाव में कार्यालय कार्य भी शिक्षकों द्वारा ही किया जाता है, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है और उसका खामियाजा छात्रों को भुगतना पड़ता है। महाविद्यालय स्तर पर शिक्षकों को एक नियमित समय के लिये काॅलेज में रुकना अनिवार्य तो कर दिया गया है जबकि आधारभूत सुविधाओं के अभाव में उनकी गुणवत्ता एवं कार्यक्षमता गिर जाती है, क्योंकि शिक्षकों के लिये बैठने का उचित स्थान एवं विभाग अधिकांश महाविद्यालयों में उपलब्ध नहीं हैं और वह अतिरिक्त समय में अनर्गल राजनीति करते हैं। स्नातक स्तर पर महाविद्यालयों में कुल छात्रों का 90 प्रतिशत का दबाव बना हुआ है जबकि स्नातकोत्तर स्तर पर भी दो तिहाई छात्र महाविद्यालयों में ही शिक्षा ग्रहण करते हैं। अतः छात्रों का संख्यात्मक दबाव बढ़ने से उनकी गुणवत्ता को बनाए रखना सम्भव नहीं हो पाता है। उच्च शिक्षा में गुणवत्ता को प्रमुख रूप से निम्न बातें प्रभावित कर रही हैं।



- अधिकांश विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में आज भी शिक्षण शुल्क बहुत ही कम रखा गया है और उसकी भी प्रतिपूर्ति सरकार द्वारा कर दी जाती है। अतः छात्र कक्षाओं में उपस्थिति के प्रति लापरवाही बरतते हैं और फेल होने पर पुनः प्रवेश अथवा परीक्षा सुधार परीक्षाओं में शामिल हो जाते हैं। परिणामस्वरूप शिक्षा के स्तर में गिरावट आ जाती है।
- संबद्ध महाविद्यालयों की तुलना में विश्वविद्यालय परिसर में छात्रों की संख्या बहुत कम होती है जबकि मानकों के अनुरूप परिव्यय अधिक मात्रा में किया जाता है किन्तु छात्रों का अधिकांश दबाव तो सम्बद्ध महाविद्यालयों में ही रहता है, जिसका परिणाम यह होता है कि उनको पर्याप्त व्ययों एवं मानकों के अभाव में गुणात्मक शिक्षा नहीं मिल पाती।
- उच्च शिक्षा केवल उन्हीं छात्रों को प्रदान की जाय जो उसमें रूचि रखते हों अथवा उनके लिये आवश्यक हो और वे पर्याप्त रूप से सक्षम भी हों, यदि उच्च शिक्षा का लक्ष्य भी सभी के लिये निर्धारित किया जायेगा तो निश्चित रूप से इसकी गुणवत्ता में गिरावट आ जायेगी।
- उच्च शिक्षा में प्रवेश ले रहे छात्रों की संख्या में जिस अनुपात में वृद्धि हो रही है, उस अनुपात में शिक्षकों के नये पदों का सृजन नहीं हो रहा है। छात्रों की संख्या में वृद्धि औसतन पांच प्रतिशत है जबकि शिक्षकों में वृद्धि की दर 3.35 प्रतिशत है और यह अन्तर लगातार बढ़ता ही जा रहा है, जो शिक्षा की गुणवत्ता को सीधे प्रभावित करता है।
- उच्च शिक्षा के अन्तर्गत विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के प्राध्यापकों को पूर्ण सुविधायें मुहैया नहीं करायी जाती है, जिससे वह अपने शिक्षण कार्य की जिम्मेदारी से बचकर अन्य कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं और शिक्षण कार्य प्रभावित होता है।
- विश्वविद्यालयों में खाली पदों पर नियुक्ति विश्वविद्यालय स्वयं करता है। अतः शैक्षणिक पद प्रायः अधिक समय तक खाली नहीं रहते जबकि उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों में प्राध्यापकों की नियुक्ति का अधिकार प्रदेश के उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग को होता है, जो रिक्त पदों पर कई-कई वर्षों तक नियुक्ति नहीं कर पाता हैं और अधिकांश मामले न्यायालय में लम्बित हो जाते हैं। राजकीय महाविद्यालयों में तो एक प्राध्यापक को दो अथवा तीन काॅलेजों से भी सम्बद्ध कर दिया जाता है। प्रदेश के उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग अधिकांशतः राजनीति के शिकार हो जाते हैं क्योंकि उसमें अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्ति राजनैतिक आधार पर की जाती है और जब भी राज्य सरकारें बदलती हैं तभी उनके कार्य में बाधा उत्पन्न कर दी जाती है, जिसका उच्च शिक्षा की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
- उच्च शिक्षा व्यवस्था में सरकार द्वारा मानदेय अथवा अस्थायी रूप से नियुक्ति की व्यवस्था एक सत्र के लिये की जाती है, ताकि सरकार पर अधिक व्यय का भार न पड़े। इन नियुक्तियों के अन्तर्गत भी अधिकांश महाविद्यालयों के प्रबन्धतन्त्र अपनी मर्जी से अच्छे एवं योग्य उम्मीदवारों को संस्तुत न करके अपने चहेतों को नियुक्त करा लेते हैं, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
- सम्बद्ध महाविद्यालयों में जहाँ पर स्थायी पद रिक्त हैं, प्रबन्धतन्त्र द्वारा नितान्त अस्थायी व्यवस्था के अन्तर्गत काम चलाने हेतु बहुत ही कम वेतन पर बेरोजगार शिक्षक चार से छः माह के लिए नियुक्त कर लिये जाते हैं, जो शिक्षक की न्यूनतम योग्यता भी पूरी नहीं करते और फिर हम शिक्षक की गुणवत्ता पर विचार करे तो निरर्थक है।
- विश्वविद्यालय एवं उनसे सम्बद्ध महाविद्यालयों में प्राध्यापकों को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। जैसे निर्धारित समय पर अगले वेतनमान में प्रोन्नति न मिलना, असमान वेतनमान होना, सम्बद्ध महाविद्यालयों में प्रोफेसर पद का सजृन न करना, मूलभूत सुविधायें उपलब्ध न होना, चयन वेतनमानों की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल होना, प्राइवेट काॅलेजों में प्रबन्धतन्त्र द्वारा मनमानी करना एवं प्राध्यापकों का शोषण करना और सेवा-शर्तों का असुरक्षित होना आदि। साथ ही यदि कोई प्राध्यापक अच्छा कार्य पूर्ण निष्ठा एवं लगन के साथ करता है, तो भी उसको पुरस्कार स्वरूप कोई पदोन्नति अथवा कोई पदक प्रदान नहीं किया जाता है।
- उच्च शिक्षा की गुणवत्ता बनाये रखने के लिये प्राध्यापकों को अपने ज्ञान का स्तर अद्यतन रखना चाहिये जिसके लिये समय-समय पर प्रशिक्षण हेतु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा एकेडमिक स्टाफ काॅलिज के माध्यम से ओरियन्टेशन, रिफ्रेशर कोर्स की व्यवस्था की गई है, जिसके लिये प्राध्यापक स्वेच्छा से इन कोर्स में हिस्सा नहीं लेते, बल्कि मजबूरी में अगला वेतनमान पाने हेतु इसमें भाग लिया जाता है। अतः इसे कड़ाई से लागू किया जाना चाहिये अन्यथा शिक्षा की गुणवत्ता पर असर पड़ेगा।
- उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को बनाये रखने के लिये विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में जहाँ-जहाँ शोध की सुविधायें हैं और स्तरीय कार्य नहीं हो पा रहे हैं, ऐसे दोहरे निम्नस्तरीय शोध कार्य पर अनिवार्यतः प्रतिबन्ध होना चाहिये।
- उच्च शिक्षा की गुणवत्ता छात्रों द्वारा की जा रही अनुशासनहीनता से भी प्रभावित हो रही है क्योंकि अधिकांश छात्र राजनीति की चपेट में आकर हिंसक अथवा अहिंसक आन्दोलन का रास्ता अपनाते हैं, परिणामस्वरूप विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों की करोड़ो रुपये की सम्पत्ति का नुकसान हो जाता है, जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित करता है।
- महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्तर पर प्राचार्य, कुलपति अथवा विभागाध्यक्ष द्वारा कार्य में पारदर्शिता नहीं बरती जाती और दबाव में गलत निर्णय चाहे वे प्रवेश से सम्बन्धित हों या परीक्षा अथवा प्रशासन सम्बन्धी बातें हों, उनमें पक्षपात बरता जाता है, जिससे उच्च शिक्षा की गुणवत्ता कहीं न कहीं प्रभावित होती है, साथ ही प्राचार्य एवं कुलपतियों द्वारा नियुक्ति, नये विभाग खोलने, नये विषयों की सम्बद्धता देने, सरकारी वित्तीय सहायता प्रदान करने अथवा वरिष्ठता सम्बन्धी मामले लम्बित पड़े रहते हैं, जिसमें किसी की भी जवाबदेही सुनिश्चित नहीं होती और शिक्षण कार्य प्रभावित होता रहता है।
- उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आने का एक मुख्य कारण हमारी परीक्षा प्रणाली भी है। प्रश्नपत्रों को तैयार करना, छपवाना और उनकी गोपनीयता बनाये रखना पूर्ण रूप से विश्वविद्यालय का उत्तरदायित्व है, जिसे बखूबी नहीं निभाया जाता। प्रश्नपत्रों में प्रश्नों को पाठ्यक्रम से न पूछना, केवल वर्णननात्मक प्रश्नों को पूछना, प्रश्नपत्रों को किसी पुस्तक विशेष से बनाना, प्रश्नपत्रों का निर्माण विषय विशेषज्ञों द्वारा न कराया जाना, कुछ ऐसे कारण हैं जो उच्च शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रश्न चिन्ह खड़े करते हैं।
- उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट उत्तर पुस्तिकाओं के ढीले एवं सही मूल्यांकन के न होने की वजह से भी हो रहे हैं। इसमें मूल्यांकन के समय परीक्षकों को प्रश्नपत्र का हल उपलब्ध न कराना, सीमा से अधिक उत्तर पुस्तिकाएं देना, विषय विशेषज्ञों को सम्बन्धित विषय की उत्तर पुस्तिकाएं न मिलना, केन्द्रीय मूल्यांकन के अन्तर्गत भी उत्तर पुस्तिकाएं मूल्यांकित करने को घर पर देना आदि ऐसे कारण हैं, जिससे निश्चित रूप से शिक्षा की गुणवत्ता पर फर्क पड़ता है।
- हमारी परीक्षाओं की उत्तर पुस्तिकाओं की मूल्यांकन व्यवस्था भी शिक्षा की गुणवत्ता पर सवाल खड़ा करती है क्योंकि महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाने वाला प्राध्यापक अलग होता है, जबकि परीक्षा हेतु प्रश्न पत्र अन्य शिक्षक तैयार करता है और मूल्यांकन तीसरे प्राध्यापक द्वारा किया जाता है। यदि पुनर्मूल्यांकन कराना हो तो चैथे प्राध्यापक द्वारा कराया जाता है, जबकि मूल्यांकन की निरन्तर प्रक्रिया होनी चाहिये, जो पढ़ाने वाले प्राध्यापक के हाथ में हो और उसमें पारदर्शिता बरती जाय। मूल्यांकन चाहे आन्तरिक हो या वाह्य उसके लिये पूर्व में ही विषय विशेषज्ञों एवं परीक्षकों की सूची बनाकर उन्हीं से मूल्यांकन कराया जाय।
- उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में फर्जी अंकतालिका अथवा प्रमाणपत्र तथा सिफारिश द्वारा प्रयोगात्मक परीक्षाओं अथवा उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन में अंकों की वृद्धि करना, परीक्षा में नकल व अन्य धाँधलियां करना भी आड़े आती हैं। 
- सरकार द्वारा उच्च शिक्षा को पूर्ण रूप से अनुत्पादक माना जाता है। अतः प्राध्यापक वर्ग यदि अपने हितों के लिये हड़ताल करते हैं तो सरकार इस ओर जल्दी से ध्यान नहीं देती, इस कारण छात्रों का काफी अहित होता है और सत्र में शिक्षण कार्य दिवस भी पूरे नहीं हो पाते, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
- विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की अनिवार्यता के बाद भी देश के सभी विश्वविद्यालयों ने समान पाठ्यक्रम को लागू नहीं किया है, जिससे छात्रों को एक विश्वविद्यालय से दूसरे विश्वविद्यालय में स्थानान्तरण के समय प्रश्न पत्रों की भिन्नता की समस्या आती है, जबकि कुछ विश्वविद्यालय द्वारा नित नये-नये हो रहे परिवर्तनों को भी अपने पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया गया है और अनेक वर्षों तक पुराना पाठ्यक्रम चलता रहता है, जो कि उपयोगी एवं रोजगारपरक नहीं है, इससे उच्च शिक्षा की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है।
- अधिकांश विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालयों की सम्बद्धता व नये विषयों को चालू कराने की अनुमति स्ववित्तपोषण योजना के अन्तर्गत दी जा रही है। अतः ऐसे नये कोर्स को चलाने के लिये पहले तो योग्य छात्र ही उपलब्ध नहीं होते, उसके बाद विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय मनमानी फीस वसूलकर न तो मूलभूत सुविधायें मुहैया कराते हैं और न ही योग्य एवं प्रशिक्षित शिक्षक। कुछ स्ववित्तपोषित महाविद्यालयों में अनुमोदन तो किसी योग्य शिक्षक के नाम से होता है, जबकि कक्षायें किसी अन्य अयोग्य व्यक्ति से पढ़वाते हैं, परिणामस्वरूप शिक्षा की गुणवत्ता गिर जाती है।
- उच्च शिक्षा में गिरावट का कारण विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों के पुस्तकालयों में स्तरहीन एवं घटिया स्तर की पुस्तकें खरीदा जाना भी है, क्योंकि पुस्तकें खरीदते समय न तो सम्बन्धित शिक्षक की सहमति ली जाती है और न ही पुस्तकालय समिति का अनुमोदन। पुस्तकालय में सन्दर्भित पुस्तकों का भी अभाव रहता है और इस पर भी प्रभावशाली शिक्षक अधिकांश पुस्तकें निर्गत कराकर घर पर रख लेते हैं जबकि छात्र उनके आवश्यक प्रयोग से वंचित रह जाते हैं।
- उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट, छात्रों द्वारा विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालयों की कक्षाओं में अनुपस्थित रहने के कारण भी देखी जा रही है। यदि शिक्षक छात्रों को अनुपस्थित दर्शाता है तो वह आपसी राजनीति का शिकार बन जाता है और प्राचार्य अथवा कुलपति स्तर पर उनको शिथिलता प्रदान कर दी जाती है। यदि उनको राहत न मिले तो न्यायालय की शरण लेकर वह परीक्षा में सम्मिलित हो जाते हैं।
- उच्च शिक्षा में आजकल शोर्टनोट्स, कुंजी, गैसपेपर्स, सम्भावित प्रश्नपत्र, शोर्ट सीरिज या घटिया स्तर की पुस्तकें बाजार में बेरोक टोक उपलब्ध हैं। अतः छात्र पाठ्यक्रम एवं सन्दर्भित पुस्तकें न खरीदकर उक्त पुस्तकें खरीदकर पढ़ते हैं, जो शिक्षा की गुणवत्ता को गिराने का काम करती हैं।
- उच्च शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र की भागीदारी का उद्देश्य मात्र लाभ कमाना रह गया है और समाज के गरीब छात्रों एवं शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया जाता, बल्कि संख्यात्मक निष्पादन पर अधिक ध्यान केन्द्रित किया जाता है।
- उच्च शिक्षा के क्षेत्र में लागू एवं देय वेतन की तुलना यदि वाणिज्यिक क्षेत्र से की जाय तो वह बहुत कम है। अतः उच्च योग्यता धारक व्यक्ति उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आना पसन्द नहीं करते और वह शिक्षा के क्षेत्र को अपनी तीसरी प्राथमिकता पर रखते हैं।
- महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में जो प्राध्यापक शोध कार्य करते एवं कराते हैं, वे शोध कार्य न कराने वाले लोगों को देखकर हतोत्साहित होते हैं क्योंकि उन्हें इसके बदले कोई प्रोत्साहन नहीं दिया जाता है। वे भी कुछ समय पश्चात् गुणवत्ता के प्रति लापरवाही बरतने लगते हैं।
- अशासकीय कालेजों में उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग द्वारा भेजे गये प्राचार्य प्रबन्धतन्त्र से तालमेल न बैठने के कारण असफल हो जाते हैं और प्रबन्धतन्त्र अपने चहेते कार्यवाहक प्राचार्य को कार्यभार सौंप देते हैं, जिससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित हो जाती है।
- आज अधिकांश छात्र एवं अभिभावक शिक्षा की तुलना व्यवसायिक गतिविधियों से करने लगे हैं। वे सोचते हैं कि महाविद्यालय जाने की बजाय सुबह अथवा शाम को अतिरिक्त समय में शिक्षक से ट्यूशन पढ़कर, दिन का समय अपने अभिभावक के व्यवसाय में लगाकर, उनकी सहायता करेंगे तथा कई गुणा धन कमा लेंगे, किन्तु इस प्रकार वे शिक्षा के प्रति लापरवाही बरतते हैं और उसकी गुणवत्ता बनाये नहीं रख पाते।
- उच्च शिक्षा में ट्यूशन को सामाजिक बुराई के रूप में शिक्षण पेशे के खिलाफ माना जाता है। देखा यह गया है कि ट्यूशन पढ़ाने वाले शिक्षक सम्बन्धित विषय में अधिक पारंगत हो जाते हैं जबकि पाम्परिक शिक्षक जो विषय को साल में एक बार पढ़ते और पढ़ाते हैं, उनसे मुकाबला नहीं कर पाते। शिक्षा की गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए ऐसे शिक्षकों की नैतिक जिम्मेदारी है कि वे समय से कक्षायें लें और अपना कोर्स समय पर कक्षा में पूर्ण करायें व शिक्षा का व्यवसायीकरण न करें, अन्यथा शिक्षा की गुणवत्ता में अपेक्षित सुधार सम्भव नहीं है।
उच्च षिक्षा व्यवस्था में सुधार हेतु सुझाव
आजादी के बाद से ही हमारी उच्च शिक्षा व्यवस्था आम छात्रों के लिए दुर्लभ, अप्रासंगिक एवं उद्देश्यहीन रही है। किसी भी देश के विकास का आकलन वहाँ रह रही शिक्षित जनता से हो सकता है न कि वहाँ की आर्थिक प्रगति से, जो कि शिक्षित मानव विकास पर आधारित होता है। उच्च शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य समाज को शिक्षित एवं रोजगारपरक बनाना होना चाहिए, जिसको हमारी उच्च शिक्षा प्रदान नहीं कर पायी है। महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में वृद्धि कर उच्च शिक्षा की पहुंच को सरल बनाने का प्रयास अवश्य किया गया है किन्तु पर्याप्त योजना के अभाव में उच्च शिक्षा में निरन्तर गुणवत्ता का ह्रास हो रहा है। अतः उच्च शिक्षा व्यवस्था में पर्याप्त सुधार हेतु प्रमुख सुझाव निम्न हो सकते हैं-
- सभी के लिए गुणात्मक उच्च शिक्षा सरकार की ओर से प्रदान की जानी चाहिए।
- उच्च शिक्षा में ''स्टार व्यवस्था'' में पिछड़े विश्वविद्यालय एक निश्चित समय में अपने स्तर को सुधारने का प्रयास करें।
- उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी अथवा निजी क्षेत्र के स्थान पर दोनों की मिलीजुली सहभागिता सुनिश्चित की जाय ताकि जवाबदेहिता सुनिश्चित की जा सके।
- उच्च शिक्षा में उन्नयन हेतु संस्थानों में लागू नियमों का प्रकटीकरण एवं पारदर्शिता अनिवार्य रूप से सुनिश्चित की जाय। यह सम्बद्धता, अनुमोदन, फीस ढांचा, प्रवेश प्रक्रिया, आधारभूत ढांचागत सुविधायें, वित्त, पाठ्यक्रम, परीक्षा प्रणाली आदि से सम्बन्धित हो सकते हैं।
- उच्च शिक्षा के उन्नयन हेतु इसके व्यवसायीकरण पर कानून बनाकर पूर्णतः प्रतिबन्ध होना चाहिए साथ ही जिन क्षेत्रों में व्यवसायीकरण अनिवार्य हो, उसको अलग से परिभाषित किया जाना चाहिए।
- उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सरकार द्वारा ऊँचे व्यवसायिक समूह/घरानों को आमन्त्रित कर उनकी भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए और उन्हें ऊँचे पदों पर आसीन करना चाहिए, साथ ही यह भी ध्यान रखा जाय कि गुणवत्ता के साथ कोई समझौता न हो।
- सरकार को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि जो छात्र, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं और उसको वित्तीय समस्या आड़े आती है, तो उसको पूर्णतः सहायता प्रदान की जाय न कि जातीय अथवा क्षेत्रीय आधार पर चयन कर सुविधा मुहैया करायी जाय।
- उच्च शिक्षा हेतु राष्ट्रीय स्तर पर समान पाठ्यक्रम के लिए समान फीस निर्धारित की जाये।
- उच्च शिक्षा व्यवस्था में गुणात्मक सुधार लाने हेतु नियमित शिक्षकों का चयन अनिवार्य रूप से राष्ट्रीय स्तर पर नैट अथवा स्लैट के माध्यम से किया जाय साथ ही पाठ्यक्रम का निर्धारण भी यूजीसी द्वारा समान रूप से किया जाय।
- उच्च शिक्षा व्यवस्था में स्ववित्तपोषित तथा सांध्यकालीन व्यवस्था अविलम्ब समाप्त की जानी चाहिए।
- विश्वविद्यालयों एवं स्नातकोत्तर महाविद्यालयों में शोध कार्यों को अनिवार्य बनाया जाय और उसको शिक्षकों के कैरियर पदोन्नति, फैलोशिप एवं अनुदान से जोड़ा जाना चाहिए, जिसकी समय-समय पर समीक्षा की जाय।
- उच्च शिक्षा पद्धति छात्रों पर केन्द्रित होनी चाहिए, जिसके लिए छात्रों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
- उच्च शिक्षा में छात्रों की प्रवेश नीति प्रतियोगिता पर आधारित होनी चाहिए तथा कक्षाओं में 75 प्रतिशत उपस्थिति अनिवार्य कर, उसका कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए।
- छात्रों की समस्याओं के समाधान हेतु ''कैरियर काउंसलिंग प्रोग्राम'' लागू किया जाय जो फोन अथवा इंटरनेट पर हर समय छात्रों को उपलब्ध हो।
- उच्च शिक्षा को राजनैतिक हस्तक्षेप से मुक्त रखा जाय।
- उच्च शिक्षा में छात्रवृत्ति देने का आधार गुणवत्ता भी हो ऐसी व्यवस्था की जाय।
- पुराने पाठ्यक्रमों को समय-समय पर संशोधित एवं अद्यतन किया जाय, जिसमें प्रायोगिक हिस्सा बढ़ाकर उसको व्यवहार में लागू कराया जाय, साथ ही समय-समय पर सेमीनारों का आयोजन भी पाठ्यक्रम के अन्तर्गत ही अनिवार्य बनाया जाय।
- परीक्षाओं की पद्धति एवं स्तर में सुधार किया जाय। राष्ट्रीय स्तर पर, प्रश्न बैंक के माध्यम से  प्रश्नपत्र के विभिन्न सेट बनाये जाय, जो पूरे पाठ्यक्रम को सम्मलित करते हों।
- मूल्यांकन व्यवस्था में भी आमूल-चूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है, जिसमें पर्याप्त पारदर्शिता बरती जाय।
- उच्च शिक्षा व्यवस्था में कोचिंग व्यवस्था, नियमित छात्रों के लिए पूर्णतः प्रतिबन्धित की जाय।
- उच्च शिक्षा में सुधार एक निरंतर प्रक्रिया है, इसको संस्थान, प्रबन्धतन्त्र, शिक्षक एवं छात्र सभी मिलकर सुधार सकते हैं। अतः समय-समय पर सभी का मूल्यांकन कर सुधार प्रक्रिया जारी रखी जानी चाहिए।
- उच्च शिक्षा के उन्नयन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका पुस्तकालय की होती है, जिसमें सन्दर्भग्रन्थ, पाठ्यपुस्तकें और शोध पत्रिकाओं हेतु अलग-अलग विभाग बनाये जाय। पुस्तकालय को कम्प्यूटराइज कर, इन्टरनेट से जोड़ा जाय, साथ ही वरिष्ठ शिक्षकों की एक समिति विभिन्न सुझावों हेतु बनायी जाय।
- उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रत्येक शैक्षणिक सत्र में कम से कम 180 शैक्षणिक कार्य दिवस सुनिश्चित किये जाने चाहिए, जिनमें समय-समय पर शैक्षणिक माहौल सुधारने एवं समस्याओं के लिए स्टाफ मीटिंग की जानी चाहिए। सभी स्टाफ सदस्यों एवं छात्रों को सत्र का कैलेन्डर भी उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
- उच्च शिक्षा व्यवस्था में गुणात्मक सुधार लाने हेतु महाविद्यालय, संकाय, स्टाफ एवं प्रबन्धतन्त्र स्व-मूल्यांकन करे तथा छात्रों, अभिभावकों एवं सभी सदस्यों के माध्यम से भी मूल्यांकन कराया जाना चाहिए, जिस पर बाद में पूर्णतः विश्लेषण एवं चिंतन किया जाय।
- उच्च शिक्षा में उन्नयन हेतु समय-समय पर प्रबन्धतन्त्र एवं प्राचार्य द्वारा स्टाफ काउन्सिल की मीटिंग आहूत की जाय, जिसमें सभी समस्याओं, प्रगति एवं निष्पादन पर विचार-विमर्श किया जाय तथा प्राप्त सुझावों को अमल में लाया जाय।
- उच्च शिक्षा संस्थानों में छात्रों के बीच बढ़ रही अनुशासनहीनता को नियन्त्रित करने के लिए भरसक प्रयत्न किये जाय और रैगिंग एवं छात्र-संघों पर पूर्णतः प्रतिबन्ध एवं कड़े दण्ड का प्रावधान किया जाना चाहिए।
- उच्च शिक्षा के क्षेत्र में स्वायत्त महाविद्यालयों की स्थापना की जाय। जिन विश्वविद्यालयों में कैम्पस शिक्षण हो रहा हो उनसे महाविद्यालयों को सम्बद्ध न किया जाय तथा प्रत्येक विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय की छात्र संख्या पर प्रतिबन्ध लगाया जाय और प्राइवेट छात्रों को दूरस्थ शिक्षा प्रणाली के माध्यम से जोड़ा जाय।
- प्राचार्य के पद को प्रभावकारी बनाने के लिए उसे प्रबन्धतन्त्र के साथ-साथ विश्वविद्यालय के प्रति भी जवाबदेह बनाये, ताकि शिक्षा की गुणवत्ता को बनाये रखा जा सके, रिक्त पड़े पदों पर भर्ती की त्वरित कार्यवाही की जाय।
विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय में यदि देखा जाय तो काम के घन्टों पर भी विचार करना होगा। सामान्यतः एक शिक्षक को प्रति सप्ताह 40 घण्टे कार्य करना होता है, जिसमें से प्रायः 24 घण्टे पढ़ाने के लिए व बाकी समय तैयारी के लिए चाहिए। तैयारी का समय घर पर या महाविद्यालय या विश्वविद्यालय में व्यतीत कर सकता है, परन्तु मूलभूत समस्या यह है कि महाविद्यालयों में अधिकांश प्राध्यापकों के लिए बैठने हेतु उचित रूप से कुर्सी-मेज एवं शांत वातावरण, जिसमें बैठकर तैयारी कर सकें, उपलब्ध नहीं है। विज्ञान वर्ग में यदि प्रयोगात्मक विषय के सम्बन्ध में देखें तो प्रयोगशाला का कार्य अधिकांश महाविद्यालयों में नवम्बर से शुरू करके फरवरी में बंद कर दिया जाता है और कुछ चयनित प्रयोग कराकर ही पाठ्यक्रम समाप्त कर दिया जाता है तथा उन्हीं प्रयोगों में से परीक्षा में भी पूछ लिया जाता है। सही रूप में तो शिक्षकों का मूल्यांकन छात्रों द्वारा किया जाना चाहिए लेकिन इसका प्रयोग दण्डात्मक कार्यवाही के लिए नहीं होना चाहिए क्योंकि यदि दण्डात्मक रूप में इस मूल्यांकन का प्रयोग किया जायेगा तो शिक्षक इसका विरोध करेंगे और यह व्यवस्था लागू नहीं हो पायेगी। इसका प्रयोग सुधारात्मक रूप में होना चाहिए और शिक्षकों को इससे सुधार की सीख लेनी चाहिए तथा ऐसा मूल्यांकन गोपनीय रखा जाना चाहिए और यह शिक्षक की सम्पत्ति होनी चाहिए।



उपरोक्त सभी बातों को मद्देनजर रखकर यदि सोचा जाय और उनमें सुधार किया जाय, छात्रों एवं शिक्षकों का मनोबल ऊँचा रखा जाय, रोजगारपरक शिक्षा प्रदान की जाय, मूलभूत सुविधाओं को बनाए रखा जाय, मानकों का सख्ती से पालन किया जाय तो कोई कारण नहीं कि हमारी शिक्षा प्रणाली भी बुलन्दियों को न छू सके और हम निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त न कर सकें। इसके लिए हम सभी को मिलकर विचार करना ही होगा।


संदर्भ
1. झा विनोदानन्द, भारत में शिक्षा व्यवस्था, योजना, 538 योजना भवन, संसद मार्ग नई दिल्ली, फरवरी 2012, पृष्ठ संख्या 49
2. तमंग अनिषा, The challenge of Ensuring Equal Access to Education for women : A critical Analysis, कुरुक्षेत्र अंग्रेजी, नरीमन भवन, ग्रामीण विकास मंत्रालय नई दिल्ली, सितम्बर 2012, पृष्ठ संख्या 15
3. सिंह नरेन्द्र पाल एवं हुसैन नजाकत, भारत में उच्च शिक्षा व्यवस्था: एक मूल्यांकन, कुरुक्षेत्र, ग्रामीण क्षेत्र एवं रोजगार मंत्रालय, कृषि भवन नई दिल्ली, सितम्बर 1996 पृष्ठ संख्या 39
4. कुमार आनन्द, शिक्षा परिदृश्य में गुणवत्ता क्रांति की आवश्यकता, योजना, 538 योजना भवन संसद मार्ग नई दिल्ली, अक्टूबर 2013, पृष्ठ संख्या 56
5. कुमार डाॅ0 धर्मेन्द्र, अध्यापक शिक्षा की गुणवत्ता हेतु अध्यापक-प्राध्यापक की भूमिका, कवितांजलि, टीचर्स अपार्टमेन्ट इन्दिरा बिहार काॅलोनी बिजनौर, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 90
6. विलानिलम जे.वी., भारत में शिक्षा व्यवस्था, योजना, 538 योजना भवन संसद मार्ग नई दिल्ली, अगस्त 2012, पृष्ठ संख्या 24
7. यादव डाॅ0 वीरेन्द्र सिंह, बदलते वर्तमान परिदृश्य में भारतीय उच्च शिक्षा की चुनौतियां और समाधान की दिशाएं, समाज विज्ञान शोध पत्रिका, आर्यवृत काॅलोनी मुरादाबाद गेट अमरोहा, अक्टूबर 2014 से मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 108
8. www.highereducation.org


 


एसोसिएट प्रोफेसर,  वाणिज्य विभाग, साहू जैन काॅलेज नजीबाबाद-246763 (उप्र)  email-drnps62@gmail.com


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